मनुष्य मननशील प्राणी को कहते हैं। मननशील होने से ही दो पाये प्राणी की मनुष्य संज्ञा है। मननशीलता का गुण जीवात्मा के चेतन होने से मनुष्य रूपी प्राणी को प्राप्त हुआ है। जड़ पदार्थों को सुख व दुख तथा शीत व ग्रीष्म का ज्ञान नहीं होता। मनुष्य का आत्मा ज्ञान प्राप्ति तथा कर्म करने की शक्ति व सामर्थ्य से युक्त होता है। अपने ज्ञान को बढ़ाना तथा ज्ञान के अनुरूप सत्कर्मों को करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य होता है। सत्ज्ञान की प्राप्ति करना ही मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य व पुरुषार्थ है। मध्यकाल में मनुष्य के ज्ञान प्राप्ति के साधन अवरुद्ध प्रायः थे। सामाजिक अन्धविश्वासों व मिथ्या धार्मिक धारणाओं के कारण स्त्री तथा जन्मना शूद्रों की शिक्षा प्राप्ति पर तो प्रतिबन्ध लगे हुए थे ही, अन्य जन्मना वर्णों व जातियों में भी शिक्षा का उचित व उपयुक्त प्रचार नहीं था। ऐसा नहीं था कि हमारे देश में ज्ञान की पुस्तकें व ज्ञानी पुरुष न रहे हों, परन्तु अज्ञानता, अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों तथा अज्ञानयुक्त परम्पराओं के कारण शिक्षा व अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था नहीं थी।
ऋषि दयानन्द ने टंकारा-गुजरात में जन्म लेकर तथा ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा मृत्यु पर विजय प्राप्ति का सत्संकल्प एवं लक्ष्य लेकर ज्ञान प्राप्ति व उसकी खोज का कार्य लिया और38 वर्ष की वय में12 वर्ष व उससे अधिक वर्षों की निरन्तर खोज व संघर्ष के बाद वह एक समाधि को प्राप्त योगी बने एवं सब सत्य विद्याओं से युक्त ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ वेदों के मर्मज्ञ विद्वान वा ऋषि भी बने। उन्होंने अपने विवेक ज्ञान से जाना था कि प्रत्येक मनुष्य की आत्मा की ज्ञान प्राप्त कराकर पूर्ण उन्नति करना ही मुख्य उद्देश्य व कर्तव्य है। आत्मा की उन्नति को प्राप्त होकर सद्ज्ञान के अनुरूप ईश्वरोपासना, देवयज्ञ सहित सभी पंचमहायज्ञों को करते हुए देश व समाज की उन्नति के कार्यों को करना सभी सुधी मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों का कर्तव्य व धर्म होता है। इस आत्मज्ञान रूपी बोध को प्राप्त होकर व अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रेरणा से वह देश व विश्व का धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने सहित सद्ज्ञान की प्राप्ति की दृष्टि से देश की उन्नति करने के लिये सन् 1863 में क्रियात्मक सामाजिक जीवन में प्रविष्ट हुए थे।
ऋषि दयानन्द ने वेदों पर आधारित सभी मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित प्रचलित विचारधाराओं आदि की भी परीक्षा व समीक्षा की थी। ऐसा करते हुए उन्हें मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से आर्यों व उत्तम कोटि के सदाचारी धार्मिक मनुष्यों के पांच महान कर्तव्यों जिन्हें उन्हें प्रतिदिन करना होता है, उन पंचमहायज्ञों का बोध व ज्ञान प्राप्त हुआ था। उन्होंने इन पंचमहायज्ञों को मनुष्य के ज्ञान व कर्मों की दृष्टि से उन्नति में महत्वपूर्ण पाया था। इन पंचमहायज्ञों का विधान उन्होंने सामयिक लोगों सहित आर्यों व वेदानुयायियों की भावी पीढ़ियों के लिये जिसमें प्रथम स्थान पर सन्ध्या व ब्रह्मयज्ञ प्रतिष्ठित है, पंचमहायज्ञ विधि की रचना कर किया। पंचमहायज्ञों में दूसरे स्थान पर देवयज्ञ अग्निहोत्र, तीसरे व चैथे स्थान पर पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ तथा पांचवें स्थान पर बलिवैश्वदेवयज्ञ प्रतिष्ठित हैं। यद्यपि इन पांच महायज्ञों का मनुस्मृति ग्रन्थ में विधान था परन्तु मनुस्मृति का समुचित अध्ययन-अध्यापन न होने से समाज व हमारे पण्डित वर्ग को इनका न तो ज्ञान था और न ही किसी को इसको करने की विधि व पद्धति का ही ज्ञान था। ऋषि दयानन्द ने इस गुरुतर कार्य को किया। उन्होंने न केवल मनुस्मृति में पंचमहायज्ञों के विधान का प्रकाश कर उसका प्रचार ही किया अपितु प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों के आधार पर उनका ही अनुगमन करते हुए इनको करने की शास्त्रीय पद्धतियों का निर्माण व प्रणयन भी किया। उन्होंने इन पांच महायज्ञों की महत्ता व उपयोगिता को भी अपने उपदेशों व लेखों के माध्यम से लोगों को बताया।
प्रथम महायज्ञ सन्ध्या वा ब्रह्मयज्ञ करना मनुष्य का कर्तव्य एवं धर्म दोनों है। इसे न करने से पाप लगता है व मनुष्य कृतघ्न सिद्ध होता है। इसका कारण है कि परमात्मा ने मनुष्यों व मनुष्य आदि प्राणियों की जीवात्माओं के लिये ही इस विशाल सृष्टि की रचना की है। मनुष्यों को जन्म भी परमात्मा ही देता है। मनुष्य का शरीर तथा शरीर के सभी अवयव जो कि किसी के द्वारा बनाये नहीं जा सकते, उन्हें परमात्मा ही बनाकर हमें निःशुल्क प्रदान करता है। हमें जीवन में जो सुख मिलते हैं उनका सबका आधार व कारण भी परमात्मा की कृपा ही होती है। हमारी श्वास प्रणाली को परमात्मा व उसकी व्यवस्था ही चला रही है। अतः मनुष्यों पर परमात्मा के असंख्य उपकार सिद्ध होते हैं। उन उपकारों को स्मरण कर उस परमात्मा का धन्यवाद व कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये ही सन्ध्या करने का विधान है। ऐसा करने से मनुष्य कृतघ्नता के पाप से बचते हैं और सन्ध्या में ईश्वर की जो स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित ध्यान किया जाता है उससे अनेकानेक लाभों को मनुष्य प्राप्त कर सुखी व उन्नति को प्राप्त होते हैं। सन्ध्या करने से मनुष्य ज्ञानी एवं कर्मशील दोनों ही बनता है। सन्ध्या करने से मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर व उसे प्राप्त होकर अपने मनुष्य जीवन को सफल करता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये वेद एवं वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करना सन्ध्या का अनिवार्य अंग है।
पंचमहायज्ञों में दूसरा यज्ञ देवयज्ञ अग्निहोत्र होता है। इसको करना भी सब गृहस्थ मनुष्यों का कर्तव्य होता है। यह प्रश्न हो सकता है कि देवयज्ञ करने का उद्देश्य क्या है? इसका उत्तर है कि मनुष्य अपना जीवनयापन करता है तो इसके निमित्त से वायु सहित जल एवं भूमि का प्रदुषण होता है। अनेक सूक्ष्म व छोटे कीटाणु व जन्तु अग्नि के सम्पर्क में आकर व हमारे पैरों के कुचल कर व दब कर कष्ट उठाते व मृत्यु को भी प्राप्त होते हैं। हम जो श्वास प्रश्वास लेते हैं उससे भी वायु प्रदुषित होती है। हमारे भोजन के बनाने व निवास स्थान के बनाने से भी वायु प्रदुषण सहित जल एवं भूमि में विकार होते हैं। इन सबको दूर करने का एक ही साधन व उपाय है और वह है देवयज्ञ अग्निहोत्र का प्रतिदिन दो बार करना। अग्निहोत्र से इतर वायु प्रदुषण आदि को दूर करने का मनुष्य के पास कोई उत्तम साधन नहीं है। वायु व जल आदि में विकार होने पर हम अस्वस्थ हो जाते हैं। हमारे कारण होने वाले प्रदुषण आदि से अन्य प्राणियों को भी रोग व स्वास्थ्य आदि की हानि होती है। अतः वायु को शुद्ध रखना और हमारे कारण अशुद्ध हुई वायु को शुद्ध करना हमारा कर्तव्य होता है। इस कर्तव्य की पूर्ति अग्निहोत्र देवयज्ञ करने से होती है। इसमें हम एक यज्ञकुण्ड बनाकर उसमें शुद्ध समिधाओं वा काष्ठों का दहन कर उस पर वेदमन्त्रों के उच्चारण के साथ गोघृत तथा वनों से प्राप्त रोगनाशक ओषधियों व वनस्पतियों आदि की आहुतियां देते हैं। हमारी यज्ञ की सामग्री में देशी शक्कर तथा पुष्टि करने वाले सूखे फल आदि भी होते हैं जो जलने पर सूक्ष्म होकर आकाश और वायु में फैल कर वायु के दुर्गन्ध एवं प्रदुषण को दूर करने सहित सभी प्राणियों को लाभ पहुंचाते हैं।
यज्ञ करने से प्रचुर व आवश्यक मात्रा में वर्षा होती है। यज्ञीय धूम्र व वायु से वायुमण्डल शुद्ध होकर वह आकाशस्थ व वायु में विद्यमान जल को भी शुद्ध करता है। इससे जो वर्षा होती है उससे उत्तम कोटि का अन्न उत्पन्न होता है जो मनुष्यादि के स्वास्थ्य के लिये उत्तम होने सहित रोगकारी नहीं होता। ऐसा करके हम रोगों से बचते और स्वस्थ रहते हैं। हमारे शरीरों की कार्य क्षमता कम नहीं होती अपितु वह वृद्धि को प्राप्त होती है। यह अनेक लाभ देवयज्ञ करने से मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। यज्ञ करने से मनुष्य के निमित्त से जो प्रदुषण आदि होने का पाप उसको होता है, उसकी निवृत्ति भी होती है। इस कारण से मनुष्य वायु आदि को प्रदुषित करने के पाप से बच जाता है व उससे होने वाले दुःखों से भी उसकी रक्षा होती है। यह मुख्य लाभ मनुष्य को यज्ञ करने से होते हैं।
यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण और दान सन्निहित होते हैं। यदि यह तीनों बातें न हों तो यज्ञ अधूरा यज्ञ होता है। देवपूजा में चेतन व जड़ सभी देवों की पूजा हो जाती है। चेतन देवों में ईश्वर, माता, पिता, विद्वान, आचार्य आदि आते हैं। वेद मन्त्रोच्चार सहित सभी चेतन देवों का आदर व सम्मान तथा सेवा होने से यह सन्तुष्ट होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं जिनका सुख लाभ यज्ञकर्ता को होता है। यज्ञ में अग्नि, जल व वायु आदि जड़ देवों का भी यथोचित उपकार लिया जाता है। हम इन जड़ देवों अग्नि, वायु, जल आदि का सदुपयोग करते हैं तथा इनका दुरुपयोग व अनावश्यक दोहन नहीं करते। इससे भी इनका पूजन होता है। यज्ञ में विद्वानों को आमंत्रित किया जाता है। उनकी उपस्थिति से मनुष्य उनसे उपदेश व अनुभवों को जानकर अपने योग्य मार्गदर्शन प्राप्त करने के साथ उन विद्वानों का सम्मान व उनकी सेवा आदि भी करता है। इससे दोनों को ही लाभ होता है। विद्वानों द्वारा मनुष्यों का मार्गदर्शन करने सहित उनकी सभी समस्याओं व शंकाओं का समाधान होता है। यज्ञ में हम जो आहुतियां देते हैं वह एक प्रकार का दान ही होती हैं। इसके साथ ही हमें समाज के निर्बल, साधनहीन व धनहीन लोगों का भी यथासम्भव सहयोग करना होता है। वेद प्रचार करने वाले लोगों, संस्थाओं व गुरुकुलों आदि को दान देना होता है जिससे वहां वेदपाठी तथा वेद प्रचारक विद्वान व योगी बनते हैं। इन विद्वानों के विद्यादान व मार्गदर्शन से देश व समाज उन्नति करते हैं।
अतः यज्ञ के इन लाभों के कारण यज्ञ का किया जाना एक आवश्यक एवं अनिवार्य कर्तव्य होता है। इसी कारण से इसे महायज्ञ अर्थात् महान कर्तव्य में सम्मिलित किया गया है। देवयज्ञ सहित पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ करने से भी मनुष्यों को अनेकानेक लाभ होते हैं और इससे देश व समाज में एक समरसता एवं सुखद वातावरण बनता है। इस कारण सभी को पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिये। ऋषि दयानन्द सहित वैदिक धर्म एवं संस्कृति की संसार व समाज को अग्निहेत्र यज्ञ एक अद्वितीय देन है। इसका अधिक से अधिक प्रचार किया जाना चाहिये। यज्ञ पर वैज्ञानिक रीति से अधिकाधिक अनुसंधान व शोध कार्य भी होने चाहियें। आज के कोरोना काल में यज्ञ से लाभों का मनुष्यों को ज्ञान होना चाहिये। हमारा विश्वास है कि यदि हम शुद्ध गोघृत व शुद्ध व रोगनिवारक ओषधियों से युक्त सामग्री से अपने घरों में यज्ञ करते हैं तो इससे अवश्य कोरोना जैसी महामारी पर लाभकारी प्रभाव पड़ेगा। पिछले दिनों अनेक विद्वानों ने टीवी चैनलों पर इसका उल्लेख भी किया है। आर्यसमाज ने संगठित रूप से भी सांकेतिक रूप में देश देशान्तर में एक ही दिन एक ही समय पर यज्ञ कर ईश्वर से कोरोना से निदान व मुक्ति की प्रार्थना भी की थी। कोरोना को दूर करने के लिए ईश्वर की कृपा से हमारे वैज्ञानिकों ने इसकी रोकथाम के टीके भी बना लिये हैं। आशा करनी चाहिये कि आने वाले कुछ समय में इस रोग का समूल नाश हो जायेगा और इससे जो क्लेश हुआ व हो रहा है, वह दूर हो जायेगा।
देवयज्ञ अग्निहोत्र करना सभी मनुष्यों का पुनीत कर्तव्य है। इसे करने से हमारी सांसारिक एवं आध्यात्मिक उननति होती है, हमारा जीवन सुधरता तथा परलोक व पुनर्जन्म में भी हमें अनेक प्रकार से सुख आदि लाभ प्राप्त होते हैं। अतः हमें देवयज्ञ को शास्त्रीय विधान, ऋषियों की मान्यता एवं भावना के अनुरूप अपनाना चाहिये और इस यज्ञ को अपनाकर विश्व का कल्याण करना चाहिये।
-मनमोहन कुमार आर्य