आखिर कौन थे वे?………जिसने बचपन में थामी थी उंगली, अब वे ही मंजिल की राह दिखा गए

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मुश्किल राहों पर चलना,
सीख लिया अब मैंने।
विघ्न बाधाओं पर बढ़ना,
सीख लिया अब मैंने।
जब भ्रम के बादल से छाये,
कांटों ने राह बना डाली,
मन भ्रमित हुआ, भय से आतुर,
इक राह न सूझी मन में जब।
जब उसी राह पर इक उंगली,
मग चिह्नि्त करके जाती है।
बढ़ गए कदम राहों पर तब,
जब लक्ष्य मिला मन चहक उठा।
इक ख्याल सा आया मन में ये,
कि कौन थे वे? कौन थे वे ??
जिसने वो राह दिखाई मुझे,
दिल सहम गया, मन उचट गया,
पर झट से मन में स्मृति छाई,
जिसने बचपन में थामी थी उंगली,
अब वे ही मंजिल की राह दिखा गए।
मन मुदित हुआ, कुछ सहम गया,
मन में अहसास की आंधी चली,
वो उंगली, वो उंगली, मेरे बाबुल की थी,
मन गद्गद् हुआ नयन जलमय,
अब सोचा मैं न मुड़ूंगी कभी,
न हारुंगी जीवन में मैं,
मंजिल में दृढ़ बढ़ जाऊंगी।
मेरी मीना, तू नित आगे बढ़े,
बस यही कामना थी उनकी।
पापा की स्मृति छायी मन में,
स्मृति आहट से आंखें खुली।
हा, हा, स्वप्न था ये, सच्चाई नहीं,
न पापा मिले न लम्हे मिले।
मन की आंखें नव चेतन सी,
दृढ़ता से आगे मैं बढ़ने लगी।
मन कहने लगा, समझाने लगा,
बाबुल की बेटी बनूंगी सदा,
जीवन में आगे बढ़ूंगी सदा।

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आखिर कौन थे वे?………जिसने बचपन में थामी थी उंगली, अब वे ही मंजिल की राह दिखा गए।
डॉ. मीना शर्मा

आखिर कौन थे वे?………जिसने बचपन में थामी थी उंगली, अब वे ही मंजिल की राह दिखा गए

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