ओ३म् -आर्यसमाज धामावाला का सत्संग सम्पन्न- “संस्कारों से आत्मा व शरीर की उन्नति होती हैः आचार्य धनंजय”

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हमें आज दिनांक 6-12-2020 के आर्यसमाज धामवाला, देहरादून के साप्ताहिक सत्संग में सम्मिलित होने का अवसर मिला। आज समाज मन्दिर में प्रातः8.30 बजे से समाज के विद्वान पुरोहित श्री पं. विद्यापति शास्त्री जी ने देवयज्ञ अग्निहात्र वैदिक विधि विधान पूर्वक सम्पन्न कराया। यज्ञ के बाद समाज के सभागार में भजन व सत्संग का आयोजन हुआ। पं. विद्यापति शास्त्री जी भजन गायन में भी निपुण हैं। आपने एक भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘ओ३म् नाम की ओढ़ी चदरिया झीनी रे झीनी’। पंडित जी के भजन के बाद माता सुदेश भाटिया जी ने भीएक भजन प्रस्तुत किया। उनके भजन के कुछ बोल थे ‘हे प्रभु हम हैं तुम्हारी शरण, हमारा काई सहारा नहीं है। पतित पावन आप हो प्रभु, आस हम आपसे लगाये हुए हैं, हमारा और कोई आसरा नहीं है।।’ माता सुदेश भाटिया जी के भजन के बाद माता स्नेहलता खट्टर जी ने सामूहिक प्रार्थना कराई। उन्होंने अपनी प्रार्थना में धीमे व मधुर स्वरों में ‘सुखी बसे संसार सब दुखिया रहे न कोय’ भजन को पूरा प्रस्तुत किया। आपके द्वारा बोला गया इस गीत का एक एक शब्द पूर्ण भक्तिभाव से युक्त प्रार्थना व मधुरता से भरा हुआ था। आपने भाषा में बोलकर भी प्रार्थना की और उसमें ईश्वर के सभी जीवों पर महान उपकारों का वर्णन कर उनका धन्यवाद किया।

पं. विद्यापति शास्त्री जी ने सत्यार्थप्रकाश के तेरहवें समुल्लास का पाठ करने के साथ उसकी व्याख्या भी की। तेरहवें समुल्लास में ऋषि दयानन्द कृश्चीन मत व उसकी सत्यासत्य मान्तयओं की समीक्षा की है। सत्यार्थप्रकाश का पाठ करते हुए पंडित जी ने धर्मपे्रमी श्रोताओं को बताया कि आकाश स्थूल वस्तु नहीं है। आकाश चटाई के समान नहीं है जैसा कि बाइबल ग्रन्थ में लिखा है। उन्होंने कहा कि आकाश को कोई चटाई की भांति लपेट नहीं सकता। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या ईश्वर शरीरधारी एकदेशीय सत्ता है? यदि ईश्वर ऐसा होता तो वह अनन्त जीवों के कर्मों का साक्षी होकर उनके कर्मों का सुख व दुःखरूपी यथावत् फल नहीं दे सकता था। उन्होंने कहा कि यदि परमात्मा एकदेशी सत्ता होती तो वह सब जीवों के साक्षी होकर उनके कर्मों का हिसाब नहीं रख सकती थी। पंडित जी ने बाइबिल पुस्तक की अविश्वसनीय, असम्भव व ज्ञान के विपरीत बातों को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि इस ग्रन्थ में ईसाई मत की प्रशंसा है जो सत्य नहीं है। विद्वान पुरोहित जी ने यह भी बताया कि ईसाई मत के प्रचारक लोभ व छल आदि के द्वारा अज्ञानी व भोले भाले लोगों का धर्मान्तरण करते हैं।

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समाज के सत्संग में गुरुकुल पौंधा, देहरादून के प्राचार्य आचार्य डा. धनंजय आर्य जी का व्याख्यान हुआ। उन्होंने कहा कि मनुष्य परमात्मा द्वारा बनाई गई अनुपम कृति है। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा ने हमें वेदों का ज्ञान दिया तथा इसके अध्ययन का अवसर हमें अपने जीवन में सुलभ हुआ है। आचार्य जी ने कहा कि संसार अपनी गति से आगे बढ़ रहा है। संसार की गति का मनुष्य अपनी सामथ्र्य से अनुभव कर उपयोग कर रहा है। परमात्मा ने हम मनुष्यों को बुद्धि, वेदज्ञान और मानव शरीर उपलब्ध करायें हैं। उन्होंने कहा कि जब तक हम मनुष्य वेदज्ञान को अपने ज्ञान व कर्म का आधार नहीं बनायेंगे, तब तक हमारा जीवन सफल नहीं होगा। विद्वान आचार्य ने कहा कि हमें अपने जीवन को सफल करने के लिये वेदाध्ययन कर उसके अनुसार आचरण करना चाहिये। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के तीन प्रमुख ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कारविधि की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हम सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़कर सत्य का विवेक कर सकते हैं। आचार्य जी ने श्रोताओं को प्रथम समुल्लास का महत्व बताया। उन्होंने इसके बाद दूसरे समुल्लास के विषयों एवं महत्व पर भी प्रकाश डाला। इसके बाद आचार्य जी ने अन्य समुल्लासों की विषय सामग्री एवं उनके महत्व की चर्चा की। आचार्य जी ने कहा कि हम अपने जीवन को सुखी व निश्चिन्त बनाने के अनेक प्रयत्न कर रहे हैं परन्तु लक्ष्य प्राप्त नहीं हो रहा है। स्थिति यह है कि दवा करने पर भी हमारा मर्ज बढ़ रहा है। हम मर्ज का उपचार कर भी उसका निदान नहीं कर पा रहे हैं।

आचार्य जी ने कहा कि हमें पुरुषार्थ कर सुख का अनुभव होना चाहिये परन्तु हमें अपने जीवन में सुख व स्वर्ग प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो रहा है। इसका कारण है कि हमसे कुछ भूल हो रही है। हमारे कर्म व प्रयत्न सफल नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब तक बालकों का सही विधि से निर्माण नहीं होगा तब तक हमारे समाज का भी निर्माण नहीं हो सकता। आचार्य जी ने आगे कहा कि हम यज्ञ में आचमन करते हुए प्रार्थना करते हैं कि हमारा जीवन सत्यमय हो। उन्होंने कहा कि हमारा जीवन तभी सफल होगा यदि हम यश को प्राप्त करने में सफल होंगे। आचार्य धनंजय जी ने ऋषि दयानन्द कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ की विषय सामग्री पर भी विस्तार से प्रकाश डाला और इस ग्रन्थ के अध्ययन की सभी श्रोताओं को प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन से हमें पुरुषार्थ एवं शुभ कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है। आचार्य जी ने कहा कि हम पुनर्जन्म, प्रारब्ध तथा कर्म फल व्यवस्था को मानते हैं। आचार्य जी ने विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग कहलाता है। आचार्य जी ने इसके महत्व पर भी विस्तार से प्रकाश डाला। इसी क्रम में आचार्य जी ने ऋषि की अत्युत्तम देन ‘‘त्रैतवाद के सिद्धान्त” की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि जीवात्मा भोक्ता है तथा सृष्टि के पदार्थ भोग्य पदार्थ हैं। उन्होंने कहा कि हमारे कर्म ऐसे होने चाहिये कि हम उसमें लिप्त न हों। आचार्य जी ने संस्कार विधि ग्रन्थ की चर्चा करते हुए उसके महत्व पर भी प्रकाश डाला। आचार्य जी ने आगे कहा कि हम सुखों की चाहना कर पुरुषार्थ कर रहे हैं परन्तु हमारा पुरुषार्थ सफल नहीं हो रहा है। इसका एक कारण हमारा अविद्या से युक्त होकर कर्म करना है।

हमारा जीवन व कार्य कैसे हों, इसका उल्लेख भी आचार्य जी ने किया और इस विषय पर प्रकाश डाला। उन्होंने ऋषि दयानन्द का उल्लेख कर बताया कि संस्कारों का फल आत्मा व शरीर की उन्नति होनी होती है। इसका अर्थ है कि मानव जीवन का निर्माण संस्कारों से ही सम्भव होता है। वैदिक संस्कृति की विशेषता बताते हुए आचार्य जी ने कहा कि इसमें जन्म से पूर्व ही गर्भाधान व अन्य दो संस्कार किये जाते हैं। आचार्य जी ने कहा कि भूमि व बीज पवित्र होने चाहिये तभी हमारी सन्तानें खेतों की उपज के समान उत्कृष्ट होंगी। आचार्य जी इस विषयक अनेक लौकिक उदाहरण दिये और कहा कि जब हम कोई उद्योग स्थापित करते हैं तो स्थान तथा वहां उद्योग के लिये सभी पदार्थों की उपलब्धि व अनुकूलता का विचार करते हैं। ऐसा ही हमें अपने जीवन में सभी कार्य करते हुए करना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने गर्भाधान करने वाले माता-पिता की योग्यता भी बताई है। इस योग्यता को प्राप्त होने पर गृहस्थियों के सन्तान उत्तम होते हैं। ऐसी सन्तानों व गृहस्थियों से ही सभ्य समाज का निर्माण होता है। ऐसा होने पर ही सबको सुख लाभ होता है। आचार्य जी ने कहा कि सन्तानों को सुसंस्कृतज्ञ होना चाहिये। ऐसा होना सुखी जीवन के लिए आवश्यक है। आचार्य जी ने पुसंवन संस्कार पर भी प्रकाश डाला। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य जीवन में असन्तोष का कारण मूल में भूल का होना प्रतीत होता है। आचार्य जी ने सीमन्तोनयन संस्कार पर भी प्रकाश डाला। आचार्य जी ने संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द द्वारा बताई ओषधियों की चर्चा कर उनसे गर्भिणी स्त्री की बुद्धि में तीव्रता सहित स्त्री व शिशु के स्वस्थ होने वाले लाभों की चर्चा भी की और कहा कि गर्भिणी स्त्रियों को ऋषि दयानन्द के इन वचनों से लाभ उठाना चाहिये।

आचार्य धनंजय जी ने कहा कि जिस गृहस्थ में मातायें व गर्भवती स्त्रियां प्रसन्न नहीं होतीं, ऐसी माताओं के गर्भस्थ शिशु भी स्वस्थ नहीं होते। आचार्य जी ने आगे कहा कि परमात्मा की सृष्टि महत्व एवं महिमा से युक्त है। आचार्य जी ने गुरुकुल में आचार्यों द्वारा शिष्यों के निर्माण पर प्रकाश डाला और कहा कि अन्य मतों में ऐसे उदाहरण उपलब्ध नहीं होते। आचार्य जी ने कहा कि गर्भ जब सात या आठ माह का हो जाता है तो वह सुनना व जानना आरम्भ कर देता है। आचार्य जी ने अपने व्याख्यान में जातकर्म संस्कार पर भी प्रकाश डाला। जातकर्म संस्कार में की जाने वाली क्रियाओं व माता व पिता के बोले जाने वचनों पर भी आचार्य जी ने प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सन्तान का पिता अपने शिशु को कहता है कि वह बालक वेद अर्थात् ज्ञान ग्रहण कर ईश्वर का साक्षात्कार करने वाली सत्ता है। उन्होंने कहा कि वेदों में बालक को दृण व स्थिर रहने की शिक्षा मिलती है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि जिस मनुष्य में सत्य संकल्प नहीं होते वह यज्ञ का यजमान नहीं होता। उन्होंने कहा कि ज्ञान व कर्म से पूर्ण होकर ही हम उपासना कर सकते हैं। आचार्य जी ने आगे कहा कि हमें स्वर्ण की भांति चमकना एवं निखरना है। हमें संघर्ष रूपी अग्नि में पड़कर शुद्ध व पवित्र होना है।

आचार्य धनंजय जी ने कहा कि आजकल मनुष्य शिक्षा धन अर्जित करने के लिए प्राप्त करते हैं। इस कारण हम सुखों से वंचित रहते हैं। आचार्य जी ने अपने बच्चों के सार्थक नाम रखने का परामर्श दिया। उन्होंने ऋषि दयानन्द के शब्द प्रस्तुत कर कहा कि हमें नाम भ्रष्ट नहीं होना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि हम अपने जीवन में सार्थक शब्दों का प्रयोग कर ही जीवन को सार्थक बना सकते हैं। अपने व्याख्यान में आचार्य जी ने उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कारों की चर्चा भी की। आचार्य जी ने पिता के उन वचनों को बोल कर भी स्मरण कराया जो एक पिता अपनी सन्तान को गुरुकुल के आचार्य को सौंपते हुए कहा करते थे। उन्होंने कहा कि हमारे प्राचीन गुरुकुलों के आचार्य व शिष्य दोनों के हृदय व मन एक समान होते थे। आचार्य जी ने उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कारों के मन्त्रों में जो उदात्त शिक्षायें हैं उनको भी बताया। आचार्य जी ने यह भी बताया कि पूर्व काल में आचार्य उन्हीं लोगों को शिक्षा देते थे जो पात्र होते थे। इसके उदाहरण भी आचार्य जी ने दिये। आचार्य जी ने कहा वर्तमान में मत-मतान्तरों के गुरु अपने चेलों को गुरु मन्त्र के स्थान पर मिथ्या वचन बताते हैं। आचार्य जी ने उपनिषदों में दिये गये आचार्य व पिता के अपने शिष्यों को सन्देश को भी श्रोताओं के सम्मुख प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि शिष्यों को अपने आचार्यों के सत्य सत्य आचरण का ही अनुकरण व पालन करना चाहिये। उन्होंने कहा कि आचार्य अपने शिष्यों को सदैव स्वाध्याय में तत्पर रहने तथा उज्जवल चरित्र को बनाये रखने पर बल देते थे। आचार्य जी ने कहा कि जो युवक व युवती निर्दोष हों उन्हीं का विवाह होना चाहिये। आचार्य जी ने इस विषयक ऋषि दयानन्द जी के वचन भी प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि उन्हीं युवक व युवतियों का विवाह होना चाहिये जिन्होने चार, तीन, दो या कम से कम एक वेद का सांगोपांग अध्ययन किया हुआ हो। आचार्य जी ने अच्छे व श्रेष्ठ नागरिकों के निर्माण के तरीके भी बताये। उन्होंने कहा कि आज भी वैदिक संस्कारों को अपनाकर ही मनुष्य श्रेष्ठ मनुष्य बन सकता है। आचार्य जी ने कहा कि हमें रोग का पता करना चाहिये और उस रोग के सही निदान को जानकर उस ओर अपने कदम बढ़ानें चाहिये। इसी के साथ आचार्य धनजय की जा व्याख्यान पूर्ण हुआ।

व्याख्यान समाप्त होने के पश्चात आर्यसमाज के मंत्री श्री सुधीर गुलाटी जी ने आचार्य धनंजय जी का धन्यवाद किया। उन्होंने कहा कि वेदज्ञान का निचोड़ ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थों द्वारा हम तक पहुंचा है। इसी आधार पर हमें आगे बढ़ना है।

आर्यसमाज के प्रधान डा. महेश कुमार शर्मा जी ने आचार्य डा. धनंजय जी के व्याख्यान को अद्भुद तथा अतुल्य बताया। उन्होंने उनका आभार और धन्यवाद प्रकट किया। प्रधान जी प्रत्येक सप्ताह वेदों का कोई एक विचार प्रस्तुत करते हैं। आज का विचार उन्होंने बताते हुए उन्होंने कहा ‘कर्म का बीजारोपण संकल्प से ही सम्भव होता है।’ डा. शर्मा ने ऋषि जीवन की एक घटना प्रस्तुत करते हुए बताया कि एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि कर्म करते हुए मनुष्य का आचरण व व्यवहार किस प्रकार का होना चाहिये। इसका उत्तर ऋषि ने देते हुए बताया कि सागर की तरह होना चाहिये। ऋषि ने कहा कि सागर में गति होती है, वेग होता है, लहरें व तरंगें होती हैं, ज्वार भाटा आता है परन्तु भीतर से वह खागोश तथा निश्चल सा रहता है। इसी प्रकार मनुष्य को कर्म करते हुए बाहर से क्रियाशील रहना चाहिये तथा भीतर से शीतल होना चाहिये। यह कार्य सरल नहीं है। शर्मा जी ने कहा कि शुभ व अशुभ कर्म करते हुए मनुष्य स्वभाव में ईश्वर की प्ररेणा से जो परिवर्तन होता वह परमात्मा द्वारा होता है। आत्मा जिस कर्म को करने में डर का अनुभव करता है वह अशुभ कर्म होता है और जिस कर्म को करने में वह प्रसन्नता का अनुभव करता है वह शुभ कर्म होता है। उन कर्मों को करना चाहिये। ऐसा उपर्युक्त घटना में ऋषि दयानन्द जी का भाव है। शर्मा जी ने आगामी सप्ताह रविवार13-12-2020 को समाज के पदाधिकारियों के निर्वाचन की जानकारी दी। एक सदस्य श्री राजीव कुमार, लखनऊ के जन्म दिवस की जानकारी व उसे बधाई भी दी गई। एक अन्य सदस्या श्रीमती मीना गोयल जी की अस्वस्थता का समाचार सूचित करते हुए उनके स्वस्थ जीवन की कामना की गई। एमडीएच के स्वामी श्री महाशय धर्मपाल जी की3 दिसम्बर, 2020 को मृत्यु की जानकारी देकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई और उनकी आत्मा की शान्ति के लिये दो मिनट की मौन प्रार्थना की गई। दिनाक20-12-2020 को जिला आर्य उप प्रतिनिधि सभा के कौलागढ़ समाज मन्दिर में निर्वाचन की जानकारी दी गई। समाज के एक अधिकारी श्री ओम्प्रकाश नागिया जी ने भी सभा को सम्बोधित किया। उन्होंने कोरोना रोग की चर्चा की। उन्होंने कहा कि लोग हमसे पूछते हैं कि ईश्वर दयालु है तो फिर वह परमात्मा इस रोग को समाप्त क्यों नहीं कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि समय समय पर आर्यसमाज में शंका समाधान का कार्यक्रम भी किया जाना चाहिये। इसके बाद शान्तिपाठ हुआ और सत्संग समाप्त हुआ। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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