………….इक नई दिशा में बढ़ जाऊं, इक जटिल दिशा को अपनाऊ

2
850
इक नई दिशा में बढ़ जाऊं, इक जटिल दिशा को अपनाऊ

इक नई दिशा में बढ़ जाऊं, इक जटिल दिशा को अपनाऊ

मैं बिन बाती का दीपक हूं,
झोंकों से फिर भी डरती हूं।
मैं टूटी हुई इक शाखा हूं,
पतझड़ से फिर भी डरती हूं।
अपनों ने मुझको विरत किया,
एकाकीपन से डरती हूं।
काले बादल मैं रहती हूं,
बरसात से फिर भी डरती हूं।
अनजान डगर अनजान सफर,
अनजान सा भय लगता है।
इस व्यथा कथामय जीवन में,
बस, इक तारा सा चमकता है।
है वही लक्ष्य है वही मार्ग,
जो उन्नति शील बनाएगा।
इक स्वप्निल जीवन में जैसे,
खुशियों के फूल खिलाएगा।
मन हुआ मुदित सब कुछ विस्तृत,
आशाओं का दामन थामे मीना।
है यही चाह जीवन में अब,
नित नई दिशा में बढ़ जाऊं।
इक जटिल दिशा में बढ़ जाऊं,
पथिकों को राह दिखा जाऊं।
मैं बिन बाती का दीपक हूं,
लोगों से फिर भी डरती हूं।
मैं टूटी हुई इक शाखा हूं,
पतझड़ से फिर भी डरती हूं।
प्रस्तुति- डॉ मीना शर्मा। 
सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here