जय श्री महाकाल: उज्जैन का इतिहास

0
663

मध्यप्रदेश के मालवा में उत्तरवाहिनी क्षिप्रा तट पर भारत की प्राचीनतम, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी उज्जयिनी अवस्थित है।

उज्जयिनी का इतिहास हमारे देश की सांस्कृति धरोहर है। प्रत्येक कल्प में उज्जयिनी के नाम बदलकर रखे गये थे। श्वेतवराह कल्प में इसका नाम ‘उज्जयिनी’ है, जो इसकी प्राचीनता का ज्ञान कराती है। सूत्र ग्रन्थों एवं पुराणों में उज्जयिनी के जो वर्णन है। उसके आधार पर यह नगर 5 हजार वर्ष पूर्व से भी विद्यमान है।

Advertisment

भागवद के स्कन्द में भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भ्राताओं को विद्यार्जन हेतु अवन्तिका में गुरुदेव सान्दीपनि ऋषि के आश्रम में आने की कथा कही गई है। श्रीरामचरित मानस; श्रीकृष्ण चरित से पूर्व माना जाता है। श्री रामायण के किष्किंधाकाण्ड काण्ड में भी श्री सीता देवी के अन्वेषणार्थ वानर दल को रवाना करते समय सुग्रीव ने अवन्ति देश का उल्लेख किया है। अतः इससे भी इसका अस्तित्व 5 हजार वर्ष पूर्व सहज ही स्वीकार्य योग्य है।
प्राचीन नगरी वर्तमान उज्जैन से उत्तर में थी जो आज गढ़कालिका नामक क्षेत्र से विख्यात है। प्राचीन भारत की समय गणना का केन्द्र बिन्दु होने के कारण ही काल के आराधय महाकाल है जो भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

उज्जयिनी क्षिप्रा नदी से सिंचित क्षेत्र है। उपजाऊ काली मिट्टी का क्षेत्र और मालवा के पठार का सबसे ऊँचा नगर होने का इसे गौरव प्राप्त है। प्राचीन भारतीय साहित्य में उज्जयिनी कई नामों से प्रसिद्ध है। उज्जयिनी की अनेक प्रकारों वाली सम्भ्रमकारी नामावली इस प्रकार है:- अवन्तिका, पद्मावती, भोगवती, हिरण्यवती, कनकशृंगा, कुशस्थली, कुमुद्वती तथा प्रतिकल्पा। इसी में सेण्ट्रल इण्डिया गजेटीयर में ल्यूअर्ड (स्नंतक) द्वारा उल्लेखित नवतेरी नगर तथा शिवपुरी नाम और जुड़ जाते हैं। उज्जयिनी के 9 कोस चौड़ाई तथा 13 कोस लम्बाई के विस्तार से नवतेरी नगर नाम की उत्पत्ति मानी गई है। इन विभिन्न नामों का विवरण नीचे दिया जा रहा है:-

उज्जयिनी

उज्जयिनी जिस जनपद में थी उसका नाम अवन्ति था। जातक साहित्य से ज्ञात हुआ है कि अवन्ति का राजा चण्डप्रद्योत उज्जयिनी में निवास करता था। इस बात की पुष्टि अन्य ग्रन्थों व संस्कृत साहित्य से होती है। स्कन्द पुराण के 28वें अध्याय में उल्लेख है कि इस नगर के अधिष्ठाता देव महादेव ने त्रिपुरी के शक्तिशाली राक्षस अंधकासुर को पराजित कर विजय प्राप्त की। अतः स्मृति स्वरूप उज्जयिनी नाम रखा गया।

अवन्तिका

उज्जयिनी अवन्ति जनपद की महत्वपूर्ण नगरी थी; जो कालान्तर में राजधानी बन गई। इसी कारण अवन्तिका अवन्तिपुरी के नाम से विख्यात हो गई। मृच्छकटिकम्, दशकुमारचरितम् आदि में अवन्तिका, अवन्तिपुरी का उल्लेख है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि अवन्तिका इसलिए कहा गया है कि यह नगरी प्रतिकल्प की समाप्ति पर देवताओं के पवित्र स्थल, औषधि व प्राणियों की रक्षा करती है।

कनकश्रृंगा

नारदीय व स्कन्द पुराण में यह कनकश्रृंगा के नाम से प्रसिद्ध है। इस नाम के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उज्जयिनी के समीप कनकगिरी है। बाणभट्ट ने कादम्बरी में उज्जयिनी वर्णन के समय सम्भवतः इसी कारण इसे कनकश्रृंगा कहा है।

कुशस्थली

कुशस्थली उज्जैन का अन्य नाम है। इस नाम का उल्लेख नारदीय व स्कन्द पुराण में मिलता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि यहाँ ब्रह्मा ने तर्पण किया था। कहते हैं ब्रह्मा ने कुशघास के तृण यहाँ फेंके थे। अतः इसका नाम कुश स्थली या ‘‘हेमश्रृंगा’’ हुआ।

पद्मावती

जैन कवि सोमदेव ने अपने काव्यों ‘‘यशस्तिलकचम्पू’’ में उज्जयिनी के अधिपति का वर्णन पद्मावती नगरी के राजा के रूप में किया है। पद्मावती नाम धन सम्पदा को दर्शाता है। स्कन्द पुराण में लक्ष्मी के निवास के कारण पद्मावती कहा है। कालिदास ने भी यहाँ पर मणिमाणिक्यों की प्रशंसा की है। उज्जयिनी पद्मराग मणियों के कारण प्रसिद्ध थी। यहाँ के उन्नत व्यापार का वर्णन किया गया है।

कुमुद्वती

पुष्प करण्डक नदी, सरोवरों, उद्यानों से परिपूर्ण उज्जयिनी हमेशा कुमुदिनी व कमल खिलते थे; अतः स्कन्द पुराण में कुमुद्वती कहा है। कुमुदिनी के उल्लेख के रूप में बाणभट्ट ने कादम्बरी में सुन्दर उद्यानों जलाशयों का उल्लेख किया है। जिनमें कमल खिले रहते थे।

अमरावती

अमरावती नाम देवतावास तथा सुन्दर रमणियों के कारण हुआ। पद्मप्राभृतक व पादताडितक साहित्य में इस नगर का अन्य देशों के साथ सम्बन्ध होने से इसे सार्वभौम नगर कहा जाता है। इसी कारण 10वीं शताब्दी के लेखक पद्मगुप्त परिमल ने उज्जयिनी को अमरावती कहा है।

प्रतिकल्पा

यह नगरी अपने पुरातन इतिहास के साथ जीवित होने के कारण स्कन्दपुराण में प्रतिकल्पा के नाम से भी जानी गई है। सोमदेव तथा कथासरित्सागर में इन चार युगों में क्रमशः पद्मावती, भोगवती, हिरण्यवती व उज्जयिनी नाम बताये हैं।

भौगोलिक स्थिति

वर्तमान उज्जयिनी 75°5° पूर्व देशान्तर व 23°11° उत्तर अक्षांश पर क्षिप्रा नदी के दाहिने तट पर स्थित है। उज्जयिनी चम्बल की सहायक नदी क्षिप्रा के पूर्वी तट पर समुद्रतल से 1698 फीट की ऊँचाई पर स्थित है पुरातत्व नगरी वर्तमान उज्जैन से 2 मील उत्तर की ओर थी। इसके संबंध में यह कहा जाता है कि इसे भूकम्प तथा क्षिप्रा की असाधारण बाढ़ ने नष्ट कर दिया था। जयनगरी उज्जयिनी भारतीय इतिहास को गौरवमय बनाने वाले प्रभावशाली राजनैतिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र मे से एक है। बनारस तथा मथुरा के समान शाश्वत नगरी होने का सम्मान इसे प्राप्त है और टाइनर नदी के तट पर स्थित प्रसिद्ध सप्त गिरिन्द्रों के नगरी रोम से तथा सारोन की खाड़ी के समीपस्थ नील-लोहित पुष्प-किरीट शोभित नगर से उसकी तुलना की जा सकती है।

प्रद्योत एवं वासवदत्ता, अशोक तथा मुंज, रूद्रदमन, नवसाहसांक और भोज, सवाई जयसिंह तथा महादजी शिन्दे की स्मृतियों के प्रभामण्डल से उज्जयिनी दीप्तिमान है। यह उस विक्रमादित्य की राजधानी थी जिसे पारम्परिक विक्रम संवत् से सम्बद्ध करती है। इसी में उन सभ्यताओं का आयोजन हुआ था जिनमें कालिदास, उमर एवं पद्मगुप्त ने कीर्ति प्राप्त की थी। भारतीय ज्योतिर्विदों की प्रथम मध्याह्न रेखा का यह स्थान है। विक्रमादित्य की यह राजधानी सदा से भारत की सातपवित्र नगरियों में गिनी जाती है।

अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्तिका।
पुरी, द्वारावती श्चैव सप्तैता मोक्षदायिका।।

अर्थात् आकाश में तारकेश्वर, पाताल में हाटकेश्वर और मृत्युलोक में महाकालेश्वर है जो उज्जैन ही में विराजमान हैं। महाकालेश्वर प्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक है। इसकी पावनता स्कन्द पुराण के आवन्त्य खण्ड में इस प्रकार वर्णित किया है –

तस्माद्धिकरं क्षेत्रं करुणां वै सुरोत्माः।
तस्मात्दशगुणं मये प्रयागं तीर्थ मुत्तमम्।।
तस्मात्दशगुणा काशी काश्या दशगुणा गया।
तस्तात्दगुणा प्रोक्ता कुशस्थली च पुण्यदा।।

वर्तमान उज्जैन नगरी नागाधिराज विन्ध्य के मनोरम अंचल में पुण्य सलिला ऐतिहासिक एवं धार्मिक क्षिप्रा नदी के पूर्व तट पर अवस्थित है। यहाँ का जलवायु अत्यन्त मधुर समशीतोष्ण है। उज्जैन की प्रधान बोली मालवी है, जो अवन्ति से उत्पन्न है। हिन्दी और मराठी का यहाँ पर्याप्त प्रचार है। व्यापार उद्योग इस नगरी में विविध हैं अतीत में रूई-कपास का यह केन्द्र था। कपड़ा मिलें जिनिंग-प्रेस, फैक्ट्री, तेल, आटा कपड़ा, होजयरी आदि बड़े-बड़े कारखाने थे। उज्जैन भारत के मध्य भाग में है, अतएव वह इस विशाल राष्ट्र के हृदय स्थान पर है। जिस प्रकार भौगौलिक दृष्टि से अवन्ति भारत के देश के मध्यम में है, उसी प्रकार मानव शरीर में अध्यात्मिक देश-प्रतिष्ठा की योजना के अनुसार वह नाभिस्थान (शरीर-मध्य) में प्रतिष्ठित मानी गई है।

पौराणिक महत्व के अतिरिक्त उज्जैन का वैज्ञानिक जगत में भी स्वतन्त्र महत्व है। प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार जब उत्तर ध्रुव की स्थिति पर 21 मार्च से प्रायः 6 मास का दिन होने लगता है तब 6 मास के तीन माह होने के पश्चात सूर्य दक्षिण क्षितिज से बहुत दूर हो जाता है। उस समय सूर्य ठीक उज्जैन के मस्तक पर होता है। उज्जैन का अक्षांश व सूर्य की परम क्रांति दोनों ही 24 अक्षांश पर मानी गई। सूर्य के ठीक नीचे की स्थिति उज्जयिनी के अलावा संसार के किसी नगर की नहीं रही।

इसीलिए प्राचीन काल से उज्जयिनी को भौगोलिक व प्राकृतिक दृष्टि से महत्व प्राप्त होता था। खगोल एवं भौगोलिक गणना के अनुसार लंका सुमेरु पर्वत जो मध्य देशान्तर रेखा, वह उज्जैन के ऊपर से होकर गई है। भारत की काल गणना का माध्यम उज्जैन की रहा है। इसी कारण प्राचीन भारत में उज्जयिनी की ग्रीनविच माना गया, जिस प्रकार खगोलशास्त्र में उज्जयिनी सूर्य के मस्तक पर ठीक नीचे आता है। उसी प्रकार भौगोलिक स्थिति में भी सारे देश का मध्यवर्ती केन्द्र बिन्दु उज्जैन है। इसलिए उज्जयिनी को देश का नाभि क्षेत्र कहा गया है।
नगर के बाह्य प्रदेश में यहाँ महाकाल (शिव) और चिरसंगिनी, मंगल चण्डी (दुर्गा का रूप विशेष) का प्रसिद्ध मंदिर। ये मंगल चण्डी शक्ति संगम तंत्र में इस प्रकार उल्लिखित अविन्त देश की कालिका ही होगी –

उज्जयिन्यां कर्कराजः मांगल्यः कपिलांवरः।
भैरवः सिद्धिः साक्षादेवी मंगलचण्डिका।।
अवन्ती संज्ञको देशः कालिका तत्र तिष्ठति।।

प्राचीन नगरी की भूमि पर प्राचीनता आज भी दिखाई देती है और यहाँ पुरातत्व की असंख्य वस्तुएँ, रत्न, अक्ष, मुद्रा, आभूषण तथा सिक्के प्राप्त हुए हैं। वर्तमान नगर आयताकार है और कभी गोल शिखरों वाले प्रस्तर प्रकार से परिवेष्ठित था जिसको मालवा के सुल्तानों के द्वारा ईस्वी 15वीं शताब्दी में निर्मित होना बताया जाता है; किन्तु मालकम के समय में ही इस प्राचीर के अनेक भाग ध्वस्त हो गये थे। 1810 ई. में राजधानी का स्थान उज्जैन से परिवर्तन होकर ग्वालियर के समीप लश्कर हो जाने के कारण प्रसिद्ध शिन्दे राजवंश ग्वालियर चला गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह द्वारा स्थापित जयसिंहपुरा है, जो 1733-1743 तक तक मालवा सूबा के शासक थे। शिया मुसलमानों के एक भाग बोहराओं के नाम पर बोहरा बाखल तथा कोट या किला जो सम्भवतः संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध महाकाल वन के स्थल का संकेत करता है। जयसिंहपुरा में वैज्ञानिक अध्ययन में रूचि रखने वाले जयपुर के सवाई महाराज द्वारा निर्मित वेधशाला है।

उज्जैन का पुरातत्वीय परिक्षेत्र
अभी तक हुए उत्खनन से प्राप्त सामग्री तथा मुद्राओं को वर्णित किया गया है,जिनके द्वारा परिक्षेत्र की सांस्कृतिक गरिमा सम्बन्धी साहित्यिक उल्लेखों की सम्पुष्टि की गयी है। उज्जयिनी भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक उज्जयिनी परिक्षेत्र के सांस्कृतिक स्वरूप की सम्पुष्टि हेतु परिक्षेत्र में है। यद्यपि यह कहना कठिन है कि युगदृष्टा ऋषियों के काल में इस प्रकार तथा कंगूरे वर्तमान थे,तथापि यह असंदिग्ध सत्य है कि महाभारतकार महाकाल के प्रांगण से तथा कोटितीर्थ (निश्चित रूप से उज्जयिनी का )से, जिसका उल्लेख वे नर्मदा ,दक्षिण सिंधु ,चर्मण्वती तथा पश्चिम भारत के अन्य तीर्थस्थलों के संबंध में करते है,परिचित थे।

महाकालं ततो गच्छेत् नियतो नियताशनः।
कोटितीर्थमुपस्पृश्य ध्यमेधफलं लभेत।।

इसी तारतम्य में यह भी कहा जा सकता है कि कालिदास , बाण तथा सोमदेव के ग्रन्थों में उज्जयिनी के महाकाल के महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते है। रामायण अवन्ति से परिचित है,जो उज्जयिनी के समीप के प्रदेश का नाम ही नहीं है,वरन स्वयं नगरी के नाम के रूप में उल्लिखित है।

हिन्दू धर्म में तीर्थ यात्रा के लिए चार प्रमुख धाम चार दिशाओं में स्थित होना वर्णित है। उत्तर में बद्रीनाथ पूर्व में जगन्नाथपुरी,दक्षिण में रामेश्वर व पश्चिम में द्वारकापुरी है। किन्तु इन सब तीर्थों में उज्जयिनी प्रमुख माना गया है और इसी कारण यह महातीर्थ कहलाता है। इसका कारण यह है कि यह भारत वर्ष के मध्य अर्थात नाभि स्थान पर स्थित है। भारत में तीर्थ यात्रा का प्रारम्भ तथा समाप्ति उज्जैन के महातीर्थ से ही होती है। इस नाभिदेश का स्वामी महाकालेश्वर को बताया गया है। जहाँ मानव लोक के स्वामी महाराजाधिराज महाकाल हो वह अवन्तिका नगरी महान है।…………………………..वायरल कंटेंट 

https://www.sanatanjan.com/%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b6%e0%a4%bf-cancer-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b6/

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here