हम एक बहु प्रचारित विचार को पढ़ रहे थे जिसमें कहा गया है, ‘ईश्वर में आस्था है तो मुश्किलों में भी रास्ता है।’ हमें यह विचार अच्छा लगा परन्तु यह अपने आप में पूर्ण न होकर अपूर्ण विचार है। इसको यदि ठीक से समझा नहीं गया तो इससे लाभ के साथ कभी कभी बड़ी हानि भी हो सकती है। आस्था कहने व रखने मात्र से मनुष्य की आत्मा की उन्नति व जीवन का कल्याण नहीं हो सकता व हो जाता। ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को पूर्णता व अधिकांश रूप में जानना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। ईश्वर को जानकर ही हम उसके गुण, कर्म व स्वभाव से परिचित हो सकते हैं। यह स्थिति वेद व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करने से ही प्राप्त होती है। संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं और उनके अपने अपने ग्रन्थ व पुस्तकें हैं। क्या सबमें सत्य ज्ञान से युक्त सभी आवश्यकता की बातें हैं? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि मत-मतान्तरों के ग्रन्थ अविद्या व विद्या से युक्त होने के साथ हमें पूर्ण ज्ञान से परिचित नहीं कराते। ऋषि दयानन्द (1825-1883) और विद्वान बताते हैं कि अविद्या से युक्त ग्रन्थ उसी प्रकार से त्याज्य होते हैं जैसे कि विष से युक्त अन्न वा भोजन त्याग करने योग्य होता है। यह बात सत्य एवं प्रामाणिक है। यही कारण था कि वेदों के मर्मज्ञ एवं ईश्वर को समाधि अवस्था में प्राप्त ऋषि दयानन्द जी ने सत्य की खोज की और ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप जानने व उपासना की यथार्थ विधि सीखने के लिये उन्होंने अपने समय के प्रायः सभी आध्यात्मिक विद्वानों से सम्पर्क किया। ऐसा करते हुए उन्होंने सत्य ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न किया और इससे वह योग विद्या सहित वेद एवं वेदोगो के ज्ञान से युक्त हुए जिससे उन्हें सत्य व असत्य अथवा विद्या व अविद्या का यथार्थ स्वरूप विदित हुआ। अविद्या का नाश तथा सब सत्य विद्याओं का प्रकाश करने के लिये ही उन्होंने अपना समस्त जीवन वेद ज्ञान व शिक्षा के प्रचार में लगाया। उनके प्रयत्नों से अविद्या दूर होकर विद्या व सत्य ज्ञान का प्रकाश हुआ। उनके द्वारा अनुसंधान किया गया समस्त ज्ञान हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा उनके ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य में प्राप्त होता है। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ही ईश्वर में सच्ची आस्था उत्पन्न होती है।
मनुष्य ज्ञानी हो या न हो, ईश्वर में आस्था रखना अच्छी बात होती है। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि उसे ईश्वर, आत्मा व सृष्टि के रहस्यों का सत्य ज्ञान विदित हो। यह सत्य ज्ञान ही ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थों से प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों से ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व कार्य सृष्टि का जो ज्ञान प्राप्त होता है वह संसार में उपलब्ध अन्य ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होता। इसी लिये मनुष्य को अपने हित में ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़ना चाहिये। इसमें उनका अपना कल्याण व लाभ है। ईश्वर का सत्यस्वरूप क्या व कैसा है, इस पर वेदों के आधार पर निष्कर्ष रूप में ऋषि दयानन्द ने कहा है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ऋषि ने अन्यत्र यह भी बताया है कि ईश्वर जीवों के कर्मों का भोग कराने के लिये उनके कल्याण के लिये ही सृष्टि की रचना व पालन तथा प्रलय करते हैं तथा सभी जीवों को उनके प्रत्येक शुभ व अशुभ वा पुण्य व पाप कर्म का सुख व दुःख रूपी फल देते हैं। कोई भी जीवात्मा व मनुष्य ईश्वर के विधान से अपने किसी कर्म का फल भोगे बिना बचता नहीं है। यह सद् ज्ञान वा विद्या है। ईश्वर के इस सत्यस्वरूप को यदि मनुष्य जानते हैं तो उसकी ईश्वर में आस्था सत्य है। बहुत से लोग व मत इस सत्य मान्यता को न तो जानते हैं और न ही स्वीकार करते हैं। उन्होंने अपने अपने विचार व मान्यतायें बना रखी हैं जो कुछ सत्य हैं व कुछी नहीं हैं। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर विषयक प्रायः सभी प्रकार के विचारों व मान्यताओं की समीक्षा कर उपर्युक्त निष्कर्ष निकालें हैं। ईश्वर विषयक उपर्युक्त विचार व सिद्धान्त ही सत्य हैं। अतः देश, जाति, मत व पन्थ से ऊपर उठकर ईश्वर के उपर्युक्त स्वरूप को ही सबको स्वीकार करना चाहिये। इसके विपरीत वा वेदों के विपरीत विचार व मान्यतायें अप्रमाण होने से मानने योग्य नहीं हैं। यह भी बता दें कि आत्मा का जन्म व पुनर्जन्म होता है। हमारे व सभी जीवात्माओं के इस जन्म से पहले असंख्य वा अनन्त बार जन्म व मरण हो चुके हैं। अनेकानेक बार मोक्ष भी हुआ है। भविष्य में भी यही सिलसिला जिसे आवागमन कहते हैं, जारी रहेगा। यह वैदिक सत्य सिद्धान्त है। इसमें सबको आस्था रखनी चाहिये।
हमें अपनी आत्मा के सत्यस्वरूप का भी ज्ञान होना चाहिये। जीवात्मा एक सत्य व चेतन सत्ता है। इसका परिमाण अणु के समान एकदेशी व ससीम है। यह जीवात्मा अनादि, अमर, अनुत्पन्न, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, सुख का अभिलाषी, सुख व दुःखों का भोक्ता, सद्ज्ञान को प्राप्त होकर तथा उसके अनुसार आचरण कर यह बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष प्राप्ति ही सभी जीवात्माओं अर्थात् हमारा उद्देश्य व लक्ष्य है। इसी के लिये सभी ऋषि, मुनि, विद्वान, धर्माचार्य विवेकवान, मुमुक्षु व सत्याचारण करने वाले मनुष्य ज्ञान प्राप्ति व सदाचरण करते आये हैं। वर्तमान और भविष्य में भी सभी मनुष्यों का यही लक्ष्य रहेगा। इसकी प्राप्ति की विधि भी सत्य वेदज्ञान की प्राप्ति व सत्याचरण व सदाचार ही है। अतः ईश्वर में आस्था मात्र करने से काम नहीं चलता। हमें मोक्ष, जो कि सुख व आनन्द का पर्याय है, उसकी प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न व पुरुषार्थ करने ही होंगे। इस मोक्ष वा मुक्ति की तर्कपूर्ण चर्चा तथा इसकी उपलब्धि के साधनों संबंधी विचार हमें वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पढ़ने को मिलते हैं। अतः आत्मा की उन्नति के इच्छुक सभी बन्धुओं को पक्षपातरहित होकर इन ग्रन्थों को श्रद्धापूर्वक पढ़ना चाहिये और अपने जीवन व आत्मा की उन्नति करनी चाहिये। आत्मा की उन्नति का लक्ष्य प्राप्त कर ही मनुष्य की आत्मा को विश्राम मिलता है अन्यथा वह आवागमन में फंसा रहता है जहां सुख व दुःख का भोग करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
मनुष्य को कोरी व अविवेकपूर्ण आस्था नहीं रखनी चाहिये। इससे अधिक लाभ नहीं होगा। हम संसार में ईश्वर के प्रति आस्था रखने वाले मनुष्यों को भी अन्याय, अत्याचार, पक्षपात, हिंसा, मनुष्यों व प्राणियों का उत्पीड़न, अधर्म, उपद्रव आदि करते हुए देखते हैं। इससे निष्कर्ष निकलता है कि केवल ईश्वर में आस्था रखने से हमारी व्यक्तिगत व सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इसके लिये तो सत्य ज्ञान के पर्याय वेद व वैदिक साहित्य उपनिषद, दर्शन सहित सत्यार्थप्रकाश आदि के ज्ञान को प्राप्त होना ही होगा। इनके अध्ययन से ही हम यम व नियमों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान से परिचित हो सकेंगे और इनको जीवन में धारण कर ही सच्चे मनुष्य बन सकेंगे। मनुष्य को ईश्वर में आस्था रखते हुए अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिये और वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित जीवन में यम व नियमों को धारण करना चाहिये। वेद विहित पंचमहायज्ञों को करना चाहिये। सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करना चाहिये। अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। ऐसा मनुष्य ही सच्चा आस्थावान व आस्तिक मनुष्य कहा जा सकता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य