संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं। विचार करने पर यह विदित होता है कि ऐसा मनुष्यों व आचार्यों की अल्पज्ञता व अविद्या के कारण हुआ करता है। संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थों वा सत्ताओं का अस्तित्व है। ये सत्तायें हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर व जीव चेतन सत्तायें हैं तथा प्रकृति जड़ सत्ता है। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञ है तथा जीव एकदेशी, ससीम तथा अल्पज्ञ हैं। संसार में ईश्वर अजन्मा है जिसका न कभी जन्म हुआ है और न कभी होगा। सर्वव्यापक एवं निराकार सत्ता का जन्म हो भी नहीं सकता। प्रत्येक कार्य का एक प्रयोजन, उद्देश्य व कारण हुआ करता है। जीव के जन्म लेने के कारणों पर वेद एवं वैदिक साहित्य से प्रकाश पड़ता है। ईश्वर के जन्म लेने का कोई कारण नहीं है। जो कारण बताये जाते हैं वह मनुष्य की अल्प बुद्धि, ज्ञान व सोच के कारण कहे जाते हैं। विचार करने पर वह सब असत्य व अनावश्यक सिद्ध होते हैं। सर्वव्यापक ईश्वर सृष्टि की रचना, पालन, प्रलय सहित वेदों का ज्ञान प्रदान करने, सभी जीवों के पाप-पुण्यों के फलों तथा जन्म व मरण की व्यवस्था बिना जन्म लिये ही कर सकते हैं। जिस ईश्वर ने सूर्य, चन्द्र व पृथिवी सहित ब्रह्माण्ड के अनन्त लोक लोकान्तरों को धारण कर रखा है वह तुच्छ रावण, कंस व दुर्योधन आदि अत्याचारियों को भी मार सकता है। उनको मारने व धर्म की स्थापना के लिये ईश्वर को जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है।
ईश्वर जन्म देता है लेता नहीं है। धर्म की स्थापना वेदों के ज्ञान को जानने व प्रचार करने से होती है। आज भी वेद ज्ञान उपलब्ध है जिसका अध्ययन व प्रचार कर धर्म की रक्षा हो सकती है। ईश्वर एक स्वयंभू तथा जन्म व मरण के बन्धनों सर्वथा मुक्त एक सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान सत्ता है। ईश्वर से इतर जीव की सत्ता है जो चेतन एवं ज्ञान व कर्म करने की क्षमता से युक्त है। एकदेशी एवं ससीम होने से यह जीवात्मायें अल्पज्ञ हैं। जीव में कुछ स्वाभाविक ज्ञान होता है तथा इससे अधिक ज्ञान को वह अपने प्रयत्न व पुरुषार्थ आदि से मनुष्य जीवन में प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य जितना वेदों के निकट होगा व उनके सत्य अर्थों को जानेगा उतना ही विद्वान होता है। वेद ज्ञान से हीन मनुष्य उच्च कोटि का ज्ञानी नहीं हो सकता। ईश्वर व जीवात्मा विषयक ज्ञान, कर्म फल सिद्धान्त तथा मनुष्य के जन्म व मृत्यु से जुड़े अनेक प्रश्नों का उत्तर केवल वेद व वैदिक परम्पराओं में ही उपलब्ध होता है। इस कारण जो मत व सम्प्रदाय वेदों के निकट हैं उनमें उतनी अधिक सत्य ज्ञान से युक्त मान्यतायें व परम्परायें हैं और जो वेदों से दूर रहे हैं उनमें ज्ञान व विज्ञान विरुद्ध बातें अधिक होना विदित होता है। इस तथ्य की पुष्टि मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का अध्ययन कर की जा सकती है।
संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। किसी का कम तो किसी का अधिक प्रभाव है। जिसका प्रभाव अधिक है उसके अनुयायी कट्टरता से अपने मत का प्रचार करते हुए दीखते हैं। कट्टरता के साथ कुछ संगठनात्मक बातें व नीति विषयक निर्णय भी होते हैं। यदि सभी मत-मतान्तरों में ज्ञान तत्व पर विचार करें तो वह उनके प्रभाव की मात्रा में दृष्टिगोचर नहीं होता। इसे जानने में ऋषि दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ सर्वाधिक सहायक सिद्ध होता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के प्रथम दस समुल्लासों में इसके लेखक ऋषि दयानन्द ने वेद व वैदिक धर्म का परिचय कराया गया है और उसकी सत्यता व प्रामाणिकता के अनेक प्रमाण दिये हैं। धर्म व मानव जीवन विषयक सभी महत्वपूर्ण आवश्यक वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों पर भी प्रकाश डाला गया है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों को पढ़कर मनुष्य सत्यधर्म, जो ज्ञान व विज्ञान पर आधारित है, परिचित हो जाता है। निष्पक्ष अर्थात् पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़ने से आत्मा वैदिक मान्यताओं की सत्यता को स्वीकार करती है। इससे मनुष्य निभ्र्रान्त व निःशंक हो जाता है। यही वेद मत सृष्टि के आदि काल से 1 अरब 96 करोड़ वर्षों से अधिक काल अवधि तक भारत सहित विश्व भर प्रचलित रहा है। पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद वेद के विद्वानों के आलस्य प्रमाद व अव्यवस्थाओं के कारण वेद प्रचार न होने से देश देशान्तर में अविद्यायुक्त मत प्रचलित हुए। ऋषि दयानन्द ने पूर्ण निष्पक्षता से सभी मत-मतान्तरों की मान्यताओं व सिद्धान्तों पर दृष्टि डाली, गहन अध्ययन किया व उनकी समीक्षायें की। इस समीक्षा को उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के चार समुल्लासों में प्रस्तुत किया है। ऋषि दयानन्द की समीक्षा से यह सिद्ध होता है कि सभी मत-मतान्तर अविद्या व असत्य मान्यताओं से युक्त हैं। उन्होंने इसके प्रमाण भी सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने कहा है कि मत-मतान्तर के लोग अपने हित व अहित के आधार पर सत्य का ग्रहण व असत्य का परित्याग कर सकते हैं। उनका बनाया हुआ यह नियम प्रसिद्ध है कि सत्य का ग्रण तथा असत्य का त्याग करना चाहिये। अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से यह तथ्य विदित होता है कि हमारे मत-मतान्तरों में जो अविद्यायुक्त कथन व मान्यतायें हैं वह जीव की अल्पज्ञता अर्थात् अविद्या आदि के कारण से हैं। परमात्मा सर्वज्ञ होने से अविद्या से मुक्त है। ऐसा ही अविद्या से मुक्त उनका ज्ञान चार वेद हैं। ऋषि दयानन्द की कृपा से आज हमें ईश्वरीय ज्ञान वेद के सत्य वेदार्थ, जो ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण हैं, उपलब्ध हैं। वेदों के सभी सिद्धान्त व मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान से युक्त हैं। अतः सत्य एवं विद्या से युक्त वेदों का ही प्रचार विश्व में होना चाहिये और संसार के सभी मनुष्यों को वेदों की मान्यताओं को स्वीकार करना चाहिये। अनेक कारणों से ऐसा हो नहीं रहा है। इसका कारण मत-मतान्तरों के लोगों के अपने हित व अहित हैं। इसी कारण से सद्धर्म वेदमत के प्रचार, प्रसार व स्वीकार करने कराने में बाधायें आती हैं। सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह सत्य को अपने प्रयत्न व पुरुषार्थ से जानें व सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करें। इसका कारण यह है कि सत्य को जानने व ग्रहण करने से ही मनुष्य की आत्मा व जीवन की उन्नति होती है। अविद्या से मनुष्य की आत्मा व जीवन की उन्नति कदापि नहीं होती। अतः अविद्या व असत्य को छोड़ना ही सभी मनुष्यों के लिये श्रेयस्कर होता है। इसका समाधान यह है कि सभी मनुष्य अपने मत में स्थित रहकर भी वेद व वैदिक साहित्य का अनिवार्य रूप से पूर्ण निष्पक्षता के साथ अध्ययन करें। उनकी आत्मा को जो सत्य प्रतीत हो उसका निर्भीकता से ग्रहण तथा जो न हो उसका त्याग करें।
हम यदि वेद व वैदिक साहित्य को पढ़ेंगे ही नहीं, केवल अपने मत के ग्रन्थों को ही पढ़ेगे, तो हम विद्या व सत्य ज्ञान को प्राप्त नहीं हो सकते। मनुष्य जीवन की सफलता सत्य को जानने व उसका आचरण करने में ही है। इसी से हम सद्कर्म करते हुए असद् कर्मों से प्राप्त होने वाले दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। वेदों के अनुसार आचरण करने से ही मनुष्य सुख व ऐश्वर्य को प्राप्त होता है और ईश्वर की उपासना व भक्ति सहित अग्निहोत्र यज्ञ एवं सदाचार पूर्वक जीवन व्यतीत कर मोक्ष का अधिकारी भी बनता है। वेदानुसार उपासना करने से ही मनुष्य को ईश्वर व आत्मा का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष भी होता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने हित में मत-मतान्तरों का वैदिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर निष्पक्ष होकर अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके ही वह सत्य मत को प्राप्त हो सकते हैं। यदि हमने मनुष्य जन्म में सत्य को न जाना और असत्य व अविद्या में प्रवृत्त रहे तो इसका परिणाम हमें दुःख व परजन्म में मनुष्य जन्म के सभी सुखों आदि से दूर जाना होगा। पूर्ण सम्भव है कि हमें मनुष्य जन्म न मिलकर किसी निम्न पशु आदि योनि में जन्म मिले जहां दुःख अधिक तथा सुख कम होते हैं। ईश्वर ने हमें कर्म करने की स्वतन्त्रता दी है। इस स्वतन्त्रता का हमें सदुपयोग करना है न कि दुरुपयोग। सदुपयोग से लाभ तथा दुरुपयोग से हानि होगी। सत्यासत्य का निर्णय न करने व सत्य को स्वीकार न करने का दण्ड तो सृष्टि के नियन्ता से सबको अवश्य ही मिलेगा। ईश्वर न्यायकारी है। वह सब जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। न्यायाधीश की भांति वह किसी के पाप कर्मों को कदापि क्षमा नहीं करता। वहां किसी आचार्य व गुरु की सिफारिश भी नहीं चलती। अतः हम जो व जैसा कर्म करेंगे उसके अनुसार ही उसके फल भोगने के अधिकारी होंगे। विद्वानों व आचार्यों का मुख्य कर्तव्य है कि वह सत्य व असत्य का निर्णय कर स्वयं सत्य को स्वीकार करें तथा अपने अनुयायियों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य