ओ३म्
“जीवन की सफलता वेदों के स्वाध्याय, सद्व्यवहार एवं आचरण में है”
हम मनुष्य इस कारण से हैं कि हम अपने मन व बुद्धि से चिन्तन व मनन कर सत्यासत्य का निर्णय करने सहित सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करते हैं। यह कार्य पशु व पक्षी योनि के जीवात्मा नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि पशु व पक्षियों आदि के पास न तो मनुष्यों के समान बुद्धि है और न ही उनके पास मानव शरीर के जैसा शरीर है जिससे वह विचार व चिन्तन-मनन कर सत्य का निर्णय कर अपने कर्मों को कर सकें। अतः मनुष्य योनि में मनुष्य को अपनी बुद्धि की यथाशक्ति उन्नति कर उससे जो उचित कर्म व व्यवहार निश्चित होते हैं, उन्हें ही करना चाहिये। प्रायः लोग ऐसा करते भी हैं परन्तु बहुत से लोग काम, क्रोध, लोभ, इच्छा, ईर्ष्या व द्वेष आदि के वशीभूत होकर अकरणीय कर्म व व्यवहार करते हैं। संसार के स्वामी सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर की दृष्टि से हम जीवों का कोई शुभ व अशुभ कर्म छिप नहीं पाता जिससे जीवात्मा वा मनुष्य को अपने सभी कर्मों का जन्म व जन्मान्तरों में भोग करना व उनका परिणाम भोगना पड़ता है। मनुष्य को जीवन में जो सुख व दुःख मिलते हैं वह उसके वर्तमान जीवन सहित पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों का फल होते हंै। पूर्वकृत कर्मों को तो सभी मनुष्यों वा जीवात्माओं को भोगना ही पड़ता है परन्तु हम अपने वर्तमान व भविष्य के कर्मों का सुधार अवश्य कर सकते हैं। इसके लिये हमें एक विद्वान पथ-प्रर्दशक गुरु व आचार्य की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में ऐसे गुरु उपलब्ध भी हो सकते हैं परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति हम घर बैठे वेद एवं वैदिक साहित्य का स्वाध्याय कर पूरी कर सकते हैं। सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए तथा वेदों के मर्मज्ञ विद्वान ऋषियों ने उपनिषद, दर्शन तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थ लिखकर हमारें कर्तव्यों का हमें बोध कराया है। हमें वेदों सहित उपलब्ध समस्त वेदानुकूल आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन निरन्तर प्रतिदिन कुछ घण्टे अवश्य करना चाहिये। ऐसा करते हुए पाप कर्मों को करने में हमारी प्रवृत्ति नहीं होगी जिससे हमारे जीवन में दुःखों की मात्रा तो कम होगी ही, आत्मा के शुभ कर्मों के आचरण से सुखों में वृद्धि भी होगी। शास्त्रीय ज्ञान व शुभकर्मों को करने से हमारी आत्मा की उन्नति होगी जिससे हमारा मनुष्य जीवन सफल होगा। हमारा वर्तमान, भविष्य एवं परजन्म सभी सुरक्षित होंगे तथा हमें सुख व उन्नति प्राप्त कराने वाले होंगे। अतः जीवन को सफल व उन्नत करने के लिये हमें वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित ईश्वर, आत्मा तथा सांसारिक विषयों पर विचार व चिन्तन करते रहना चाहिये। इससे हमारा जीवन असत्य व अनुचित कर्मों को करने से बच सकेगा तथा हम धर्म के पर्याय शुभ कर्मों का संचय कर अपने भविष्य को सुखद एवं शान्ति से पूर्ण बना सकेंगे।
मनुष्य जीवन की उन्नति में वेदों के अध्ययन व ज्ञान का सर्वोपरि महत्व होता है। वेद कोई साधारण पुस्तक नहीं है। यह सृष्टि के आरम्भ में इस सृष्टि के रचयिता सर्वव्यापक परमेश्वर का अपना निज का ज्ञान है जो उसने मनुष्यों के कल्याण के लिये चार ऋषियो अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। इसी ज्ञान को हमारे परवर्ती ऋषियों व विद्वानों ने सुरक्षित रखा जो आज भी अपने शुद्ध व यथार्थस्वरूप सहित शुद्ध वेदार्थ सहित हमें सुलभ है। वेदों के शीर्ष आचार्य ऋषि दयानन्द ने वेदों की परीक्षा व परम्पराओं का अध्ययन कर पाया था कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हैं तथा इसका अध्ययन, अध्यापन, प्रचार तथा आचरण मनुष्यों का परम धर्म है। यह बात वेदाध्ययन एवं विचार करने से सत्य सिद्ध होती है। सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदों का सत्य स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। इसे पढ़कर पाठक आश्वस्त हो सकता है कि वेदों का मनुष्य के जीवन में सर्वोपरि महत्व है और ऋषि दयानन्द की सभी मान्यतायें वेदानुकूल एवं परमधर्म के पालन में प्रेरक एवं सहायक हैं। वेदों का अध्ययन करने वाला मनुष्य धर्ममार्ग से च्युत नहीं होता। वह धर्म संचय कर जन्म व जन्मान्तरों में सुखों को प्राप्त करता है। अशुभ कर्म नहीं करता जिससे इनके परिणाम में होने वाले दुःखों व मुसीबतों से वह बचा रहता है। हमारा वर्तमान जन्म अपने पूर्वजन्मों के ज्ञान व कर्मों का परिणाम है। इसी प्रकार से हमारा परजन्म भी इस जन्म के कर्मों का परिणाम होगा। इस जन्म में वेदाध्ययन एवं सद्कर्मों को करने से मनुष्य इस जन्म सहित परजन्मों में भी सुख प्राप्त करता है तथा अशुभ कर्म न करने से इससे मिलने वाले दुःखों से बच वह बचा रहता है। अतः हमें वेदाध्ययन को प्रमुखता देनी चाहिये और प्रतिदिन यथासम्भव कुछ समय वेदों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये।
वेदों से अपरिचित मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति को ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य मान लेता है और रात दिन धनोपार्जन व सम्पत्ति को अर्जित करने में लगा देता है। इससे उसे शारीरिक कुछ सुख मिलता है परन्तु यह सुख धर्म व शुभ कर्मों की तुलना में प्राप्त सुखों से निम्न कोटि का होता है। वेदानुकूल ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार के कार्य तथा दान आदि कर्म कर्तव्य की भावना से किये जाते हैं जिससे मनुष्य इन कर्मों में लिप्त नहीं होता। इन वेद विहित कर्मों का परिणाम सुख ही होता है जबकि वेद ज्ञान से रहित कर्म करने से मनुष्य अनायास व अनजाने में भी अनेक अशुभ कर्म डालता है जिसका परिणाम उसे दुःख के रूप में भोगना पड़ता है। अतः स्वाध्याय से वेदज्ञान को प्राप्त कर मनुष्यों को वेदानुकूल शुभ कर्मों को करते हुए धन व सम्पत्ति का संचय करना चाहिये व उसका त्यागपूर्वक भोग करने के साथ उससे अन्य बन्धुओं को भी लाभ पहुंचाना चाहिये। इसके लिये परोपकार एवं दान आदि कर्तव्य सुख, उन्नति व यश प्राप्त कराते हैं। अतः जीवन को अल्प व सीमित मात्रा में भौतिक सुखों की इच्छा के साथ वेदाध्ययन तथा वेद निर्दिष्ट कर्तव्यों को भी अपनी जीवन शैली व दिनचर्या में सम्मिलित करना चाहिये। ऐसा जीवन ही संतुलित जीवन होता है जिसका परिणाम श्रेयस्कर होता है।
मनुष्य वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करता है तो उसे इस सृष्टि के स्वामी व संचालक ईश्वर सहित जीवात्मा व सृष्टि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। यह सृष्टि उसे अपने साध्य ईश्वर को प्राप्त करने में एक साधन के रूप में स्पष्ट प्रतीत होती है। सृष्टि मात्र सुख भोग के लिये नहीं अपितु त्याग पूर्वक जीवन का निर्वाह करते हुए आत्मा में शुभ गुण, कर्म व स्वभाव को धारण कर परमात्मा को प्राप्त करने वा उसका साक्षात्कार करने के लिये साधन रूप में हमें प्राप्त कराई गई है। हमारा शरीर भी मात्र सुखों का भोग करने के लिये नहीं बना है अपितु यह भी हमारी आत्मा को ईश्वर तक पहुंचाने वाला एक रथ है जो ईश्वर प्राप्ति का साधन है। हमें साध्य को प्राप्त करने में सहायक अपने शरीर को ज्ञान व तप से साधना होता है। यही शरीर का सदुपयोग होता है। अपने उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति को भुलाकर मात्र धनोपार्जन करना, सम्पत्ति का संचय करना तथा इन्द्रियों के सुख भोगने को जीवन का उद्देश्य मान लेना अविद्या व भ्रम से युक्त सोच व विचारधारा है। हमें इससे बचना है और वेद और सत्यार्थप्रकाश से ही प्रेरणा लेकर अपने जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिये ईश्वर व आत्मा को स्मरण रखते हुए साधना करनी है। ईश्वर व आत्मा के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त होकर हमें ईश्वर को उपासना एवं शुभकर्मों से सन्तुष्ट करते हुए न्यून मात्रा में ही सुखों का भोग करना हमारा लक्ष्य होना चाहिये। इसके लिये हमें वेद आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हुए सद्ज्ञान से युक्त रहना चाहिये। यह मनुष्य जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य है।
मनुष्य वा उसकी आत्मा अल्पज्ञ सत्ता है। वह बिना वैदिक साहित्य के सभी विषयों का सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती। इसके लिए उसे वेद व सद्गुरुओं की आवश्यकता होती है। वेद व उसके सत्यार्थ ही वस्तुतः हमारे सद्गुरु हैं। वेदाध्ययन से ही हम इस संसार को इसके यथार्थरूप में जानने में समर्थ होते हैं। वेदों से हमें ज्ञात होता है कि ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति अनादि व नित्य है। हम इस संसार में अनादि काल से हैं। हमेशा रहेंगे। कभी हमारा नाश व अभाव नहीं होगा। अतीत में भी हम जन्म-मरण में फंसे रहे हैं तथा भविष्य में भी जन्म व मरण में आबद्ध रहेंगे। हमारा जन्म हमारे कर्मों के आधार पर होता है। अतः हमें कर्मों पर ध्यान देना होगा। इसके लिये ही वेदज्ञान सहायक होकर हमारा मार्गदर्शन करता है। हमें वेद वा वेदज्ञान को कभी छोड़ना नहीं है। यदि हम स्वाध्याय करते रहेंगे तो हमें अपने कर्तव्यों व उसके होने वाले परिणामों का ज्ञान रहेगा जिससे हम अशुभ कर्मो से होने वाले दुःखों व बार बार के जन्म व मरण पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। वेदों से हमें अपने जीवन की उन्नति के यथार्थ व शाश्वत उपायों ईश्वरोपासना, यज्ञीय जीवन, अग्निहोत्र का करना तथा इतर सभी कर्तव्यों का ज्ञान भी होता है। अतः वेद को जीवन में कभी विस्मृत नहीं करना चाहिये।
वैदिक जीवन ही मनुष्य को आध्यात्मिक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति कराता है। इसका उदाहरण हमारे सभी पूर्वज ऋषि, मुनि, योगी, राम, कृष्ण, दयानन्द आदि महापुरुष तथा सभी शीर्ष वैदिक विद्वान रहे हैं। अतः हमें अपने पूर्वजों व महापुरुषों का अनुकरण व अनुसरण करना चाहिये। ऐसा करने से हमारा जीवन निश्चय ही उन्नत एवं सफल होगा। हमें यह भी जानना है कि वेदों के स्वाध्याय से वियुक्त जीवन एकांगी एवं मनुष्य को बन्धनों में बांधने वाला होता है जिससे परजन्मों में दुःखों की प्राप्ति होती है। यह रहस्य भी हमें वेदों पर आधारित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है।
वेदाध्ययन कर वेदों के अनुरुप आचरण करना ही मनुष्य का कर्तव्य, धर्म एवं जीवन की सफलता है जिसमें मनुष्य की आत्मा की उन्नति होने से श्रेष्ठ मनुष्य योनि व उत्तम परिवेश में जन्म प्राप्त होता है और मोक्ष को प्राप्त कर सबसे बड़े सुख व लक्ष्य की प्राप्ति होती है। अतः हमें प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर का ध्यान व स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते हुए अपनी आत्मा की उन्नति तथा जीवन की सफलता पर विचार अवश्य करना चाहिये। ऐसा करने से परमात्मा से हमें सीधा मार्गदर्शन प्राप्त होगा और हम स्वाध्याय व सदाचरण करते हुए दुःखों से बचेंगे और धर्म के संचय से उत्तम गति व मोक्ष को प्राप्त कर जीवन को सफल कर सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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