ओ३म् “वैदिक धर्म दुःखों से रक्षार्थ सत्य को धारण करने की प्रेरणा करता है”

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मनुष्य का जो ज्ञान होता है वह सत्य व असत्य दो कोटि का होता है। मनुष्य के कर्म भी दो कोटि यथा सत्य व असत्य स्वरूप वाले हाते हैं। अनेक स्थितियों में मनुष्य को सत्य को अपनाने से क्षणिक व सामयिक हानि होती दीखती है और असत्य का आचरण करने से लाभ होता दीखता है। बहुत से मनुष्य अपने लाभ के लिये सत्य को छोड़ असत्य में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसा करना वैदिक धर्म की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों की दृष्टि से उचित नहीं होता। इसका कारण यह है कि परमात्मा सत्य में स्थिति हैं। वह सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप हैं। परमात्मा असत्य से युक्त कोई काम नहीं करते और न चाहते हैं कि कोई मनुष्य असत्य का आचरण, व्यवहार व कर्मों को करे। सत्य व्यवहार करने वाले मनुष्य सत्य के आचरण के परिणामस्वरूप ईश्वर से सुख पाते हैं और असत्य का आचरण करने वाले दुःख पाते हैं। यह वैदिक सत्य सिद्धान्त है। इसकी अनेक प्रमाणों एवं घटनाओं से पुष्टि होती है। अतः मनुष्यों को सत्य का ही आचरण करना चाहिये। जो मनुष्य अपनी अविद्या, स्वार्थ वा प्रयोजन की सिद्धि, हठ व दुराग्रह आदि से सत्य को छोड़ असत्य को अपनाते हैं व अपनाये हुए हैं, उन मनुष्यों को परमात्मा की व्यवस्था लोक-परलोक व जन्म-परजन्म में सुख के स्थान पर दुःख मिलता है। मनुष्य को असत्य व्यवहार तथा अशुभ करने से तत्काल कुछ लाभ होता दीखता है, अतः अविवेकी व अज्ञान से युक्त मनुष्य ऐसे कर्मों को करते हैं। इससे उन्हें इष्ट लाभ भी प्राप्त हो जाता है परन्तु इस कर्म का जब परमात्मा से फल प्राप्त होता है तो उसे अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। इस कारण से किसी भी मनुष्य को जीवन में असत्य विचार, विश्वास, कर्म व निर्णय नहीं करने चाहियें अन्यथा जन्म व जन्मान्तर में असत्य व अशुभ कर्मों का फल भोगना होगा। वैदिक सिद्धान्त भी यही कहता है कि ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’ अर्थात् मनुष्य को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्म के फलों का निश्चय ही भोग करना होता है। इस सत्य सिद्धान्त को जानकर मनुष्य को असत्य का व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिये।

ऋषि दयानन्द जी वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व ऋषि थे। उन्होंने वेद प्रचार हेतु स्थापित संगठन आर्यसमाज के नियम बनाये जिसमें चौथे नियम में विधान किया कि‘मनुष्य को सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ सत्य पर बल देते हुए उन्होंने पांचवे नियम में कहा है कि मनुष्य को अपने सभी काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिये। उसे सत्य से युक्त कार्यों को करना चाहिये और असत्य से युक्त कार्यों को नहीं करना चाहिये। आर्यसमाज का एक अन्य महत्वपूर्ण नियम यह भी है कि मनुष्य को अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। सत्य का आचरण करने से ही देश व समाज में अविद्या का नाश हो सकता है तथा विद्या की वृद्धि होती है। असत्य सदैव अविद्या से युक्त तथा विद्या से वियुक्त रहता है। विद्या से ही मनुष्य की उन्नति व उत्कर्ष होता है। अविद्या से मनुष्य पतन में गिरता है। सत्य को अपना कर तथा असत्य को छोड़ने से ही देश व समाज में सुख, शान्ति व उन्नति हो सकती है। ऐसा होने पर भी मनुष्य व बहुत से ज्ञानी व विद्वान भी असत्य आचरण करना छोड़ते नहीं है। अनेक ज्ञानी व विद्वानों का सत्य आचरण की उपेक्षा करना आश्चर्य की बात है। यदि संसार में सभी लोग सत्य के ग्रहण करने में दृण निश्चय हो जायें तो पूरे विश्व में धार्मिक व सामाजिक एकता स्थापित हो सकती है। एकता न होने का कारण असत्य का व्यवहार तथा अविद्या ही है। इसी कारण ईश्वर के साक्षातकर्ता व साक्षात्दर्शी ऋषि दयानन्द जी ने सत्य व विद्या के महत्व को आर्यसमाज के नियमों में रेखांकित किया है।

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वेद परमात्मा का ज्ञान है। यह ज्ञान सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। इस ज्ञान को सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ने इन ऋषियों की आत्मा में अन्तःप्रेरणा कर स्थिर किया था। परमात्मा ने ही इन ऋषियों को वेदों की भाषा के ज्ञान सहित वेदों के मन्त्रों के अर्थ भी बताये थे। इनके द्वारा ब्रह्माजी को ज्ञान देने सहित वेद अध्ययन अध्यापन की परम्परा सभी मनुष्यों में आरम्भ हुई थी। महाभारत से पूर्व विश्व के सभी लोग एक वेद मत को ही मानते व इसका ही आचरण करते थे। इसका एक कारण महाभारत से पूर्व देश देशान्तर में ऋषि परम्परा का प्रचलित होना था। इस वैदिक काल में संसार में धर्म विषयक अविद्या पर नियंत्रण था। सर्वत्र विद्या व वेदों का प्रकाश हमारे ऋषि व उनके शिष्य करते थे। वेदों का अध्ययन करने पर वेद सब सत्य विद्याओं से युक्त ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। वेदों की सभी मान्यतायें सत्य पर आधारित एवं सत्य सिद्धान्तों से पुष्ट हैं। ऋषि दयानन्द ने वेद व वैदिक मान्यताओं की सत्यता को सिद्ध करने के लिये ही वेद प्रचार किया और इसको स्थायीत्व प्रदान करने के लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। इन ग्रन्थों में सर्वत्र सत्य ही विद्यमान है जिनका अध्ययन कर कोई भी मनुष्य सर्वांश में सत्य से परिचित होकर सत्य आचरण व व्यवहार में प्रवृत्त हो सकता है। ऐसा करके ही आर्यसमाज को स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति तथा पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि सत्याचरण करने वाले अनेक महानपुरुष व महात्मा प्राप्त हुए थे। ऋषि दयानन्द और इन महापुरुषों के जीवन की घटनाओं का अध्ययन करने पर इनका जीवन सत्याचरण से युक्त सिद्ध होता है और इनसे पाठकों को सत्याचरण करने की प्रेरणा मिलती है।

वैदिक धर्म में मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्म को सत्य पर आधारित करने की प्रेरणा मिलती है। उसे कहा जाता है कि वह मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण व पालन करे। सत्याचरण ही धर्म का पर्याय है। जहां सत्य का आचरण नहीं होता वहां धर्म नहीं होता। सत्य में शाकाहार का सेवन भी जुड़ा हुआ है। शाकाहार सत्य से युक्त आचरण है और मांसाहार असत्य से युक्त एवं निन्दित कार्य होता है। यह भी उल्लेखनीय है कि सत्य के सर्वाधिक महत्व के कारण ही ऋषि दयानन्द ने वैदिक मान्यताओं पर लिखे अपने ग्रन्थ का नाम सत्यार्थप्रकाश रखा। उन्होंने सत्य के निर्णयार्थ वेद की प्रायः सभी प्रमुख मान्यताओं को सत्यार्थप्रकाश के आरम्भ के10 समुल्लासों में प्रस्तुत कर इसके बाद उत्तरार्ध के 4 समुल्लासों में सभी मत-मतान्तरों के सत्यासत्य की परीक्षा व समीक्षा की। उन्होंने ऐसा करते हुए पूर्णतः निष्पक्ष होकर सभी मतों में असत्य एवं अविद्यायुक्त मान्यताओं का दिग्दर्शन भी कराया है। अविद्या से सम्पृक्त कोई भी मत व सिद्धान्त विष से युक्त भोजन के समान त्याज्य होता है। विवेक व ज्ञान से युक्त मनुष्य ऐसा ही आचरण करते हैं और अतीत में भी प्रायः सभी मतों के अनेक विद्वानों ने सत्य को अपनाते हुए वैदिक धर्म को स्वीकार किया है। ऐसा करने से मनुष्य सत्य धर्म का पालन करने वाले बनते हैं और धर्मपूर्वक अर्थ का संचय एवं अपनी मर्यादित कामनाओं को सिद्ध करते हुए वह मृत्यु के पश्चात मोक्ष को प्राप्त होते है।

संसार में जो मनुष्य अपने जीवन में सत्य का सम्पूर्णता से आचरण नहीं करते उनके दुःखों का कभी अन्त नहीं होता व हो सकता है। यदि हम चाहते हैं कि हमें कभी किसी प्रकार का दुःख व कष्ट न हो, तो हमें सत्य का आचरण करते हुए वेद के सत्यस्वरूप को जानकर उसी के अनुरूप व्यवहार करना होगा। वैदिक धर्म असत्य व मिथ्या मान्यताओं, पाखण्ड, आडम्बरो, अविद्या व अन्धविश्वासों से सर्वथा मुक्त है, उसे सभी मनुष्यों को अपनाना होगा। इस मार्ग पर चलकर ही धर्म मार्ग के पथिक को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त होंगे। सन्ध्या में समर्पण मन्त्र में कहा जाता है ‘हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें।’ धर्म और उपासना का सत्य से निहित तथा असत्य से सर्वथा पृथक होना अत्यावश्यक एवं अपरिहार्य है। जिन मनुष्यों की उपासना में सत्य की न्यूनता तथा असत्य का समावेश होता है वह कभी दुःखों से सर्वथा मुक्त व मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते। अतः मनुष्य को दुःखों से मुक्त होने, जीवन की सफलता व सुखों की उपलब्धि के लिये सत्य को जानकर सत्य का ही व्यवहार करना चाहिये और सत्यपालन के लिए कष्ट उठाने में तत्पर रहना चाहिये क्योंकि सत्य पालन का अन्तिम परिणाम सुख व आनन्द की प्राप्ति होता है।

वैदिक धर्म सत्य ग्रहण कराने तथा असत्य छुड़ाने का पर्याय सत्य मत व धर्म है। इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि सभी ग्रन्थों व वेदभाष्य का अध्ययन कर उसके अनुकूल आचरण व व्यवहार करना चाहिये। ऐसा करके ही हम मनुष्य होने की अपनी सत्ता को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं। मनुष्य को यह भी ध्यान रखना चाहिये अन्तिम विजय सत्य की ही होती है। इसलिए सत्य से विलग कदापि नहीं होना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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