वेद सृष्टि के आदि ग्रन्थ होने सहित ज्ञान व विज्ञान से युक्त पुस्तक हैं। वेद जितना प्राचीन एवं सत्य मान्यताओं से युक्त अन्य कोई ग्रन्थ संसार में नहीं है। वेद से मनुष्य के जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है और मार्गदर्शन प्राप्त होता है। वेदों के सत्यार्थ को जानकर हम न केवल ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप से परिचित होते हैं अपितु हमें अपने जीवन के लक्ष्य का बोध होकर उसकी प्राप्ति का साधन व उपाय भी हमें वेदों से ही प्राप्त होते हैं। वेद जितना महत्वपूर्ण ज्ञान व धर्मग्रन्थ संसार में दूसरा कोई नहीं है। वेद विश्व मानव समाज की सबसे महत्वपूर्ण एवं उत्तम निधि है। अतः सबको वेदों की रक्षा करना, उसको जानना व अज्ञानियों में उसका प्रचार करना कर्तव्य सिद्ध होता है। वेद के प्रचार में अनेक कठिनाईयां आती हैं। वेद ईश्वर की भाषा संस्कृत में हैं।
प्रामाणिक भाष्य व टीका ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की ही मिलती
आम व्यक्ति इस भाषा को जानते नहीं हैं, अतः वेदों के ज्ञान का प्रकाश आम मनुष्य सीधे वेदों को मूल भाषा में पढ़कर प्राप्त नहीं कर सकते। प्रचार में दूसरी बाधा उन ग्रन्थों की भी है जिनमें वेदों के असत्य व अज्ञान से युक्त अर्थ किये गये हैं। वेदों पर सबसे अधिक प्रामाणिक भाष्य व टीका ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की ही मिलती है। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ थे। वह 18 घण्टे तक की समाधि को सिद्ध किये हुए योगी थे। समाधि में मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इसका अर्थ यह है कि ऋषि दयानन्द ने इस संसार को बनाने, चलाने व प्रलय करने वाले ईश्वर, जो सब जीवों का माता, पिता, आचार्य, राजा, न्यायाधीश के समान रक्षक एवं प्रेरक है, उसका साक्षात्कार किया था और इसके सत्यस्वरूप व भावनाओं को यथार्थरूप में जाना था। अतः ऋषि दयानन्द का वेदभाष्य सबसे अधिक प्रामाणित एवं उपादेय है। इसके बाद आर्य विद्वानों के वेदभाष्य व टीकायें भी प्रामाणिक कोटि में आते हैं। सभी मनुष्यों को अपने कल्याण व लाभ के लिये ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के वेद भाष्यों का अध्ययन करना चाहिये। वेदाध्ययन कर वेदों की सभी सत्य मान्यताओं वा सिद्धान्तों को जीवन में धारण करने से ही मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होने सहित ईश्वर की प्राप्ति वा उसका साक्षात्कार तथा धर्म, अर्थ काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य के लिये ईश्वर व सांसारिक पदार्थों का सत्य ज्ञान ही प्राप्तव्य हैं। इनको प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है। उसे और किसी पदार्थ को प्राप्त करना अभीष्ट नहीं रहता।
वेदों को जन सामान्य में प्रचारित करने का सबसे समर्थ एवं प्रमुख साधन सत्यार्थप्रकाश का प्रचार है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ ऋषि दयानन्द सरस्वती की रचना है जिसमें वेदों के सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं को संक्षेप में वेदों की भावना के अनुकूल सत्यरूप में प्रस्तुत किया गया है। सत्यार्थप्रकाश की यह विशेषता है कि इससे वेदों का सत्य व यथार्थ स्वरूप जाना जाता है। संसार में सत्यार्थप्रकाश के समान महत्वपूर्ण अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। इस ग्रन्थ को पढ़कर नास्तिक आस्तिक बन जाते हैं। अज्ञानी लोग इसे पढ़कर ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्यस्वरूप को प्राप्त होते हैं। वेदों के अनेक रहस्यों का अनावरण सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़ने से होता है। यह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ14 समुल्लासों में रचा गया है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में ईश्वर के अनेक नामों पर प्रकाश डालकर युक्तियों व तर्कों से बताया गया है कि एक ईश्वर में अनन्त गुण होने से ईश्वर के गुण, कर्म व संबंधों पर आधारित अनन्त नाम हो सकते हैं। इसलिये ईश्वर के अनेक नाम होना दोष नहीं अपितु गुण होता है। मनुष्यों के भी गौणिक, कार्मिक एवं सम्बन्ध सूचक नाम होते ही हैं तब परमात्मा में इनका निषेध करना उचित नहीं होता। अतः मनुष्य को ईश्वर को उसके मुख्य व निज नाम ओ३म् सहित उसके गौणिक आदि नामों से ग्रहण कर उसकी उपासना करनी चाहिये। मनुष्य को चेतन एवं जड़ देवों में अन्तर को भी समझना चाहिये। परमात्मा, माता, पिता व आचार्य आदि चेतन देव होने से उपासनीय होते हैं। जड़ देवता अग्नि, वायु, जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि से हम जो लाभ लेते हैं उसके लिये अग्निहोत्र यज्ञ करके हम उनके उपकारों के प्रति अपनी कृतज्ञता को व्यक्त करते हैं। कोई भी जड़ देवता उपासनीय व भक्ति करने योग्य नहीं होता। उपासना के लिये एक परमेश्वर जो सब देवों का देव महादेव होता है, वही परमात्मा उपासनीय होता है। ईश्वर में अनन्त गुण हैं जिनसे हमारा अनादि काल से उपकार हो रहा है। हम ईश्वर के ऋणी है। हम ईश्वर को अपनी ओर से कुछ पदार्थ दे नहीं सकते जिसकी उसको आवश्यकता हो व उसके लिए उपयोगी हो। अतः हमें ईश्वर प्रदत्त साधन मानव शरीर को उसकी भक्ति व उपासना में लगाकर उसका गुण कीर्तिन व स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना के द्वारा ही उसके प्रति अपनी कृतज्ञता को प्रकट करना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने वेदों को सप्रमाण सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बताया है। यह बात अनेक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है। अनेक विद्वानों ने इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं। उसको पढ़कर हम वेदों की महत्ता को समझ सकते हैं। इस आधार पर ऋषि दयानन्द ने मनुष्यों के लिए उपयोगी अनेक विषयों को सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है। दूसरे समुल्लास में बाल शिक्षा एवं इससे जुड़े अनेक विषयों को वैदिक मान्यताओं के आधार पर प्रस्तुत कर उनकी विशेषता एव महत्ता को प्रस्तुत किया गया है। तीसरे समुल्लास में बालको व ब्रह्मचारियों के अध्ययन व अध्यापन पर प्रकाश डाला गया है। इसमें गायत्री मन्त्र की व्याख्या, प्राणयाम की शिक्षा, सन्ध्या अग्निहोत्र उपदेश, उपनयन समीक्षा, ब्रह्मचर्य उपदेश, पठन पाठन की विशेष विधि, ग्रन्थों के प्रामाणिक व अप्रमाणिक होने के विषय सहित स्त्री शूद्रों का वेदाध्ययन में अधिकार एवं अन्य अनेक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। चतुर्थ समुल्लास में समावर्तन विषय, विवाह, गृहस्थ जीवन आदि विषयों से जुड़े अनेक पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। पांचवें समुल्लास में वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के महत्व को बताकर इनके सत्यस्वरूप से परिचित कराया गया है। यह दोनों आश्रम आज भी प्रासंगिक हैं, इसका ज्ञान इस समुल्लास को पढ़कर होता है। छठे समुल्लास में राजधर्म व उससे जुड़े अनेक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। सातवें समुल्लास में ईश्वर से जु़ड़े अनेक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय के विषय, नवम् समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष विषयों को प्रस्तुत किया गया है। दसवां समुल्लास आचार, अनाचार तथा भक्ष्य व अभक्ष्य विषयों पर विस्तार से प्रकाश डालता है। इन दस समुल्लासों में ऋषि दयानन्द ने प्रमाणों व युक्तियों के साथ वेद की मान्यताओं व सिद्धान्तों का पोषण व मण्डन किया है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में ऋषि दयानन्द ने संसार के सभी मत-मतान्तरों पर वेद के आधार पर दृष्टि डाली है और उनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों की परीक्षा, समालोचना सहित उनका खण्डन व मण्डन आदि निष्पक्ष एवं मानव जाति के हित की दृष्टि से किया है। सत्यार्थप्रकाश अपने विषय का अनूठा व ‘न भूतो न भविष्यति’ जैसा ग्रन्थ है। अतः सभी मनुष्यों को इस ग्रन्थ को निष्पक्ष भाव से सत्य की प्रतिष्ठा और असत्य के त्याग की भावना से पढ़ना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना ऋषि दयानन्द ने सन् 1874 में की थी। इसके बाद इसका संशोधित एवं परिवर्धित संस्कार सन् 1883 में तैयार में किया था। यह संस्करण सन् 1884 में मुद्रित होकर प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व 30 अक्टूबर, 1883 में ऋषि का अजमेर में बलिदान हो चुका था। मृत्यु का कारण जोधपुर प्रवास में उनको एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विष दिया जाना था। सत्यार्थप्रकाश ने अपनी रचना सन्1874 से अब तक करोड़ों लोगों के जीवन को प्रकाशित किया है। उन्हें सत्य व कल्याण का मार्ग दिखाया है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का प्रभाव सभी मतों पर पड़ा है। सत्यार्थप्रकाश में मत-मतान्तरों की जो समीक्षायें की गई हैं उसका एक प्रभाव यह हुआ कि अविद्या से युक्त मत-मतानतर भी अपनी मान्यताओं का तर्क व युक्ति से समर्थन करते हुए देखे जाते हैं। ऐसा करते हुए वह निष्पक्ष नहीं दिखाई देते। यदि सभी निष्पक्ष होते तो उसका निष्कर्ष वही निकलता जो ऋषि दयानंद ने प्रस्तुत किया है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर हमें विदित होता है कि मनुष्य का धर्म केवल वेद की शिक्षाओं को जानकर उनका आचरण करना ही है। मत-मतान्तर विष सम्पृक्त अन्न के समान है जिनका त्याग कर वेदों को अपनाना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर होता है। ऐसा मत-मतान्तरों के बहुत से लोगों ने वैदिक धर्म को अपनाकर किया भी है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ और इसके सभी विचार व मान्यतायें आज भी प्रासंगिक हैं। इस ग्रन्थ को जितनी बार पढ़ा जाता है, उतनी बार इससे नई नई प्रेरणाओं एवं रहस्यों का ज्ञान होता है। क्रान्तिकारी देशभक्त वीर सावरकर जी ने सत्यार्थप्रकाश की प्रशंसा में कहा है कि जब तक सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ मौजूद है, कोई मत अपने मत की शेखी नहीं बघार सकता। यह बात सर्वथा उचित है। हमें वेदों को जानने व उससे लाभान्वित होने के लिये प्रथम सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। ऐसा करके हम ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति एवं सृष्टि के सत्यस्वरूप से परिचित हो सकेंगे और इस सृष्टि को साधन बनाकर मनुष्य जीवन के लक्ष्य व पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य