ओ३म्
‘संसार में वेदों की अप्रवृत्ति होने से अविद्यायुक्त मत उत्पन्न हुए’
संसार में वर्तमान समय में सहस्राधिक अवैदिक मत प्रचलित हैं जिनकी प्रवृत्ति व प्रचलन पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद हुआ है। सभी मतों का आधार चार प्रमुख मत हैं जो पुराण, जैन मत के ग्रन्थों, बाईबल तथा कुरान आदि ग्रन्थों के आधार पर प्रचलित हुए हैं। महाभारत युद्ध से पूर्व व महाभारत के दो हजार से अधिक वर्ष पश्चात तक वेद मत कुछ परिवर्तित अविद्यायुक्त मान्यताओं सहित प्रचलित था। महर्षि दयानन्द (1825-1883) धर्म के सत्यस्वरूप तथा धार्मिक इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने सृष्टि के आरम्भ से महाभारत महायुद्ध तक देश देशान्तर में प्रचलित रहीं वैदिक सत्य मान्यताओं का प्रकाश अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वेदों के पराभव तथा मत-मतान्तरों की उत्पत्ति के कारणों पर भी प्रकाश डाला है। सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास की अनुभूमिका में वह इस विषय में बताते हैं कि यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। वेदों की अप्रवृत्ति से अविद्यान्धकार के भूलोक में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिस के मन में जैसा आया वैसा मत चलाया। उन सब मतों में चार मत अर्थात् जो वेद-विरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी सब मतों के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा तीसरा चौथा चला है। अब इन चारों मतों की शाखायें एक सहस्र से कम नहीं हैं। इसी क्रम में ऋषि दयानन्द ने यह भी कहा है कि सब मतवादियों, इन के चेलों और अन्य सब को परस्पर सत्य और असत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न करना पड़े, इसलिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ बनाया है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सभी मत-वादियों व उनके अनुयायियों सहित सभी धर्म जिज्ञासुओं को अविद्या से मुक्त सत्य मत के निर्णय करने में सहायता करता है। अतः सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य है कि सत्यमत को प्राप्त होने के लिये वह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अवश्य ही अध्ययन करें।
ऋषि दयानन्द ने अपने उपुर्यक्त शब्दों में जो कहा है उस पर उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के पूर्व के दस सम्मुलासों में प्रकरणानुसार संक्षेप में प्रकाश डाला है। हमारा यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है। ईश्वर का सत्यस्वरूप वेदों से प्राप्त होता है। इसको यदि संक्षेप में जानना हो तो वह ऋषि दयानन्द के बनाये आर्यसमाज के दूसरे नियम को पढ़कर जाना जा सकता है। इस नियम में ऋषि ने बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी परमात्मा की सबको उपासना करनी योग्य है। ईश्वर सर्वज्ञ है अर्थात् सर्वज्ञानमय है। वह सब जीवों को उनके जन्म जन्मान्तरों के अभुक्त कर्मों का भोग कराने वा कर्मों के अनुसार सुख व दुःख प्रदान करने के लिये इस सृष्टि की रचना व पालन करते हैं। जीव संख्या में अगणित व अनन्त हैं जो स्वभावतः जन्म-मरण धर्मा हैं। मोक्ष के उपायों को करने पर जीवात्मा की निश्चित अवधि के लिये मुक्ति हो जाती है जिसके बाद सभी जीवन पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं। ईश्वर की उपासना से जीवन ईश्वर के आनन्द को प्राप्त कर दुःखों से सर्वथा रहित हो जाता है। मोक्ष में जीवात्मायें ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द का भोग करती हैं। यही आनन्द समाधि अवस्था में भी योगीजनों को प्राप्त हुआ करता है। इसी के लिये जिज्ञासु व विद्वान यौगिक जीवन को महत्व देते रहे हैं व भोगों से युक्त सांसारिक जीवन को गौण समझते हैं। जैसा इस कल्प में वैसा ही सृष्टिक्रम अनादि काल से यह सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय का चला आ रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक परमात्मा के द्वारा चलाया जाता रहेगा। इसमें किंचित भी परिवर्तन व अवरोध नहीं होगा।
महाभारत युद्ध से पूर्व के आर्यावर्त का वर्णन करते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है कि जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिये इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है क्योंकि यही सुवर्णादिरत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि की आदि में आर्य लोग इसी देश में आकर बसे। ऋषि बताते हैं कि आर्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मुनष्यों का नाम दस्यु हैं। जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं कि पारसमणि पत्थर सुना जाता है वह बात तो झूठी है परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्था् धनाढ्य हो जाते हैं। आज भी हमारा देश सुवर्णभूमि है। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में वेदों का प्रचार कर तथा वेदप्रचारार्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय तथा वेदों का भाष्य करके व वेदभाष्य के सत्यार्थ की पद्धति बता कर एवं आर्य विद्वानों द्वारा उपनिषदों, दर्शनों तथा मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों का सम्पादन कर भारत भूमि को पुनः सुवर्ण भूमि बना दिया है। आज हमारे देश में मनुष्य की आत्मा को योगी बनाने, समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार करने तथा मोक्ष प्राप्ति के सभी साधन करने का ज्ञान व विधि उपलब्ध है। हमारा अनुमान है कि ऋषि दयानन्द समाधि सिद्ध व ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए योगी थे जिनको मोक्ष प्राप्त हुआ है।
प्राचीन वैदिक युग की विशेषता बताते हुए ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि सृष्टि से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राज शासन में सब भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उस का प्रमाण है। इसी आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने-अपने योग्य विद्या चरित्रों की शिक्षा और विद्याभ्यास करें। और महाराज युधिष्ठिर जी के राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्धपर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे। ऋषि लिखते हैं….. सुनों! चीन का भगदत्त, अमेरिका का बब्रुवाहन, यूरोप देश का विडालाक्ष अर्थात् मार्जार के सदृश आंख वाले, यवन जिस को यूनान कह आये और ईरान का शल्य आदि सब राजा राजसूय यज्ञ और महाभारतयुद्ध में सब आज्ञानुसार आये थे। जब रघुगण राजा थे तब रावण भी यहां के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरुद्ध हो गया तो उस को रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उस के भाई विभीषण को राज्य दिया था।
ऋषि दयानन्द ने आर्यावर्त व भारत देश की कुछ हजार वर्ष पूर्व के काल में महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डवपर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात् आपस के विरोध से लड़ कर नष्ट हो गये क्योंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान् लोगों का राज्य बहुत दिन तक नहीं चलता। और यह संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जब बहुत सा धन असंख्य प्रयोजन से अधिक होता है तब आलस्य, पुरुषार्थरहितता, ईष्र्या, द्वेष, विषयासक्ति और प्रमाद बढ़ता है। इस से देश में विद्या सुशिक्षा नष्ट होकर दुर्गुण और दुष्ट व्यसन बढ़ जाते हैं। जैसे कि मद्य-मांससेवन, बाल्यवस्था में विवाह और स्वेच्छाचारादि दोष बढ़ जाते हैं। और जब युद्ध विद्या कौशल और सेना इतने बढ़े कि जिस का सामना करने वाला भूगोल में दूसरा न हो तब उन लोगों में पक्षपात अभिमान बढ़ कर अन्याय बढ़ जाता है। जब ये दोष हो जाते हैं तब आपस में विरोध होकर अथवा उन से अधिक दूसरे छोटे कुलों में से कोई ऐसा समर्थ पुरुष खड़ा होता है कि उन का पराजय करने में समर्थ होवे। जैसे मुसलमानों की बादशाही के सामने शिवाजी, गोविन्दसिंह जी (व महाराणा प्रताप आदि) ने खड़े होकर मुसलामनों के राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में मैत्रयुपनिषद के प्रमाण के आधार पर देश के कुछ चक्रवर्ती राजाओं के नाम भी लिखें हैं। उन्ीके यहां प्रस्तुत करने का लोभ भी हम छोड़ नहीं पा रहे हैं। वह लिखते हैं कि सृष्टि से लेकर महाभारत पर्यन्त चक्रवर्ती सार्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे। अब इनके सन्तानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहे हैं। जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्रयश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीश, ननवतु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्टरूप में मनुस्मृति, महाभारत ग्रन्थों में लिखे हैं। इन को मिथ्या करना अज्ञानियों व पक्षपातियों का काम है। भारत के अतीत का यह कैसा स्वर्णिम चित्रण है जिसे हमारे देश के राजनेताओं व एक विशेष मानसिकता व विचारधारा से प्रभावित लोगों ने पक्षपात के कारण सामने नहीं आने दिया।
सृष्टि के आरम्भ से वेदों द्वारा प्रवर्तित वेद मत वैदिक धर्म ही समस्त भूगोल व विश्व में प्रचलित रहा है। वेद मत सब सत्य विद्याओं पर आधारित सत्य धर्म था तथा इससे मानव मात्र तथा विश्व का कल्याण होता था, अब भी होता है। वेद मत के मानने से देश के अन्दर व बाहर व संसार में उपद्रव या तो होते नहीं थे अथवा नाम मात्र के होते थे। महाभारत काल व उसके बाद वेदों की अप्रवृति होने से ही सब अविद्यायुक्त वेदविरुद्ध मत अस्तित्व में आयें हैं जिनसे मानवता को लाभ के स्थान पर अनेक प्रकार की हानियां ही हुई हैं। इन सब मतों का पुनः सत्य वैदिक मत में प्रवेश करने व कराने के लिये ही ऋषि दयानन्द ने मानव जाति के हित की दृष्टि से वेद प्रचार कर सबको अविद्या छोड़ने और सत्य विद्याओं से युक्त वेद मत को स्वीकार करने के लिये वेद प्रचार किया था तथा अपने अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया थां। आज भी उनका लिखित व प्रचारित साहित्य हमें वेदों की महत्ता सहित सत्य धर्म, इसके लाभों व महत्ता को बताता है। बिना वेद मत का प्रचार किये व उसे विश्व भर में अपनाये मानव जाति का हित नहीं हो सकता और न ही विश्व में शान्ति लाई जा सकती है। सभी मतों के विद्वानों का कर्तव्य है कि वह सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के वेद भाष्य आदि ग्रन्थों को पढ़े और अपनी विवेक बुद्धि व हिताहित को देखकर निष्पक्ष होकर सत्य धर्म का ग्रहण व इसे अपनाने का निर्णय करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य