चुभन का अहसास कराते कहीं, हर क्षण उम्मीद जगाते नई….

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जीवन और कैक्टस
मरु से जीवन में,
पनपता हुआ कैक्टस,
धीरे-धीरे अपनी जड़ों को सींच रहा,
कतरा -कतरा पानी से,
बिंधा हुआ कांटों से ,
कदम बढ़े गर कभी ,
जख्म देता ,टीसता कहीं कोई,
पुहुप खिलते रंग-बिरंगे उनमें कई ,
“खिले “कब ‘मुरझा’ गए किसी को खबर नहीं,
देखते हैं दूर से कर कभी रखते नहीं ,
बिंध न जाए कर ,उनके ही कहीं,
बैठकों की सजावट का हिस्सा बने,
दूर से ही वाह-वाही पातें कहीं,
गुणों की खान होते हुए भी,
चुभन का अहसास कराते कहीं ,
जीवन का हिस्सा बने,
हर क्षण उम्मीद जगाते नई ।

डा• ऋतु नागर

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