दूर से आती सुरीली बाॅंसुरी की आवाज़,
उस आवाज को सुन अपनी व्यस्तता के बीच,
बरबस ही झरोखें की ओर घूम जाती हूॅं,
गाड़ियों की घर्र- घर्र की आवाजों के मध्य,
उसकी बाॅंसुरी की धुन सुकून का अहसास कराती ,
कभी-कभी चाय की चुस्कियों के बीच, चाय का ज़ायका बढ़ा देती,
बाॅंसुरी वाला हर रोज़,
अपनी बाॅंसुरी की मधुर धुन सुनाता,
निकल जाता अपनी रोज़ी कमाने ,
ढेर सारी रंग- बिरंगी बाॅंसुरी,
देखती हूॅं दूर से जाते उसे,
साथ में हैं दो बच्चे भी उसके,
छोटी-छोटी बाॅंसुरी हाथ में लिए,
बीच-बीच में रुककर ,
कातर दृष्टि से राहगीर देखते हुए,
कंठ सूख रहा उनका,
दो घूंट पानी पीकर,
चल पड़ते अपने पिता का साथ देते हुए,
कितना स्वाभिमान है उनमें,
अपनी विवशता किसी को दिखने न देते,
पिता की सिखाई राह पर चलते हुए,
मधुर सुर में बाॅंसुरी बजाते हुए,
अपना कल बेहतर बनाने के लिए।
डॉ• ऋतु नागर