मेरी आज की रचना वर्तमान समय में सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं के कारण मनुष्य , मनुष्य से भिन्न प्रतीत हो रहा है। हमे अपने अंदर की इंसानियत को जगाना है, विषय पर केंद्रित है।”
इंसानियत
वह खाने की खोज में चार मील चले,
हम चार कदम चले।
वो इस दिन के शोर में बेबस चले,
हम इन शांत कमरों में बेफिक्रे रहे।
हमने चार रोटियों की कीमत ना समझी,
वह चार रोटियों की तलाश में भटकते रहे।
उन्होंने सोने के लिए सड़क का किनारा ढूंढा,
हमने नरम बिछौने की कद्र न की।
रात के अंधेरे में हमने एकाकीपन को ढूंढा,
उन्होंने हर उगते सूरज को आशा की किरण माना।
हमने जिस बदलते मौसम को खूबसूरत माना,
उन्होंने उसे अपनी ठोकरो का हिस्सा माना।
कितना आसान है ना कुछ रुपए देकर अपनी लाखों की गाड़ी से चले जाना?
कितना आसान है ना अपने हजारों के चश्मे से उनकी आशाओं से भरी आंखों को नजरअंदाज कर देना ?
और कितना मुश्किल है ना इंसान होने का फर्ज निभाना !
और कितना मुश्किल है ना इस ढोंग की जिंदगी से दो पल असलियत को देना!
यह जिंदगी कितनी सुंदर हो जाएगी ना, गर हम अपने अंदर की इंसानियत को जगा देंगे,
भूले- भटके, बेसहारा को आसरा देंगे,
चलो! एक नया लक्ष्य बनाते हैं किसी की आशा बनकर उसमें जीवन ज्योति जगाते हैं।
डॉ• ऋतु नागर
…………..यहां कर्म अपना है और कुछ भी नहीं ! ………सफलता का सूत्र भी यही है
भगवती का चतुर्थ स्वरूप कूष्माण्डा: भक्त अपनी आतंरिक प्राणशक्ति को उर्जावान बनाते हैं