हे जगत के सृष्टिकर्ता, संहारक,पालनहारे,
तुम सब में, सब तुम में समाहित,
जल, थल ,नभ, जड़-चेतन में तुम,
मेरे अवचेतन मन में तुम,
इस नश्वर जगत में तुम अविनाशी,
मेरे मन वाटिका में आई ये कैसी आंधी है?
इस झंझावत से थाम मुझे, मेरी राह दिखा देना,
हार हो या जीत हो, अब न हूं भयभीत,
दुर्गम पथरीली राहों को देख, रुकूं नहीं, थकूं नहीं ,
अपने लक्ष्य से किंचित मात्र डिगू नहीं,
मेरे पथ को कर दो प्रकाशित ,
मेरे अंतर्मन में निहित, निराशा के बादल छट जाएं,
मेरे मानसपटल में अपनी प्रभा अंकित कर दो,
हे विधाता! तेरा साथ मुझे मिल जाए,
ये मृगतृष्णित जीवन मुक्त हो जाए।
डॉ. ऋतु नागर
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