ओ३म् “मनुष्य के जन्म-मरण का कारण एवं इन दुःखों से छूटने के उपाय”

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ओ३म्
“मनुष्य के जन्म-मरण का कारण एवं इन दुःखों से छूटने के उपाय”
हम संसार में प्रतिदिन मनुष्यों का जन्म होते हुए देखते हैं। प्रतिदिन देश विदेश में हजारों लोग मृत्यु के ग्रास बनते हैं। ऐसा सृष्टि के आरम्भ से होता आ रहा है। हम सभी ऐसा ही अनुमान व विश्वास भी करते हैं। इस सबको समझने के बाद भी मनुष्य इस विषय को जानने का प्रयत्न नहीं करते कि जन्म क्यों होता है, मृत्यु का कारण क्या हैं, क्या मृत्यु पर विजय प्राप्त की जा सकती है? मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा का अस्तित्व रहता है या नहीं? मरने के बाद आत्मा की क्या गति होती है? पुनर्जन्म का सिद्धान्त यथार्थ है या नहीं? किन उपायों से मनुष्य के दुःखों की निवृत्ति होती है? इन सभी मौलिक व आवश्यक प्रश्नों पर मनुष्य विचार करते हुए दिखाई नहीं देते। इसका कारण मनुष्यों की अविद्या है और इसका अन्य कारण हमारे धार्मिक संगठन व सामाजिक वातावरण भी है। हमारे विद्वानों को इस विषय में एकमत होकर देश देशान्तर में प्रचार करना था, वह भी कोई करता हुआ दृष्टिगोचर नही होता।

आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) को अपनी किशोरावस्था में अपनी बहिन तथा चाचा की मृत्यु को देखकर वैराग्य हो गया था। वह मृत्यु से डरने लगे थे। लोगों से मृत्यु के स्वरूप व इससे बचने के उपाय पूछते थे परन्तु न कोई जानता था और न ही उन्हें सन्तुष्ट कर पाता था। इस कारण सत्य की खोज तथा अविद्या पर विजय पाने के उद्देश्य से उन्होंने अपने पितृ गृह का त्याग कर देश देशान्तर में जाकर विद्वानों से अपने प्रश्नों का समाधान करने की योजना बनाई थी। इस प्रयत्न में उनका ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना व उसकी उपासना की बुद्धिसंगत व तर्कयुक्त पद्धति को जानना भी था। वह अपने 16 वर्षों के प्रयत्नों के बाद विद्या को प्राप्त करने सहित ईश्वर का साक्षात्कार करने में भी सफल हुए थे। वेद विद्या का ज्ञान प्राप्त करने तथा ईश्वर का साक्षात्कार करने पर ही मनुष्य की आत्मा के सभी दुःख, कष्ट, क्लेश आदि दूर होते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होकर ऋषि दयानन्द ने देश देशान्तर के लोगों के दुःख दूर करने और उन्हें अविद्या के कूप व गर्त से निकाल कर सच्चा मानव बनाने के लिये सन् 1863 में वेद विद्या के प्रचार का आन्दोलन आरम्भ किया था। इस कार्य में वह एक सीमा तक सफल भी हुए। उनकी कृपा से आज चारों वेदों का ज्ञान तथा ईश्वर के साक्षात्कार की विधि न केवल उच्च कोटि के साधको अपितु सामान्य हिन्दी पाठकों के लिये भी उपलब्ध है जिससे कोई भी मनुष्य लाभ उठा सकता है। ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचारार्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, .ऋग्वेद (आंशिक) तथा यजुर्वेद भाष्य सहित संस्कार विधि, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों को लिखकर देश देशान्तर की जनता को वह सर्वाधिक ज्ञानयुक्त उपयोगी सामग्री प्रदान की है, जिसकी सब मनुष्यों को आवश्यकता थी परन्तु जो उन्हें कहीं उपलब्ध नहीं होती थी। उन्होंने समाज से सभी अन्धविश्वासों तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का भी प्रशंसनीय कार्य किया। सारा विश्व समुदाय उनके ज्ञान व कार्यों से लाभान्वित होने के कारण उनका ऋणी है।

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मनुष्य के जन्म व मरण पर विचार करते हैं तो हमें वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन से अपने सभी प्रश्नों के उत्तर व समाधान प्राप्त होते हैं। संसार में वेदों से ही ईश्वर, जीव व प्रकृति के अस्तित्व व इनके सत्यस्वरूप सहित ईश्वर की उपासना का विचार व पद्धतियां प्रचलित हुई हैं। अतः वेद ही धर्म एवं संस्कृति के आदि व प्रमुख स्रोत हैं। वेदों के शीर्ष ज्ञानियों व मर्मज्ञों को ऋषि, मुनि, विद्वान व आचार्य कहा जाता है। अतः जन्म क्या है, इसका प्रामाणिक उत्तर जानने के लिये हमें ऋषि दयानन्द की शरण में जाना उचित होता है। ऋषि दयानन्द बताते हैं कि जन्म उसे कहते हैं जिसमें जीव व आत्मा किसी शरीर के साथ संयुक्त होके कर्म करने में समर्थ होता है। यह मनुष्य जन्म व अन्य योनियों में जीवात्मा के जन्म की प्रामाणिक परिभाषा है। इसी प्रकार से मरण वा मृत्यु की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा है कि जिस शरीर को प्राप्त होकर जीव वा आत्मा क्रिया व शुभ अशुभ कर्म करता है, उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाता है उसको मृत्यु कहते हैं। हमें जन्म व मृत्यु के इस प्रामाणित ज्ञान पर विचार कर उसे अपनी स्मृति में स्थापित कर लेना चाहिये जिससे हम तो इसे जानें ही, दूसरों को भी जन्म व मृत्यु के बार में बता सकें।

हमें जो मनुष्य जन्म मिला है उसका कारण हमारे कर्म होते हैं। यह कर्म इस जन्म से पूर्व पिछले जन्म में किये हुए होते हैं। हमारे वह कर्म दो प्रकार के होते हैं जिन्हें शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कहा जाता है। वेदविहित कर्मों को करने से पुण्य व सुख प्राप्त होता है और इसके विपरीत अशुभ व पाप कर्मों को करने से मनुष्य को अनेक योनियों में जन्म लेकर अपने अपने कर्मों के भोग के लिय परमात्मा से जन्म मिलता है। अतः हम सबको अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिये और वही कर्म करने चाहिये जिसका परिणाम सुख हो, दुःख न हो। कर्म के विषय में ऋषि दयानन्द जी ने सत्य वचन प्रदान करते हुए बताया है कि जो मन, इन्द्रिय और शरीर में जीव चेष्टा विशेष करता है सो ‘कर्म’ कहलाता है। वह शुभ, अशुभ और मिश्रभेद से तीन प्रकार का होता है जिन्हें क्रियमाण कर्म, संचित कर्म तथा प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। इन संचित एवं प्रारब्ध कर्मों के कारण ही हमारा पुनर्जन्म होता है। हमारा यह जन्म भी हमारे पूर्वजन्म के संचित एवं प्रारब्ध कर्मों के कारण ही हुआ है और अनन्त काल तक इसी प्रक्रिया व पद्धति से हमारे भावी जन्म होंगे। अतः हमें अपने प्रत्येक कर्मों को पूरी सूझ बूझ व विवेक से करना चाहिये क्योंकि इसके परिणाम को हमें प्रत्येक स्थिति में भोगना ही होता है।

मनुष्य को धर्म व अधर्म का भी ज्ञान होना चाहिये। धर्म किसे कहते है व धर्म का सत्यस्वरूप क्या है, इसका ऋषि दयानंद का बताया गया उत्तर है कि जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन जो वेदों में की गई है, पक्षपातरहित न्याय, सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोंक्त अर्थात् वेदविहित होने से सब मनुष्यों के लिए एक समान और मानने योग्य है, उसको ‘‘धर्म” कहते हैं। अधर्म का स्वरूप धर्म से भिन्न है। अधर्म का स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़ना और पक्षपातसहित अन्यायी होके बिना परीक्षा करके अपना ही हित करना है। जो अविद्या, हठ, अभिमान, कू्ररतादि दोषयुक्त होने के कारण वेदविद्या के विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, वह ‘‘अधर्म” कहाता है। हम लोग समय समय पर लोक व परलोक की चर्चा भी सुनते हैं परन्तु उसे जानते नहीं हैं। परलोक उसे कहते हैं कि जिसमें सत्य विद्या से परमेश्वर की प्राप्तिपूर्वक इस जन्म वा पुनर्जन्म और मोक्ष में परमसुख प्राप्त होता है। यही परलोक कहलाता है। विद्या की परिभाषा है कि जिसमें ईश्वर से लेके पृथिवी पर्यन्त पदार्थों का सत्य विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) होकर उनसे यथायोग्य उपकार लेना होता है, इसका नाम ‘विद्या’ है।’ विद्या के विपरीत जो भ्रम, अन्धकार और अज्ञानरूप विचार आदि हैं, इसका नाम ‘अविद्या’ है।

मनुष्य के जन्म व मरण का कारण पूर्व जन्म के कर्म तथा जन्म का परिणाम मृत्यु होना होता है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। अतः जन्म के कारण में ही मृत्यु का कारण भी निहित व छिपा होता है। मृत्यु से बचने के लिये हमें अपने जन्म के कारण ‘कर्म’ को नियंत्रित करना व कर्मों का सुधार करना होता है। हमें उन कर्मों को करना होगा जिनका कारण जन्म न होकर मुक्ति व मोक्ष होता है। मुक्ति व मोक्ष को जानने के लिये हमें सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास का अध्ययन करना चाहिये जहां मोक्ष के स्वरूप ‘पूर्णानन्द व परम आनन्द’ की चर्चा है तथा इसकी प्राप्ति के उपायों व साधनों को भी बताया गया है। मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य सरल उपाय धर्म का करना तथा अधर्म का त्याग करना होता है। इसमें ईश्वर की स्तुति प्रार्थना व उपासना भी सहायक होती है। अतः इन्हें भी वेदों के आधार हमें जानना चाहिये तथा उनका आचरण करना चाहिये। प्रथम हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना होता है। ईश्वर वह है जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं?, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान्, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है। जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों वा आत्माओं को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ईश्वर कहते हैं।

ईश्वर के हम पर अनेक उपकार हैं। ईश्वर के उन उपकारों को स्मरण कर तथा उससे सुख व रक्षा आदि की प्राप्ति के लिये मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करे। हमें इस विषय का सत्य व उपयुक्त ज्ञान होना चाहिये। स्तुति उसे कहते हैं जो ईश्वर वा किसी दूरे पदार्थ का गुण-ज्ञान कथन, श्रवण और सत्यभाषण करना है। स्तुति का फल यह होता है कि ईश्वर आदि का गुण-ज्ञान आदि का कथन करने से गुणवाले पदार्थ में प्रीति होती है। प्रार्थना उसे कहते हैं कि अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामथ्र्यवाले मनुष्य का सहाय अर्थात् सहायता लेने को कहते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने का लाभ यह होता है कि इससे मुनष्य के अभिमान का नाश, आत्मा में आर्द्रता, गुण-ग्रहण में पुरुषार्थ और अत्यन्त प्रीति का होना होता है। प्रार्थना करते हुए मनुष्य ईश्वर जो वस्तुएं मांगता है वह उसमें पात्रता होने पर पूरी हाती हंैं। ईश्वर की उपासना क्या है? इसका उत्तर है कि जिसके द्वारा ईश्वर के ही आनन्दस्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना है। इस उपासना से ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है और मनुष्य जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष की प्राप्ति का अर्थ है कि मनुष्य के जन्म व मरण से होने वाले सभी दुःख व क्लेश नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष अवधि में ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त कर वह ईश्वर के असीम आनन्द को भोक्ता है। यही मोक्ष सभी जीवात्माओं का लक्ष्य है। इसके लिए ही परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है व सभी जीवों वा आत्माओं को मनुष्य व भिन्न भिन्न योनियों में कर्मों के फल भोगने व मुक्ति के कर्म करने के लिए मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है।

हमें जन्म व मरण को अवश्य ही जानना चाहिये और इससे होने वाले दुःखों से रक्षा के लिये वेदों का स्वाध्याय, सत्कर्मों यथा परोपकार व यज्ञादि कर्म करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। यदि ऐसा करेंगे तो हमंो मृत्यु के पूर्व व मृत्यु के समय पछताना नहीं होगा अन्यथा मृत्यु के समय हमें अत्यन्त ग्लानि पश्चाताप को प्राप्त होना होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

ओम

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