ओ३म्: “यथार्थ ईश्वर का स्वरूप क्या व कैसा है?”

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ओ३म्
“यथार्थ ईश्वर का स्वरूप क्या व कैसा है?”
संसार में अनेक मत व सम्प्रदाय हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं परन्तु सब मतों की ईश्वर विषयक मान्यतायें, जो कि परस्पर समान होनी चाहियें, नहीं हैं। एक वस्तु व द्रव्य परस्पर भिन्न गुणों व स्वरूप वाला कदापि नहीं हो सकता। अतः मत-मतान्तरों की मान्यताओं में कहीं न कहीं न्यूनतायें व त्रुटियां सम्भावित हैं। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धि दी है जिससे वह सत्य व असत्य का विवेचन कर सत्य को प्राप्त हो सकता है। इसके लिये हमें सृष्टि मे घट रहे परमात्मा के लक्षणों पर भी विचार करना होता है। वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि में वर्णित ईश्वर के स्वरूप को भी दृष्टि में रखना होता है। इसके आधार पर हम ईश्वर के सभी गुणों व कर्मों पर विचार कर सत्य व असत्य का निर्धारण कर सकते हैं। वेदों के ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने भी ऐसा ही किया। उन्हें अपनी किशोरावस्था में सत्य ईश्वर के स्वरूप को जानने की प्रेरणा हुई थी। उनके समय में ईश्वर के जिस व जिन साकार व निराकार स्वरूपों तथा मूर्तिपूजा आदि का प्रचार था, उनसे वह अनेक तर्कों का उत्तर न मिलने के कारण सन्तुष्ट नहीं थे। उनकी शंकाओं के उत्तर उन्हें अपने समकालीन किसी विद्वान से प्राप्त नहीं हुए थे। यही कारण था कि उन्होंने ईश्वर विषयक सत्य ज्ञान की खोज को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था जिसमें मृत्यु पर विजय पाने के उपायों व साधनों को जानना भी लक्ष्य था।

ऋषि दयानन्द इस कार्य में मन, वचन तथा कर्म से लगे रहे थे जिससे उन्हें सफलता प्राप्त हुई और वह ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसका साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष करने में भी सफल हुए थे। ईश्वर का सत्यस्वरूप उन्हें योगाभ्यास व ध्यान आदि के द्वारा प्राप्त हुआ था। इसी से उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रकाश समाधि अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर साक्षात्कार द्वारा हुआ था। इसके पश्चात भी ऋषि दयानन्द ने विद्या प्राप्ति हेतु मथुरा के स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी को प्राप्त होकर उनसे वेद एवं वेदांगों का अध्ययन किया था। ऋषि दयानन्द गुरु विरजानन्द जी के अन्तेवासी शिष्य थे। अन्तेवासी शिष्य अपने गुरुकुल के निरन्तर सम्पर्क में रहता है। इसका लाभ यह होता है कि जब शिष्य को अपने गुरु जी से कुछ पूछना होता है तो वह उसे पूछ लेता है तथा जब गुरु को कुछ बताना आवश्यक लगता है तो वह उसे बिना पूछे भी शिष्य को बता देता है जिससे दोनों को ही लाभ होता है। इसी प्रकार व परम्परा से ज्ञान का अच्छी प्रकार से प्रवाह व प्रचार होता है। शिष्य विद्याकाल में अपने गुरु के सम्पर्क में जितना अधिक रहेंगे, गुरु के स्वभाव व व्यक्तित्व का भय जितना कम होगा वा नहीं होगा, उतना अधिक शिष्य अपने गुरु से विद्या के रहस्यों को प्राप्त हो सकते हैं। हम समझते हैं कि अपने समय के देश विदेश के वेदों के विद्वानों में शीर्ष गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से ऋषि दयानन्द को वेद एवं वेदांगों की शिक्षा मिली थी और उन्होंने विद्या के क्षेत्र में वह सब कुछ प्राप्त किया था जो उनके गुरु को ज्ञात था।

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गुरु से शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने के साथ ऋषि दयानन्द ने गुरुजी को प्राप्त होने से पूर्व व पश्चात देश के अनेक धार्मिक स्थानों का भ्रमण भी किया था और इस भ्रमण व खोज यात्रा में सम्पर्क में आये सभी विद्वानों से ज्ञान प्राप्ति के साथ उपलब्ध हुए ग्रन्थों का अध्ययन व उनका परीक्षण भी किया था। ऐसा करके वह विशद ज्ञान को प्राप्त करने में सफल हुए थे। वेदों को प्राप्त कर उन्होंने उनका अध्ययन व सत्यासत्य की परीक्षा भी की थी। वह सिद्ध योगी थे जो ईश्वर का साक्षात्कार कर उसके आनन्द का लाभ प्राप्त करने सहित विद्या विषयक प्रायः सभी रहस्यों को भी जान सकता है। इस दृष्टि सहित अपनी गवेषणायुक्त शुद्ध व पवित्र बुद्धि का लाभ भी उन्होंने वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को समझने में किया था। ऐसा कर उन्होंने वेदों का प्रचार तथा सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि आदि ग्रन्थों की रचना की थी। इन ग्रन्थों में ईश्वर व आत्मा, सृष्टि एवं मनुष्यों के कर्तव्याकर्तव्य, धर्म व अधर्म तथा मोक्ष प्राप्ति के सभी साधनों व उपायों का ज्ञान भी ऋषि दयानन्द ने प्रस्तुत किया है। उनका अपने ग्रन्थों व व्याख्यानों में कहा गया ज्ञान वेदानुकूल एवं आप्त ऋषियों के शास्त्रीय वाक्यों से प्रमाणित है। अतः ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर हम ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित प्रकृति व सृष्टि विषयक ज्ञान व उनके सदुपयोग से ईश्वर प्राप्ति आदि विषयों को भी जान व समझ सकते हैं। इसके लिये प्रचुर सामग्री ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों व उनके जीवन चरित्र में प्राप्त होती है। हम इस लेख में ऋषि दयानन्द द्वारा ईश्वर के स्वरूप को लेकर जो कहा गया है उसे संक्षिप्त व संकेत रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं।

ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के प्रथम व दूसरे नियम में ईश्वर के विषय में बताया है। प्रथम नियम में उन्होंने कहा है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है। इस नियम में ऋषि सब विद्याओं तथा सृष्टि के अनादि निमित्त कारण को परमात्मा को बता रहे हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि ईश्वर ही सब ज्ञान विज्ञान का अनादि स्रोत है तथा समस्त चराचर जगत उसी निमित्त कारण परमात्मा से बना है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर और आत्मा से पृथक प्रकृति के अस्तित्व को भी स्वीकार किया है। ईश्वर व आत्मा चेतन सत्तायें हैं तथा प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक सत्ता है जो अनादि व नित्य होने सहित जड़ सत्ता है। इस प्रकृति में विकार कर महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्राओं तथा पंचमहाभूतों आदि के द्वारा ही परमात्मा इस दृश्य जगत का निर्माण वा उत्पत्ति करते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर में ज्ञान व बल की पराकाष्ठा है। इसी से इस सृष्टि का निर्माण व संचालन होना सम्भव हुआ है।

आर्यसमाज का दूसरा नियम ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा उसके गुण, कर्म तथा स्वभाव पर प्रकाश डालता है। नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ यह नियम ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप का चित्रण करता है। इस प्रकार ईश्वर को इससे पूर्व किसी ग्रन्थ में व किसी मत के आचार्य ने इस रूप में परिभाषित व पंक्तिबद्ध नहीं किया। हमारा सौभाग्य है कि हमें यह श्रेष्ठ नियम व उत्तम विचार ईश्वर के विषय में ऋषि दयानन्द से प्राप्त हुए हैं। इस नियम को समझ लेने से ईश्वर का सत्य स्वरूप समझ में आ जाता है और सभी भ्रान्तियां भी दूर हो जाती हैं। इससे ईश्वर की जड़पूजा, मूर्तिपूजा सहित ईश्वर को स्थान विशेष पर मानने वाली मान्यताओं का भी खण्डन होता है। इस नियम को अपने जीवन में व्यवहार में लाकर साधना कर मनुष्य योग में सफलता प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात् भी कर सकते है। वेद, योगदर्शन सहित उपनिषद एवं अन्य सभी वेदानुकूल शास्त्रीय ग्रन्थों से भी यह नियम पुष्ट होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को इस नियम को कण्ठ कर लेना चाहिये और इसमें आये ईश्वर के सभी विशेषणों व गुणों पर विचार कर ईश्वर को जानकर उससे निकटता प्राप्त करनी चाहिये। इस नियम को जानकर व इसे प्रयोग में लाकर मनुष्य अपने जीवन को सफल कर सकते हैं। इस नियम को वेदों की ईश्वर विषयक मान्यताओं का सार भी कहा जा सकता है जो हमें सहज ही सुलभ हुआ है। हम इस नियम के लिये ऋषि दयानन्द सहित ईश्वर व आर्यसमाज के आभारी हैं। ऋषि दयानन्द से पूर्व उपासकों व साधकों को ईश्वर के स्वरूप का एक दो पंक्तियों में इस प्रकार ज्ञान कहीं सुलभ नहीं होता था। यदि यह आदर्श वाक्य महाभारत के समय व बाद में सर्वत्र सुलभ होता तो शायद संसार में अविद्या व अन्धविश्वास, पाखण्ड और नाना प्रकार की कुरीतियां न फैलती। अन्धविश्वास आदि सामाजिक बुराईयों का कारण अज्ञान ही हुआ करता है। ज्ञान से ही सभी प्रकार के अन्धविश्वास व कुरीतियां दूर की जा सकती है। अतः यदि ऋषि दयानन्द के बनाये यह नियम महाभारत के समय व बाद में सुलभ होते और लोग अपनी अविद्या दूर करना चाहते, तो विश्व में अविद्या न फैलती और यदि कहीं अविद्या होती तो उसे दूर किया जा सकता था।

ऋषि दयानन्द ने अपने लघुग्रन्थ आर्योद्देश्यरत्नमाला में भी ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित गुण, कर्म व स्वभाव पर प्रकाश डाला है। उसका भी यहां उल्लेख कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं। ऋषि दयानन्द के इन वचनों से ईश्वर का सत्यस्वरूप प्रकट व उपलब्ध हो जाता है। इस स्वरूप को अपने ध्यान में रखकर उपासना करने से सफलता मिल सकती है और हम उपासना के सभी लाभों को प्राप्त कर अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं।

हमने इस लेख में वेद एवं ऋषि दयानन्द के अनुसार ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा है कि यह संक्षिप्त लेख पाठकों के लिए लाभप्रद होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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