कविता *******
यहां कर्म अपना है और कुछ भी नहीं !
सफलता का सूत्र भी यही है
एक बार बहस छिड़ी प्रात: और सांझ में,
विषय था- कौन है श्रेष्ठतम?
कौन सर्वश्रेष्ठ है?
प्रात: ने अपनी भूमिका बतलाई,
मेरे आते ही आकाशगामी सूर्य अवतरित हो जाता है,
पक्षी की मधुमय बोली से धरा गुंजित हो जाती है,
सरोज सरिता से बाहर निकल मंदमंद मुस्काता है।
बच्चों की किलकारी , नारी की खनखनाहट से,
जग गुंजित हो जाता है।
मंदिर की घंटी मुर्गें की बांग मेरे आने का संकेत देती हैं,
सरसों के खेत, फूलों के बगीचे लहलहाते हैं,
मेरे आने पर सरिता स्वागत में मधुर गीत छेड़ती है।
पेड़ों के पत्तों रुपी सितार पर समीर मानो तरंगित होती है।
अत: मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूं।
तभी किसी आहट से दोनों का ध्यान भ्रमित हुआ। संध्या कहती है शायद कोई है।
सुबह से हास करते हुए कहा तेरा डर है।
सच पूछो तो वह दोपहरी थी, जो चुपचाप आकर चली गई।
सांझ ने अपने रूप को बदला,
उसने अपनी महिमा का बखान किया।
तेरे रहते लोग गर्मियों में तपते हैं,
मेरी प्रतीक्षा में दिवस गुजारते हैं।
तेरा आगमन लोगों को कार्य का संकेत देता है,
मेरा कार्य की समाप्ति का वक्त।
पक्षी-मानव सभी खिल उठते हैं,
अपने- अपने घरों की प्रस्थान की चाह में,
बिना विचलित हुए आगे बढ़ते हैं।
सूर्य भी अपनी थकान मिटाता है,
हंसता हुआ गहरी नींद में सो जाता है।
रही फूलों की सुगंध तो चंदा, चमेली, रातरानी पर,
उस पर तो मेरा ही अधिकार है।
प्रात: अनमना- सा हो गया।
कुछ कहता, तभी रात्रि ने दस्तक दी,
दोनों की बातों को विराम दिया।
रात्रि ने दोनों का आकर परिहास किया।
तुम दोनों तो पेड़-पौधे और सूर्य तक सीमित हो।
मुझे देखो मेरे आते ही बच्चे प्रसन्न हो उठते हैं,
आकाश में चंदा और तारे चमचमाते हैं,
चारों ओर शांति छा जाती है,
दिनभर का भ्रम हट जाता है।
पक्षियों को देखो! मानव को देखो! कैसे चैन से सोते हैं,
बर्फीली चोटियों में चंद्रमा की चमक,
तारों की झिलमिलाहट किसी स्वर्ग से कम नहीं है।
अत: मैं सर्वश्रेष्ठ हूं।
तभी दरवाजे की ओट में बैठा मानव।
सुनकर बातों का सिलसिला,
रोक न पाया अपने आप को।
हताश-निराश क्या करे? क्या न करे?
मानव को ईश्वर का स्मरण हो आया।
मानव नतमस्तक हो कर बोला-
कुछ ऐसे कर्म देना ऐ दाता!
जिससे सच की जग में जय हो।
कुछ ऐसा भाग्य लिखना विधाता!
जिससे हमारे जीवन की जय हो।
न सोचें किसी ने क्या पाया?
मिला था क्या जब यहां वो आया?
पर,
पर मानव की प्रवृत्ति से ईश्वर परिचित थे।
सो, दो टूक शब्दों में कुछ ऐसा कहा-
सुबह- शाम-रात सभी मेरे ही हिस्से हैं।
मैं ही प्रकृति हूं, मैं ही मानव हूं।
मैं ही विधाता हूं, मैं ही पहाड़ हूं।
मैं ही जल-फल-फूल-पौधे-पक्षी व पशु हूं।
सुबह, शाम और रात सुन रहे थे बातों को,
हुए संकुचित और चल दिए दिशाओं को अपनी।
अरुणोदय ने अपने पट खोले।
जिसे देख मानव मुस्कुराहट-भर बोला-
यहां कर्म अपना है और कुछ भी नहीं।
सफलता का सूत्र भी यही है और आधार भी यही है।
समय का चक्र घूमता है नित।
फिर क्या सोचना क्या विचारना।।
अब तो बस चलते जाना है, बढ़ते जाना है।।
डॉ. मीना शर्मा