भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ ( १०।४१ ) ‘
जो – जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त , कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति ( प्राकट्य ) जान । ‘
आपने गीताके सातवें अध्यायमें यह भी बतलाया है कि ‘ बलवानोंका बल मैं हूँ , तेजस्वियोंका तेज मैं हूँ , बुद्धिमानोंकी बुद्धि हूँ , ज्ञानवानोंका ज्ञान मैं हूँ । यानी संसार में जो कुछ चीज प्रभावशाली, तेजवाली, बलवाली प्रतीत होती है, वह सब मेरे तेज के एक अंश का प्राकट्य है । ‘
गीताके दसवें अध्यायके अन्त में आपने अपने प्रभाव को बताते हुए कहा है
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ ( १०।४२ ) ‘
अथवा अर्जुन ! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है । मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ । ‘ आप ही निर्गुण , निराकार , सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हैं , आप ही स्वयं सगुण , साकाररूपमें प्रकट होते हैं । आप साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं ।
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