ओ३म्
“स्वाध्याय व साधना से आत्मा की उन्नति व शारीरिक सुख का लाभ होता है”
परमात्मा ने जीवात्मा के कर्मों के अनुसार अनेकानेक योनियां बनाई हैं। मनुष्य योनि सभी प्राणि योनियों में सर्वश्रेष्ठ है। यही एक योनि है जिसमें मनुष्य आत्मा की उन्नति कर ईश्वर को जान व उसका साक्षात्कार करके अपवर्ग वा मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। मनुष्य के जन्म का कारण उसके पूर्वजन्म के कर्म हुआ करते हैं। जन्म मनुष्य योनि में हो या अन्य किसी भी योनि में हो, सभी योनियों में जीवात्मा को अनेक प्रकार के दुःख होते हैं। इन सभी दुःखों से मुक्ति का एक ही उपाय होता है कि मनुष्य श्रेष्ठ कर्मों को करें जिससे अशुभ व पाप कर्मों का परिणाम दुःख प्राप्त न हो। पुण्य व शुभ कर्मों को करने पर भी सुखों की मात्रा तो बढ़ाई जा सकती है परन्तु जन्म, मृत्यु सहित आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक दुःख तो सभी मनुष्यों व मुमुक्षुओं को भी होते ही हैं। अतः मुक्ति के लिये साधन व प्रयत्न करना आवश्यक होता है जिससे मनुष्य जन्म व मरण और इसके कारण होने वाले सभी प्रकार के दुःखों से बच जाये। इसी की शिक्षा हमें वेद व वैदिक साहित्य में मिलती है। हमारे प्राचीन ऋषि, मुनि, योगी व ध्यानी उच्च कोटि के ज्ञानी पुरुष व महिलायें हुआ करती थीं। उन्होंने संसार का भली प्रकार से अध्ययन व विवेचन किया था। उन्होंने पाया था कि जीवात्मा का उद्देश्य आत्मोन्नति करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करना ही है। आजकल की तरह धन कमाने की शिक्षा प्राप्त कर उचित व अनुचित साधनों से धन कमाना व इन्द्रिय व भौतिक सुखों को भोगना मनुष्य जीवन का लक्ष्य सिद्ध नहीं होता। भौतिक सुख रोग का कारण हुआ करते हैं। इससे सुख भोग का आधार व साधन हमारा शरीर निर्बल व रोगी हुआ करता है। अतः मर्यादा से अधिक भौतिक सुखों के भोग की इच्छा करना एक प्रकार से अपने साथ दुःख, रोग, निर्बलता एवं अल्प काल में मृत्यु को लेकर आता है। विचार करने पर ईश्वर, जीवात्मा तथा संसार को यथार्थरूप में जानना और इसे जानकर आत्मा की उन्नति करते हुए सांसारिक जीवन व जन्म व मरण के कारण पाप व पुण्यरूपी कर्मों से मुक्त होकर ईश्वर को प्राप्त होना ही मोक्ष कहलाता है जहां जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वर के आनन्द को भोगता है। मोक्ष को जानने के लिए सभी मनुष्यों को प्रयत्न करने चाहिये और इसका सर्वोत्तम साधन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ है जिसको आद्योपान्त पढ़ना चाहिये तथा मुख्यरूप से मोक्ष विषयक सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास अनेक बार अवश्य ही पढ़ना चाहिये। इसे पढ़कर मोक्ष का महत्व विदित हो जाता है। इसके बाद सब मनुष्य अपनी अपनी शारीरिक तथा आत्मिक स्थिति के अनुसार अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हुए आत्मा व जीवन की उन्नति के इच्छित मार्ग पर चल सकते हैं।
मनुष्य को परमात्मा ने सत्य व असत्य का विवेचन व विवेक करने के लिये बुद्धि दी है। यह बुद्धि जिस परिष्कृत रूप में मनुष्यों को प्राप्त है वैसी अन्य प्राणी योनियों के प्राणियों को प्राप्त नहीं है। इस बुद्धि का विषय ज्ञान की प्राप्ति करना होता है। ज्ञान प्राप्ति के अनेक साधन हैं जिनमें माता, पिता व आचार्यों से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त आचार्यों व उपदेशक विद्वानों के उपदेशों से भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इनसे भी बढ़कर मनुष्य को सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से सभी विषयों का ज्ञान होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन नियमित रूप से नयूनतम एक घंटा व अधिक समय तक स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये और इसमें कभी व्यवधान नहीं आने देना चाहिये। स्वाध्याय में जिन ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये उनमें वेद व वेद के व्याख्या ग्रन्थों का मुख्य स्थान होता है। वर्तमान समय में हम सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, 11 उपनिषद, 6 दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति का स्वाध्याय करते हुए यजुर्वेद, सामवेद, ऋग्वेद तथा अथर्ववेद आदि का क्रमशः स्वाध्याय कर सकते हैं। ग्रन्थों की प्राथमिकता हम स्वयं या विद्वानों से पूछ कर निर्धारित कर सकते हैं। आर्यसमाज के विद्वानों ने उच्च कोटि का प्रभूत अध्यात्मिक साहित्य लिखा है। उनका अध्ययन करना भी आत्मा की उन्नति में लाभ प्रद होता है। यह स्वाध्याय भी साधना का प्रमुख अंग है। यदि हम युवावस्था में ही इस कार्य को आरम्भ कर दें तो कुछ ही वर्षों में हम इन सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं और उसके बाद इनकी कई बार आवृत्ति भी हो सकती है। इससे निश्चय ही मनुष्य के ज्ञान में निरन्तर वृद्धि होती जाती है। मनुष्य के सभी भ्रम व शंकायें स्वतः दूर हो जाती हैं। ईश्वर की उपासना व साधना में प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। यह प्रवृत्ति ईश्वर तथा आत्मा की प्रेरणा ही मनुष्य को साधना व मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने के लिये बल प्रदान करती है और इनका उपयोग करते हुए मनुष्य आत्मा की उन्नति के मार्ग में आगे बढ़ता जाता है। अतः वैदिक ज्ञान से युक्त सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय मनुष्य जीवन की उन्नति के लिये आवश्यक एवं अपरिहार्य है। किसी भी स्थिति में स्वाध्याय के कार्य को बन्द नहीं करना चाहिये जिससे जीवन के उत्तर काल में पश्चाताप करना पड़े।
साधना वेद विहित व वेदानुकूल सत्कर्मों के आचरण को कहते है। इसमें ईश्वर की उपासना भी सम्मिलित होती है। इन सब कार्यों में मनुष्यों को पुरुषार्थ व तपस्वी जीवन व्यतीत करना होता है। अध्यात्म की साधना के लिये महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का अभ्यास करना आवश्यक है। ऋषि दयानन्द ने भी अपने ग्रन्थों में अष्टांग योग की विधि से साधना करने का विधान किया है। उन्होंने स्वयं भी योगदर्शन की विधि से ही साधना करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार किया था। वेद ज्ञान व योग के आश्रय से ही उन्होंने समाज सुधार, अविद्या के नाश, विद्या के प्रसार, अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन, देश सुधार, सामाजिक क्रान्ति, शिक्षा क्रान्ति, देश की आजादी की प्रेरणा, मनुष्यों को वैदिक जीवन जीने की प्रेरणा आदि के अनेक महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किये थे। योग व ध्यान साधना से मनुष्य का जीवन अपने परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। योग का उद्देश्य जीवात्मा को आत्म साक्षात्कार व ईश्वर साक्षात्कार कराना ही होता है। यही मनुष्यों के लिये परम पुरुषार्थ, साधना, महान तप तथा मनुष्य जीवन को पूर्णता प्राप्त कराने का आधार होता है।
दैनिक जीवन में स्वाध्याय करते हुए हमने उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश व वेदभाष्य आदि में जो पढ़ा होता है वह हमारी साधना, चिन्तन व ध्यान में सहायक होता है। साधना करते हुए मनुष्य को अन्य योग साधकों की संगति भी करनी चाहिये और उनसे अपने अनुभवों को साझा करना चाहिये। इससे भी साधकों को परस्पर लाभ होता है। साधना का अन्तिम लक्ष्य ईश्वर का साक्षात्कार ही होता है। यदि यह उपलब्धि प्राप्त न हो तो निराश नहीं होना चाहिये। ईश्वर साक्षात्कार जब तक न हो, मनुष्य को इस कार्य में लगे रहना चाहिये। वैदिक विद्वानों का मत है कि हम इस जीवन में जो साधना कर लेते हैं वह हमारे अगले जीवन में काम आती है। जिस प्रकार एक कक्षा में पढ़ा ज्ञान व पुस्तकें, अगली उच्च श्रेणी में सहयोगी व लाभप्रद होती है, इसी प्रकार से योगी को पूर्वजन्म की साधना का लाभ इस जन्म व इस जन्म की साधना का लाभ अगले जन्मों में भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय व साधना साथ साथ निरन्तर जीवन के अन्तिम समय तक किये जाते हैं। इससे मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती जाती है। इसका अनुभव साधक को स्वयं भी होता है। साधना करते हुए साधक को सत्यार्थप्रकाश में लिखे ऋषि दयानन्द के स्तुति, प्रार्थना व उपासना विषयक वचनों को स्मरण करने से लाभ होता है और उसे साधना के पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। अतः सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास का भी पाठ करते रहने चाहिये। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के प्रार्थना व उपासना प्रकरण भी अत्यन्त लाभकारी हैं। इनका भी पाठ करते रहना चाहिये।
हम सबको स्वाध्याय व साधना का महत्व समझना चाहिये और इसे अपने जीवन में व्यवहारिक रूप देना चाहिये। साधना में बाधक तथा साधक कारणों को भी जानना चाहिये और बाधक कारणों से बचना चाहिये। साधना में उन्नति के साधक कारणों को अपनाना चाहिये और साधना के सभी पक्षों पर विचार करते रहना चाहिये। ऐसा करेंगे तो हम संसार के अन्य सभी करणीय कार्यों को करते हुए भी एक सफल योगी व आध्यात्मिक विद्वान बन सकते हैं और अपने मनुष्य जीवन को सफल कर सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य