हिंदू संस्कार: संस्कारों की संख्या 40,16 संस्कार ज्यादा चलन में रहे

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पुरातन काल से ही हमारे हिंदू समाज में मनुष्य के व्यक्तित्व के उत्थान के निमित्त संस्कारों का संयोजन किया । मनुष्य के जीवन में सुव्यवस्थित ढंग से शुद्धता, आस्तिकता, पवित्रता संस्कार की प्रधान विशेषताएं मानी गई धर्म और कर्मकांड इनके मूलाधार रहे । संस्कारों में प्राचीन काल से आज तक अनेकों विश्वास और कर्मकांड जुड़ते रहे जो समय समय पर कार्यविधि को कार्यविधि को आंदोलित करते रहे एवं इसके प्रयोजन समय-समय पर प्रभावित होते रहे इसके उद्देश्य धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन से संबंधित है।

प्रतीकात्मक उद्देश्य यह हमारे जीवन के अनुराग, स्नेह ,प्रेम ,शोक, दुःख आदि जो मानव मन की अभिव्यक्ति है उसको प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त करती है, जैसे नामकरण संस्कार पुत्र जन्म के आनंद को व्यक्त करता है एवं अंत्येष्टि संस्कार किसी के निधन पर उस व्यक्ति के प्रति व्यक्त की गई विषाद भावना को व्यक्त करता है। व्यक्तियों के जीवन में जो विघ्न और बाधाएं आती हैं ऐसी बाधाओं से बचने के लिए कुछ संस्कारों की योजना की गई। अलौकिक समृद्धि की कामना से पूर्ण करने के लिए पूर्ण करने के लिए कुछ संस्कारों की योजना की गई। कुछ संस्कारों का आयोजन संस्कारों का आयोजन अपने वांछित वस्तु को प्राप्त करने के लिए की गई। कुछ संस्कारों की रचना मनुष्य के सामाजिकरण नैतिकता उसका उत्कर्ष एवं आध्यात्मिक विकास के लिए की की गई।
हिंदू समाज में संस्कारों का प्रचलन वैदिक काल से ही रहा लेकिन इनका विवरण वैदिक साहित्य में नहीं मिलता सूत्रों और स्मृतियों के अनुसार मनुष्य के जीवन में संस्कारों को लेकर मतभेद है गौतम ने संस्कारों की संख्या 40 बताइए और रेखा नसने अट्ठारह कुछ शास्त्र तारों ने संस्कारों की संख्या 13 बताई है किंतु अधिकतर सभी धर्म शास्त्र कार संस्कारों की संख्या 16 मानते हैं। जिनमें गर्भाधान पुंसवन सीमंतो नयन जागरण नामकरण निष्क्रमण अन्नप्राशन चूड़ाकर्म कर्णवेध विद्यारंभ उपनयन वेदर के शांत समावर्तन विवाह एवं अंत्येष्टि। समय के साथ-साथ जिनका पालन किया गया वही ज्यादा चलन में रहे।
गर्भाधान संस्कार
पहला संस्कार माना गया जिसके जिसका अर्थ स्त्री का गर्भवती होना याद होना ही गर्भाधान है।
पुंसवन
यह गर्भ के तीसरे महीने में संपन्न किया जाता था ।पुत्र संतान के लिए देवताओं को प्रसन्न किया जाता था।
सीमंतोन्नयन
हिंदू शास्त्रों के अनुसार यह संस्कार गर्व के चौथे महीने में किया जाता था। कहां गया है कि गर्भिणी स्त्री के केशों को ऊपर उठाया जाता था ऐसा मानना था की जब स्त्री गर्भिणी होती है तब उस पर अनेक विघ्न बाधाएं आती हैं इन बाधाओं से रक्षा का उपाय सीमंतोन्नयन संस्कार से किया गया।
जातकर्म संस्कार
जन्म के समय जात कर्म संस्कार आयोजित किया जाता था मनु के अनुसार नार काटने से पहले जात कर्म संस्कार संपन्न किया जाता था।
नामकरण संस्कार
हिंदू समाज में संतान को नाम प्रदान करने के लिए भी संस्कार का आयोजन किया जाता था। उसे शुभ कर्मों और भाग्य का आधार माना गया।
अन्नप्राशन संस्कार
पांचवें महीने के पश्चात शिशु अन्न खाने लायक हो जाता है। छठे माह में शिशु का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है गीता में कहा गया है अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं ,अन्नसे ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्व माना गया है। संस्कार रूप में स्वीकार करके शुद्ध सात्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने के लिए अन्नप्राशन संस्कार संपन्न किया जाता है। इसका उद्देश्य बालक को बलशाली तेजस्वी एवं मेधावी बनाना है अतः शिशु को चावल, दही, शहद ,दूध आदि को मिलाकर खिलाया जाता है।
शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करने के पश्चात अन्न को खिलाने का विधान बताया है। इस संस्कार के अंतर्गत शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर व अन्य पौष्टिक पदार्थ शिशु को खिलाते हैं।
मुंडन या चूड़ाकर्म संस्कार
शिशु के बाल जब सर्वप्रथम काटने का आयोजन किया जाता है तब यह संस्कार चूड़ाकरण या चूड़ाकर्म कहा जाता है इसे मुंडन भी कहा गया है चूड़ा का अर्थ है चंडी याशिका इसमें शिखा को छोड़कर सिर के सभी बाल कटवा दिए जाते हैं ऐसी मान्यता है कि चूड़ाकरण से दीर्घायु और कल्याण प्राप्त होता है अतः चूड़ाकर्म एक संस्कार के रूप में किया जाता है ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी शुभ मुहूर्त में ही यह संस्कार करना चाहिए। परंपरा के अनुसार जन्म के प्रथम वर्ष के अंत तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व मुंडन संस्कार कराना आम तौर पर प्रचलित है कहीं-कहीं पांच ले या सातवें वर्ष में भी इस संस्कार को करने का विधान है । मान्यता है कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भ के मलिन संस्कारों को निकालकर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने के लिए चूड़ाकर्म संस्कार किया जाता है। इसे किसी देव स्थल पर इसलिए किया जाता है ताकि वहां के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले एवं उतारे गए बालों के साथ बच्चे के मन में सु संस्कारों की स्थापना हो सके। समाज में आज भी मुंडन संस्कार का आयोजन बड़े ही आह्लाद एवं प्रसन्नता पूर्वक किया जाता है।

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कर्णछेदन या कर्णवेध संस्कार
शिशु के शोभन और अलंकरण के निमित्त किया जाने वाला धार्मिक संस्कार था। जो शिशु के जन्म के सातवें महीने में आयोजित किया जाता था। कब और किस समय किया जाए इस पर मत विभिन्न है। विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ इस संस्कार को संपन्न किया जाता था क्षत्रिय बालक का काम स्वर्ण की सुई से ब्राह्मण और वैश्य बालक का कान चांदी की सुई से तथा शुद्र बालक का कान का सुई से छेद आ जाता था। एक युग में यह संस्कार मुंडन के साथ संपादित किया जाता है मान्यता यह है कि सूर्य की किरणें कानों के क्षेत्र में प्रवेश पत्र बालक बालिका को तेज संपन्न बनाते हैं बालिकाओं में आभूषण धारण हेतु एवं रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार एक सशक्त माध्यम भी रहा है।धीरे-धीरे अब कर्ण छेदन संस्कार हिंदू समाज से लुप्त होता दिख रहा है।
विद्यारंभ संस्कार
संतान की अवस्था जब 5 वर्ष की होती थी तब उसे शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती थी सर्वप्रथम बच्चे द्वारा वर्ण अक्षर सीखना और पढ़ा जाना विद्यारंभ संस्कार कहा जाता था। मंगल के देवता श्री गणेश और कला की देवी सरस्वती जी को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है बालक विद्या देने वाले गुरु को पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन करता है ताकि गुरु उसे एक श्रेष्ठ मनुष्य बनाएं इस संस्कार को करने से बालक में मेधा प्रज्ञा विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है इससे विद्यध्ययन करने में उसे कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।
उपनयन संस्कार
उपनयन का अभिप्राय वेद के अध्ययन से है। उपनयन के लिए यज्ञोपवीत शब्द का भी प्रचलन है जिसका अर्थ है यज्ञ का उपयोग हिंदू समाज में उपनयन संस्कार का सर्वाधिक महत्व है जिसका संबंध व्यक्ति के बौद्धिक उत्कृष्ट से है यह संस्कार शुद्र को छोड़कर अन्य तीनों वर्णों के लिए विहित वह था। यह संस्कार इस बात का प्रमाण था कि अनियमित और अन॒ उत्तरदाई जीवन समाप्त होकर नियमित गंभीर और अनुशासित जीवन प्रारंभ हुआ हो शैक्षणिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इस संस्कार की अत्यंत महत्त्व थी। इसके माध्यम से व्यक्ति गुरु ,वेद ,यम, नियम और देवता के निकट पहुंचता था ताकि वह ज्ञान अर्जित कर सके ।वस्तुतः उपनयन संस्कार का प्रधान उद्देश्य था वेदों का अध्ययन।आज भी हिंदू परिवारों में उपनयन संस्कार की महत्ता है बड़े ही आह्लाद और आनंद के वातावरण में इसे संपन्न किया जाता है।
वेदारंभ
गुरु के सानिध्य में पहुंचकर शिष्य का वेद अध्ययन प्रारंभ करना भी एक संस्कार माना गया। जिसके उसका बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष होता था प्राचीन काल में वेद और वेदांगों की शिक्षा ग्रहण करना छात्र का प्रमुख कर्तव्य था ।
केशांत अथवा गोदान
विद्यार्थी के 16 वर्ष में यह संस्कार संपन्न किया जाता था जब उसके दाढ़ी आदि का पहली बार और कर्म होता था। छापरिया के साथ युवा व्यक्ति को ब्रह्मचर्य और सदाचरण का स्मरण दिलाया जाता था। इसे गोदान संस्कार भी कहा गया है क्योंकि इस संस्कार में ब्राह्मण आचार्य को गोदान दिया जाता था।
सावित्री
गृहयसूत्रों के अनुसार यह संस्कार उपनयन के तुरंत बाद या उपनयन के 3 वर्ष के बाद तक की अवधि में किसी भी समय संपन्न हो जाता था यह कार्य ब्रह्मचर्य आश्रम के रूप में नियोजित था।
समावर्तन
शिक्षा समाप्ति के पश्चात जब ब्रह्मचारी अपने घर की ओर प्रस्थान करता था तब यह संस्कार किया जाता था ।इसकी अवधि तभी मानी जाती थी जब ब्रह्मचारी वेद का अध्ययन पूर्ण कर लेता था। शिक्षा पूरी होने के बाद समावर्तन संस्कार किया जाता था इस अवसर पर आचार्य विद्यार्थी को सुंदर वस्त्र आभूषण दर्पण जल पुष्प आदि प्रदान करता था यज्ञ होम किया जाता था और यह कामना व्यक्त की जाती थी कि नव स्नातक को अधिकाधिक शिष्य प्राप्त होंगे।
विवाह
विवाह समस्त संस्कारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है जिससे व्यक्ति को नई सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति प्रारंभ होती है व्यक्ति का गृहस्थ आश्रम में प्रवेश विवाह संस्कार से ही होता है इस संस्कार द्वारा ही मनुष्य सामाजिक हो जाता है औरपरिवार और समाज के प्रति उसके नए दायित्व प्रारंभ हो जाते हैं और वह सामाजिक कर्तव्यों के प्रति कार्यशील हो जाता है। विवाह गृहस्थ जीवन का प्रथम मूल था। हिंदू विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना गया है संस्कार से अंतर शुद्धि होती है शुद्ध अंतःकरण में तत्वज्ञान व भागवत प्रेम उत्पन्न होता है। मनुष्य के ऊपर देव ऋण ऋषि ऋण एवं पित्र ऋण यह तीनों रेड होते हैं यज्ञ आदि से देवॠण, स्वाध्याय से ऋषि ऋण एवं विवाह करके पितरों के श्राद्ध तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी संतान उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है।
अंत्येष्टि
मनुष्य के मरने के पश्चात उसके पार्थिव शरीर की दशक्रिया की जाती थी तब उसे अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता था जो उसके जीवन का अंतिम संस्कार होता था इस संस्कार की क्षमता में यह निहत्था की मृत प्राणी परलोक में शांति लाभ करेगा। पुराणों के अनुसार मृत शरीर को स्नान कराकर पुष्पमाला से विभूषित करके जलाशय में स्नान कर जला अंजलि अर्पित करने चाहिए और शौच के अंत में विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए मत्स्य पुराण में तीन प्रकार की अंत्येष्टि क्रिया का वर्णन किया गया है सबको जलाना सबको गाना और शव को फेंकना शवदाह के बाद सूतक की अवधि शुरू हो जाती थी जो सभी के लिए साधारण 13 दिन की होती थी ब्राह्मणों को 10 दिन तक क्षत्रिय को 12 दिन तक विश्व को 15 दिन तक और शुद्र को 30 दिन तक अशौच रहता था ।पिंडदान ,श्राद्ध कार्य और ब्राह्मण भोजन के पश्चात मृतक का परिवार शुद्ध माना जाता था यह सभी कार्य मंत्रों द्वारा संपन्न किए जाते थे। हिंदू परिवारों में आज भी अंत्येष्टि संस्कार इसे विधि विधान से संपन्न किया जाता है। शब्दा, सूतक , पिंडदान ,श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन आदि सभी कार्य आधुनिक युग में भी किए जाते हैं।
संस्कार मनुष्य के जीवन के क्रमिक विकास का व्यवस्था अनुशासित एकनिष्ठ और समग्र रूप है। संस्कारों से उसका आचरण चरित्र कर्तव्य एवं आध्यात्मिक सामाजिक कारण प्रभावित होते हैं अतः संस्कार जीवन को गतिशीलता प्रदान करते हुए मनुष्य के विभिन्न कर्मों को जीवंत बनाते हैं। वर्तमान समय में पाश्चात्य प्रभाव के फल स्वरुप आज कुछ संस्कारों का प्रचलन बंद हो गया है मुंडन उपनयन विवाह और अंत्येष्टि जैसे संस्कारों को छोड़कर अन संस्कारों का हिंदू समाज में लोप होता दिखाई दे रहा है।

डा• ऋतु नागर

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