मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह जिससे अपना कोई प्रयोजन सिद्ध करे, उसके उपकारों के बदले में उसके प्रति कृतज्ञता की भावना व्यक्त करे। कृतज्ञ होना मनुष्य का एक श्रेष्ठ गुण होता है। कृतज्ञ न होना अमानवीय होना एवं निन्दित कर्म होता है। यदि दूसरे मनुष्य व ईश्वर हम पर उपकार व सहयोग न करें तो हमारा जीवन यापन नहीं हो सकता। जिस प्रकार से हम दूसरों से सहयोग व सहायता लेते हैं उसी प्रकार से हमारा भी कर्तव्य है कि हममें जो बौद्धिक व शारीरकि शक्ति व सामथ्र्य है उससे हम भी निर्बलों व सहायता की अपेक्षा करने वालों की सहायता करें। ऐसा करना सभी विज्ञ मनुष्यों का कर्तव्य है। जब हम अपने जीवन पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि हमारा यह जीवन परमात्मा व माता-पिता से मुख्य रूप से हमें प्राप्त हुआ है। यदि सृष्टि में परमात्मा तथा माता-पिता आदि न होते व परोपकार आदि के कार्य न करते तो हमारी आत्मा का अस्तित्व तो अवश्य हो सकता था परन्तु हमें मनुष्य जन्म व उसका पालन होकर जो सुख प्राप्त होते हैं, वह कदापि प्राप्त न हो पाते। हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य, अनन्त, अजन्मा, अविनाशी तथा सृष्टिकर्ता है। परमात्मा ने ही अनादि, नित्य व स्वयंभू पदार्थ प्रकृति, जो कि अचेतन व जड़ है, उससे हमारी इस सृष्टि को बनाया है।
परमात्मा ने यह संसार किसके लिये बनाया है? इसका उत्तर है कि परमात्मा ने हम व हमारे समान जीवों को सुखों की प्राप्ति तथा दुःखों की निवृति अर्थात् मोक्ष प्रदान करने के लिये बनाया है। परमात्मा ने ही इस सृष्टि व इसके सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह तथा पृथिवीस्थ अग्नि, जल, वायु, आकाश सहित अन्न, वनस्पति, दुग्ध, प्राणी जगत तथा भोग करने के सभी पदार्थों को बनाया है। हम व हमारी आत्मा के समान मनुष्य आदि सभी प्राणियों के उपभोग के लिये ही यह सृष्टि बनाई गई है। हमारा जन्म परमात्मा की व्यवस्था से होता है। वही हमें माता-पिता, बन्धु, सखा, संबंधी व कुटुम्बी प्रदान करता है। हमारा शरीर व सुख की सभी वस्तुयें भी परमात्मा ने ही हमारे व सब जीवों वा प्राणियों के सुख के लिये बनाई हैं। हमारे जन्म व मृत्यु की व्यवस्था तथा मृत्यु के बाद पुनर्जन्म आदि भी हमें ईश्वर से ही प्राप्त होते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने से हमें सद्बुद्धि व ज्ञान प्राप्त होता है तथा हम विद्वान तथा उत्तम व श्रेष्ठ कर्मों के कर्ता बनते हैं। इससे हमें व हमारे कारण दूसरों को भी सुख मिलता है। यह ऐसा ही है कि जैसा वेद प्रचार व धर्म प्रचार करने के कारण ऋषि दयानन्द से हमें व हमारी पुरानी व भावी पीढ़ियों को सुख, ज्ञान व विज्ञान की उन्नति के रूप में सुख आदि प्राप्त हुए हैं। अतः परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करना तथा उसका उसके सभी उपकारों के लिये धन्यवाद करना हम सब मनुष्यों वा जीवात्माओं का परम आवश्यक कर्तव्य है। ऐसा करके हम ईश्वर के सच्चे मित्र बनने व उसका साक्षात्कार करने में सफल होते हैं। यदि ऐसा नहीं करते तो हम स्वयं ही ईश्वर से दूरी बनाने के दोषी होते हैं जिससे हमें अनेक प्रकार की हानियां होती हैं। इन हानियों में मुख्यतः इस जन्म व परजन्मों में दुःख व नीच प्राणि योनियों में जन्मों का होना होता है। अतः ईश्वर को जानना व उसके गुणों का ध्यान व चिन्तन करते हुए उसके उपकारों के लिये उसका धन्यवाद करना संसार के प्रत्येक मनुष्य वा स्त्री-पुरुष का कर्तव्य सिद्ध होता है।
प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। अज्ञान सभी दुःखों का कारण हुआ करता है। अतः सुख प्राप्ति के लिये मनुष्य को ज्ञान की भी आवश्यकता है। मनुष्य को सुख प्राप्ति विषयक सच्चे व यथार्थ धर्म का ज्ञान भी परमात्मा प्रदत्त वेदों से ही प्राप्त होता है। संसार में जहां भी ज्ञान उपलब्ध है वह परमात्मा व वेदों से ही वहां पहुंचा है। ज्ञान व विद्या परमात्मा का अनादि व नित्य धर्म है। अपने गुणों, विद्याओं तथा अपरिमित बल से ही परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है व इसका संचालन कर रहा है। यह संसार परमात्मा ने अपनी सर्वज्ञता से उत्पन्न किया है। उसी ज्ञान को परमात्मा ने मनुष्य की उन्नति के लिये आवश्यक मात्रा में वेदों में दिया है। हम वेदों को पढ़कर व उसके सत्य अर्थों को जानकर ही विद्वान बनते हैं। यदि परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान न दिया होता तो आज तक मनुष्य अविद्यायुक्त ही रहते। सृष्टि के आरम्भ में बिना परमात्मा से ज्ञान प्राप्त किये मनुष्य स्वयं भाषा व ज्ञान को उत्पन्न नहींकर सकते। भाषा व ज्ञान उसे दोनों ही सृष्टि के आरम्भ में मानव शरीर एवं सृष्टिगत पदार्थों की भांति परमात्मा से ही प्राप्त होते हैं। हम देखते हैं कि आज भी बड़े बड़े विद्वान माने जाने वाले लोग अविद्या से ग्रस्त हैं। बड़े बड़े विद्वानों को भी ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान नहीं है। वह वेद ज्ञान के विरुद्ध बातें करते व जीवन व्यतीत करते हैं। ईश्वर की उपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र तथा परोपकारी के कार्य आदि भी उनके जीवन में देखने को नहीं मिलते। बहुत से ज्ञानी लोगों को शाकाहार भोजन की विशेषताओं का भी ज्ञान नहीं है। अतः ऐसे लोग विद्वान कहलाकर भी विद्वान नहीं होते। सच्चे विद्वान वही होते हैं जिनको वेदों का ज्ञान होता है और जिनके गुण, कर्म व स्वभाव वेदों के अनुकूल होते हैं। अतः मनुष्य को वेदाध्ययन कर अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और उन कर्तव्यों को करते हुए ईश्वर के प्रति आदर, सम्मान तथा भक्तिभाव रखना चाहिये। सब मनुष्यों को उपासना करते हुए उसके प्रति कृतज्ञता का प्रकाश तथा उसका धन्यवाद करना चाहिये। ऐसा करने से ही मनुष्य का जीवन सार्थक व सफल होता है। ईश्वर की वैदिक विधि से उपासना से रहित जीवन एक प्रकार से नास्तिक जीवन ही होता है। नास्तिक का अर्थ वेदों को न मानने वाला, उन्हें न जानने वाला तथा वेदों की निन्दा करने वाला होता है। इस परिभाषा के अनुसार संसार के अधिकांश लोग आस्तिक न होकर नास्तिक ही सिद्ध होते हैं। अतः सब मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह वेदों को पढ़े, उन्हें जानें और सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करें और साथ ही सच्चे आस्तिक वा वेदानुयायी बनें। ऐसा करके ही हम मनुष्य शब्द जिसका अर्थ मननपूर्वक सत्य को स्वीकार व आचरण करना होता है, बन सकेंगे।
वेदों सहित ऋषियों के ग्रन्थों व ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञ विधि, व्यवहारभानु, गोकरुणाविधि, ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य आस्तिक व ईश्वर के प्रति कृतज्ञ बनता है। इससे वह ईश्वर की भक्ति व उपासना कर अपनी आत्मा को दुर्गुणों, दुव्यसनों व दुःखों से मुक्त तथा सद्गुणों व सुखों से युक्त करता है। जन्म जन्मान्तरों में सच्चे आस्तिक व ईश्वर भक्तों की उन्नति होती है तथा मनुष्यों की देव योनि में उनका पुनर्जन्म व सुखों की प्राप्ति होती है। अतः मनुष्य को विचार व चिन्तन कर ईश्वर के उपकारों को जानना चाहिये और उन उपकारों के लिये ईश्वर का कृतज्ञ बनकर उसकी उपासना करनी चाहिये। इसके साथ ही सब मनुष्यों को ईश्वर से प्रेरणा ग्रहण कर परोपकार आदि सद्कर्मों को करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य