पूजा में आचमन: इन दिशाओं की ओर मुख कर किया हुआ आचमन निरर्थक

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कंठ शोधन के लिए आचमन किया जाता है। आचमन करने से कफ आदि की सफाई हो जाती है, जोकि श्वास क्रिया और मंत्रोच्चारण में सहायक सिद्ध होती है। अगर अचमन न किया जाए तो मंत्रोच्चारण में त्रुटि होने की आशंका बनी रहती है। तीन बार ही आचरण क्यों किया जाता है, अक्सर यह सोचते होंगे। तीन बार आचमन करने से कामिक, मानसिक व वाचिक त्रिविध पापों से निवृत्ति होती है। पूजन में छोटी-छोटी क्रिया होती है, जिनका अपना महत्व होता है।शुद्ध मन तथा हृदय से की गई पूजा हमेशा फलीफूत होती है। तांबे के पात्र में जल रखने का भी खास महत्व है। तांबा को शुद्ध माना गया है तथा इससे बने पात्र में जल रखना उसकी शुद्धि करता है, इसलिए आचमन का जल विशेषकर ऐसे पात्र में रखने का प्रावधान है। मनुस्मृति में वर्णित आचमन के महत्व के अनुसार पूजा के अलावा दिन में कई बार कुछ विशेष क्रियाओं से पूर्व आचमन करने का विधान बताया गया है। इसमें नींद से जागने के बाद, भोजन से पूर्व, छींक आने के पश्चात, योग-ध्यान अथवा अध्ययन से पूर्व तथा अगर गलती से कभी असत्य वचन बोलें या कोई गलत कार्य हो जाए तो उसके पश्चात आचमन द्वारा शुद्धि अवश्य की जानी चाहिए।

आंतरिक रूप से स्वयं की शुद्धि

आचमन का अर्थ होता है पवित्र जल ग्रहण करते हुए आंतरिक रूप से स्वयं की शुद्धि। शास्त्रों में आचमन ग्रहण करने की कई विधियां बताई गई हैं, यहां हम आपको इनमें कुछ जरूरी चीजें बता रहे हैं। किसी भी पूजा में आचमन करना सर्वथा आवश्यक माना गया है, ऐसा ना करने से जहां पूजा का फल आधा माना जाता है, वहीं ऐसा करने पर भक्तों को भगवान की दोगुनी कृपा प्राप्त होती है।
पूजा से पूर्व तांबे के पात्र में गंगाजल या पीने योग्य साफ-शुद्ध जल लेकर उसमें तुलसी की कुछ पत्तियां डालकर पूजा स्थल पर रखा जाता है और पूजा शुरु होने से पूर्व आचमनी (तांबे का छोटा चम्मच जिससे जल निकाला जाता है) से हाथों पर थोड़ी मात्रा में तीन बार यह जल लेकर अपने ईष्टदेव, सभी देवता व नवग्रहों का ध्यान करते हुए उसे ग्रहण किया जाना चाहिए।

इन मंत्रों के साथ ध्यान करें

इसके पश्चात हाथों से माथे तथा कान को स्पर्श करते हुए प्रणाम करना ना भूलें। हाथ में जल लिए हुए आप इन मंत्रों के साथ ध्यान करें – ॐ केशवाय नम: ॐ नाराणाय नम: ॐ माधवाय नम: ॐ ह्रषीकेशाय नम:।  मान्यता है कि इस प्रकार आचमन करने से देवता प्रसन्न होते हैं।

अन्य दिशाओं की ओर मुख कर किया हुआ आचमन निरर्थक

आचमन करते हुए दिशाओं का ध्यान रखना बेहद आवश्यक है। आचमन करते हुए आपका मुख सदैव ही उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। अन्य दिशाओं की ओर मुख कर किया हुआ आचमन निरर्थक है और अपना उद्येश्य पूरा नहीं करता।
आचमन के द्वारा स्वयं की शुद्धि करने के अतिरिक्त हम ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त करते हैं, जो पुण्य प्राप्ति के समान है। इस क्रिया में बस एक अंजुली (हथेली का अग्र भाग या बीच का हिस्सा) पानी लिया जाता है। यह इतना थोड़ा होता है कि मुंह से गले की ओर जाते हुए इसके गति धीमी हो जाती है और सीधे आंतों तक ना पहुंचकर हृदय के पास जाकर अत्यंत मंद गति हो जाता है।
शास्त्रानुसार यह हृदय के पास स्थित आज्ञा चक्र तक पहुंचकर रुक जाता है। जल शुद्धि का प्रतीक है, इसलिए आचमन के इस जल का आज्ञा चक्र तक पहुंचने का अर्थ होता है आंतरिक शुद्धि, जो पूजा से पूर्व सर्वथा उपयुक्त माना गया है।
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