मानव और पुष्प
अंकुर फूटता है, पौधा होता है,
तब कहीं जाकर पुष्पों का उजाला होता है।
पर इस जहाँ में पुष्प सूख जाते हैं तो,
दूसरे पुष्पों का बसेरा होता है।
तकदीर की ही बात है, मुकद्दर की ये बात है,
पुष्प तो नए आ जाते हैं, उजाला भी गर हो जाता है,
पर वक्त गुजर जाता है।
एक भ्रम सा रहता है पौधों को,
कहीं पुष्प झड़ न जाएं।
होता भी ऐसा ही है,
वक्त ऐसा ही आता है।
मानव! हाथ मलता रह जाता है,
वह वक्त देखता रह जाता है।
इसलिए हे मानव! वक्त की कीमत को पहचानों।
आगे बढ़ो! अंतिम लक्ष्य तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
जी हां! निरंतर आगे बढ़ों! बढ़ते रहो।।
डॉ. मीना शर्मा
आखिर कौन थे वे?………जिसने बचपन में थामी थी उंगली, अब वे ही मंजिल की राह दिखा गए
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Very nice poem