श्राद्ध में जो भोजन खिलाया जाता है, वह पदार्थ ज्यों का त्यों उस तौल के अनुपात में मृत मित्रों को प्राप्त होता है। वास्तव में ऐसा नहीं है। श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणित होकर उसी अनुपात में प्राणी को प्राप्त होता है।
मनुष्य जब यह लोक त्याग देता है, उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके परिजन उसके लिए जो कुछ दान-पुण्य करते हैं, इस अनुष्ठान को श्राद्ध कहते है। मृत पितरों के उद्देश्य से जो प्रिय भोज्य पदार्थ ब्राह्मणों को श्रद्धा पूर्वक प्रदान किए जाते हैं, इस अनुष्ठान को श्राद्ध कहते हैं।
श्राद्ध हिन्दू एवं अन्य भारतीय धर्मों में किया जाने वाला एक कर्म है, जो पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता अभिव्यक्त करने तथा उन्हें याद करने के निमित्त किया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि जिन पूर्वजों के कारण हम आज अस्तित्व में हैं, जिनसे गुण व कौशल, आदि हमें विरासत में मिलें हैं, उनका हम पर न चुकाये जा सकने वाला ऋण हैं। वे हमारे पूर्वज पूजनीय हैं।
रामायण की कथा के अनुसार, जब पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी अपने पिता का श्राद्ध कर रहे थे, तब सीताजी ने श्राद्ध की समस्त सामग्री अपने हाथ में तैयार की लेकिन जब निमंत्रित ब्राह्मण भोजन करने लगे तब सीताजी दौड़कर कुटी में छिप गई। बाद में श्री रामचंद्र जी ने सीता जी की घबराहट और सूखने का कारण पूछा तो वह कहने लगी स्वामी, मैंने ब्राह्मणों के शरीर में आपके पितांश के दर्शन किए हैं।
अब आप ही बताइए जिन्होंने पहले मुझे समस्त आभूषणों से विभूषित अवस्था में देखा था, वे पूज्य मेरे ससुर जी मुझे इस तरह देखते तो उन्हें कैसा महत्व अनुभव होता। कुछ इसी तरह का ही प्रसंग महाभारत में भी मिलता है, जब भीष्म पितामह अपने पिता शांतनु जी का पिंडदान करने लगे। उनके सामने साक्षात शांतनु जी के दाहिने हाथ में उपस्थित होकर पिंडदान ग्रहण किया।
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