हम मनुष्य कहलाते हैं। हमारा जन्म हमारे माता-पिता की देन होता है। माता-पिता को हमें जन्म देने व पालन करने में अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। यदि हमारे माता-पिता यह सब न करते तो हमारा न जन्म होता और यदि जन्म होता भी तो हम स्वस्थ, बुद्धिमान व ज्ञानवान न बनते। हमारे माता-पिता ने ही हमें योग्य गुरुओं व विद्यालयों में भेजकर हमारी बुद्धि का अन्धकार दूर कर हमें ज्ञान से आलोकित किया है। इस कारण सभी मनुष्य अपने-अपने माता-पिता के उपकारों से उनके ऋणी होते हैं। यह ऋण कोई भी सन्तान कभी नहीं उतार सकती। हमारे माता-पिता सन्तान को जन्म देने के लिये अपने सुख-सुविधाओं का त्याग अवश्य करते हैं, इस कारण वह पूजनीय व वन्दनीय है, परन्तु कोई माता-पिता मानव शरीर की उत्पत्ति का ज्ञान नहीं रखता। मानव शरीर की रचना व उत्पत्ति तो सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनन्त बार इस सृष्टि को रच चुके ईश्वर द्वारा ही की जाती है। निराकार, सर्वव्यापक तथा सर्वातिसूक्ष्म होने से वह भौतिक आंखों से दिखाई नहीं देता परन्तु उसकी रचना का दर्शन व उसके स्वरूप का गहन चिन्तन-मनन ही उसके गुण, कर्म व स्वभाव का दर्शन कराता है। इससे ज्ञात होता है कि हमारे शरीर में विद्यमान सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम व चेतन तत्व जीवात्मा को सशरीर जन्म देने वाला व उसकी आवश्यकता की सभी वस्तुओं को इस सृष्टि को रच कर इसमें निरन्तर उत्पन्न करने वाला एकमेव परमात्मा ही है। हमें उसे यथार्थरूप में जानने का प्रयत्न करना चाहिये और उसके उपकारों के प्रति नियमित रूप से कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उसकी उपासना करनी चाहिये।
इस सृष्टि के कर्ता ईश्वर को बिना वेद ज्ञान व वैदिक साहित्य के अध्ययन के नहीं जाना जा सकता। वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने से ईश्वर को यथार्थरूप में जाना जाता है। सृष्टि के आदि काल में भी अमैथुनी सृष्टि में हमारे ऋषियों व इतर मनुष्यों ने परमात्मा प्रदत्त वेदज्ञान के द्वारा ही ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि सहित अपने कर्तव्यों व संसार के विभिन्न पक्षों व रहस्यों को जाना था। संसार में ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। ज्ञान अनन्त है। मनुष्य अपने जीवन में केवल ज्ञान का कुछ भाग ही जान व प्राप्त कर सकता है। मनुष्य के लिये आवश्यक सभी विद्याओं का ज्ञान वेदों में सुलभ होता है। मनुष्य वेदज्ञान को प्राप्त होकर सभी विद्याओं का विस्तार कर सकते lalहैं। प्राचीन भारत में हम देखते हैं कि भारत ज्ञान व विज्ञान से सम्पन्न था तथा देश के सभी लोग सुखी व सम्पन्न होते थे। सामाजिक असमानता, अन्याय व शोषण जैसा व्यवहार व प्रथायें आज देखी जाती हैं, ऐसी सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत के समय तक के लगभग 1.96 अरब वर्षों में आर्यावर्त नहीं थी। आज भी समाज की सभी विकृतियों को वेदाध्ययन, वेद प्रचार करके तथा वेद की शिक्षाओं व मान्यताओं को देश व समाज में लागू करके दूर किया जा सकता है। वेद पूरे विश्व को ईश्वर का एक परिवार मानते हैं। अतः मनुष्य व मनुष्य के बीच किसी भेदभाव का प्रश्न ही नहीं होता। वेदों के अनुसार सभी मनुष्यों को अपनी अपनी शारीरिक क्षमता व योग्यता के अनुसार विद्या प्राप्त कर शुभ करने का अधिकार होता है। वेदों ने यह अधिकार सभी स्त्री व पुरुषों को सृष्टि के आरम्भ से प्रदान कर रखा है। प्राचीन काल में वैदिक विद्वानों की मंत्री परिषद ही समाज में वैदिक मान्यताओं व शिक्षाओं को क्रियान्वित किया करती थी। राजा को भी वेद के विद्वानों व ऋषियों की आज्ञाओं का पालन करना आवश्यक हुआ करता था। इसी युग को सत्य पर आधारित राज्य व रामराज्य का पर्यायवाची कहा जा सकता। वस्तुतः रामराज्य भी वेदों की मान्यताओं पर आधारित राज्य ही था। राम वैदिक मर्यादाओं के पालक तथा वैदिक आदर्श राज्य के संचालक थे। उनके राज्य में सभी निर्णय व कार्य वेदानुकूल व वेदसम्मत किये जाते थे।
मनुष्य को मनुष्य जीवन परमात्मा एवं माता-पिता के द्वारा परमात्मा होता है। मनुष्य जन्म में परमात्मा की भूमिका को मुख्य व माता-पिता की भूमिका को परमात्मा की भूमिका का विचार कर गौण कहा जा सकता है। परमात्मा ने मनुष्य की आत्माओं को उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार सुख व दुःख भोगने के लिये इस संसार को बनाकर सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि जीवात्माओं को भिन्न भिन्न योनियों में जन्म दिये हैं। इसी प्रकार से जीवात्माओं को भविष्य में भी जन्म, जीवन व सुख व दुःख परमात्मा से प्राप्त होते रहेंगे। इस संसार की पहेली व गुत्थी को यदि समझना है तो यह ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के अस्तित्व व क्षमाताओं को सफलता प्रदान करने के उदाहरण से जान सकते हैं। ईश्वर का अस्तित्व व सत्ता यथार्थ व सत्य है। उसके अपने गुण, कर्म व स्वभाव भी सत्य हैं। इन सबका उल्लेख ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान में उपलब्ध होता है। जीवात्मा का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व व सत्ता है। सभी जीवात्मायें जन्म लेने व सुख दुःख भोगने में परमात्मा के अधीन होती है। मनुष्य योनि उभय योनि होती है। इसमें जीवात्मा स्वतन्त्रतापूर्वक कर्मों को करती है परन्तु मनुष्य योनि में भी आत्मा पूर्वजन्मों व इस जन्म के क्रियमाण कर्मों का फल भोगने में ईश्वर के नियंत्रण में ही रहती है। संसार में तीसरी सत्ता व पदार्थ प्रकृति है जो कि जड़ पदार्थ है। यह पूर्णतः परमात्मा के नियंत्रण में है। यह प्रकृति सत्व, रज व तम तीन गुणों वाली है। इस प्रकृति रूपी उपादान कारण से ही परमात्मा इस दृश्यमान व अदृश्यमान पदार्थों से युक्त सृष्टि की रचना करते हैं। इस सृष्टि का प्रयोजन परमात्मा का अपना किसी प्रकार का मनोरंजन व सुख नहीं होता है अपितु इस सृष्टि की रचना व संचालन परमात्मा जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख व दुःख प्रदान करने में करते हैं। यदि परमात्मा जीवों को जन्म न देते तो जीव निद्रावस्था के समान आच्छादित रहते हैं। उन्हें किसी प्रकार के सुख व दुःख का लाभ प्राप्त नहीं होता। तब ईश्वर सृष्टिकर्ता व न्यायकारी आदि गुणों से युक्त होकर भी इन गुणों से विहीन ही माना जाता। अपने गुणों व सामथ्र्य को प्रकट करने, जीवों को स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करने का अवसर देकर तथा उन्हें उनके कर्मों के अनुसार सुख व दुःख देकर ईश्वर ने अपनी सामथ्र्य व गुणों का प्रकाश कर उन्हें सफल किया है। ईश्वर के इस परोपकार के कार्य के कारण ही जीवात्मायें मनुष्य योनि में वेदज्ञान को प्राप्त होकर ईश्वर की उपासना व सद्कर्मों को करते हुए जन्म मरण से छूट कर मुक्ति को प्राप्त होती हैं। इसके साथ जीवात्मायें ईश्वर के आनन्द का भोग करते हुए दुःखों से सर्वथा रहित निश्चिन्त जीवन व मोक्षावधि को प्राप्त होती हैं। इस प्रकार जीवात्मा को जो सुख व दुःख प्राप्त होते हैं वह परमात्मा द्वारा ही दिये जाते हैं जिनका आधार हमारे ही ज्ञान व कर्म हुआ करते हैं।
ईश्वर निःस्वार्थ व निरपेक्ष भाव से संसार में अनन्त संख्या में विद्यमान जीवों को एक न्यायाधीश की भांति उनके कर्मानुसार सुख व दुःख प्राप्त करते हैं। उन सभी जीवों के सभी कर्मों के साक्षी होते हैं। उनको सद्कर्मों की प्रेरणा करते हैं। उन सभी जीवों के सुधार के लिये ही वह जीवात्मा के पूर्व व वर्तमान जन्म के अभुक्त अशुभ कर्मों का फल दुःख के रूप में देते हैं। पाप व अशुभ कर्मों का फल भोग लेने पर जीवात्मा उन उन कर्मों से मुक्त होकर शुद्ध व पाप रहित हो जाते हैं। ईश्वर की यह व्यवस्था आदर्श व्यवस्था है। ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए हमारे ऋषियों व आप्त विद्वानों ने जन्म व मरण विषयक अनेक रहस्यों से अपने ग्रन्थों द्वारा संसार को परिचित कराया है। ऋषियों की मान्यता है कि परमात्मा सभी जीवों के सभी कर्मों, चाहें वह रात के अंधेरे में किये हों या दिन के प्रकाश में, छुप कर किए हों या प्रत्यक्षरूप में, उन सबका साक्षी होता है और उन सभी कर्मों के पाप व पुण्य कर्मों का फल जीवात्मा को जन्म-जन्मान्तर में देता है।
हमें अपने पुण्य व पाप सभी कर्मों के फल भोगने पड़ते हैं। एक भी कर्म ऐसा नहीं बचता जिसका फल परमात्मा हमें न दे। अतः मनुष्य को इस पर विचार कर पाप व अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग करना चाहिये। ऐसा करने पर हमारे जीवन में आने वाले दुःख नहीं होंगे। हम दुःखों से दूर रहेंगे। हम अपने पूर्व जीवन पर दृष्टिपात करें तो हमें विदित होता है कि हमने संसार में आकर अपने ज्ञान व स्वभाव के अनुसार शुभ व अशुभ कर्म किये हैं व उनके परिणामों को भोगा है। सद्कर्मों की पूंजी ही मनुष्य की वास्तविक पूंजी होती है जो हमारे साथ परजन्म में जाती है और हमें सुख व दुःख देती है। यह सुख व दुःख हमें परमात्मा प्रदान कराते हैं। सृष्टि के आरम्भ काल से यह क्रम चल रहा है। इससे पूर्व कल्पों में भी हम विद्यमान थे और हमारा जन्म मरण होता रहा था। हम परमात्मा से अपने कर्मो का सुख व दुःख प्राप्त करते रहें हैं। वर्तमान में भी ऐसा ही हो रहा है और आने वाले अनन्त काल में भी ऐसा ही होता रहेगा। हमारी यह सृष्टि अवधि पूर्ण होने पर प्रलय को प्राप्त हो जायेगी। उसके बाद परमात्मा पुनः सृष्टि की उत्पत्ति करेंगे और पुनः सभी आत्मायें अपने अपने कर्मानुसार जन्म लेकर सुख व दुःखों का भोग करेंगी। अतः हमें ईश्वर के यथार्थ विधान को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। वेद व वेदभाष्य, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, रामायण, महाभारत एवं ऋषि दयानन्द के जीवन चरित्र आदि का अध्ययन करते रहना चाहिये। इससे हमारा मार्ग प्रशस्त होगा। इससे हमारी सद्कर्मों में प्रवृत्ति बढ़ेगी। हम पाप कर्मों को नहीं करेंगे। सद्कर्मों का परिणाम हमें परमात्मा से सुख के रूप में मिलेगा। ऐसा करते हुए ही कालान्तर व भावी जन्मों में से किसी जन्म में हमें मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है। मोक्ष ही वस्तुतः अमृत होता है। मोक्ष के समान अन्य कोई अमृत नहीं है। इस अमृतमय मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही परमात्मा ने यह संसार रचा है। हमें जागरूक होकर ज्ञान की वृद्धि कर, सत्य को प्राप्त होकर तथा असत्य का त्याग कर ईश्वर का विश्वसनीय सफल भक्त व उपासक बनना है। यही श्रेष्ठ मनुष्य जीवन का आधार व स्वरूप है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि हमें जो सुख व दुःख मिलते हैं वह हमारे कर्मों का ही परिणाम होते हैं जिन्हें परमात्मा अपनी करूणा, दया और न्याय व्यवस्था से हमें प्रदान करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य