हाॅं! एक पिता हूॅं ना,
अतः अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु,
बाह्य चमक-दमक पर एक आवरण लगा लेता हूॅं।
कितनी ही जिम्मेदारियों को मैं आसानी से निभा लेता हूॅं।
कभी-कभी मेरा मन भी आवेशित होता है,
कितनी ही पीड़ा , कितने ही भावों को दिल में दबा मुस्कुरा देता हूं ।
अनेकों बलाए मुझे रोकती हैं पर मैं तटस्थ बना रहता हूॅं।
सर्दी ,गर्मी धूप, बारिश सबको भूल काम पर निकल जाता हूॅं।
परिवार की आंखों में खुशी और सुकून के सपने बुनते ,
हर रोज कमर कस के तैयार हो जाता हूं।
परिवार की खुशियों में खुश हो अपना जी बहला लेता हूॅं,
माता-पिता ,पत्नी ,बच्चे सब को अपने अंदर समाये रहता हूॅं ।
हां ! पिता हूं ना इसलिए मुस्कुराता रहता हूॅं।
डा• ऋतु नागर
(स्वरचित)
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“लगाव”:अंतिम क्षणों में उन्होंने मुझे वह क्रीम स्वेटर सौंपते हुए कहा……
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