भृगु संहिता में ज्योतिष ही नहीं, भुगोल का भी विश्लेषण

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भृगु का ज्ञान हमेशा कुछ परिवारों तक ही सीमित रहा

 भृगु पद्धति को  हिन्दू ज्योतिष की सबसे रहस्मय और कठिन शाखा माना जाता है। पाराशरी, जैमिनी और ताज‌िक पद्धतियों की भांति भृगु की शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती। भृगु पद्धति तर्कसंगत न होकर दैवीय शक्ति में विश्वास और साधना के बल पर आधारित है। इस कारण से भृगु का ज्ञान हमेशा कुछ परिवारों तक ही सीमित रहा है। पंजाब के होशियारपुर, उत्तर प्रदेश में मेरठ, वाराणसी और प्रतापगढ़, मध्यप्रदेश के सागर, उड़ीसा के गंजम और राजस्थान के करोई में भृगु पद्धति से भविष्यवाणी करने वाले कई ज्योतिषियों के परिवार हैं। इसके अतिरिक्त पुणे, दरभंगा (बिहार), कुरुक्षेत्र और बेंगलुरु में भृगु संहिता की दुर्लभ प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियां संरक्षित हैं। कुछ वर्ष पूर्व में मुम्बई, अहमदाबाद, पटना और कोलकाता में भी भृगु शास्त्रियों के परिवार थे किन्तु अब वहां इस परंपरा से भविष्यवाणी करने वाले कम ही ज्योतिषी रह गए हैं।
विश्वभर में हुए शोधों से सत्य उजागर
भार्गववंश के मूलपुरुष महर्षि भृगु जिनको जनसामान्य ॠचाओं के रचईता एक ॠषि, भृगुसंहिता के रचनाकार,यज्ञों मे ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है।परन्तु इन भार्गवों का इतिहास इस भूमण्डल पर एशिया,अमेरिका से लेकर अफ़्रीका महाद्वीप तक बिखरा पड़ा है।
7500 ईसापूर्व प्रोटोइलामाइट सभ्यता से निकली सुमेरु सभ्यता के कालखण्ड मे जब प्रचेता ब्रह्मा बने थे। यहीं से भार्गववंश का इतिहास शुरु होता है।महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था । अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम अंगिरा था। प्रोटोइलामाइट सभ्यता के शोधकर्ता पुरातत्वविदों डा. फ़्रैकफ़ोर्ट,लेंग्डन,सर जान मार्शल और अमेरिकी पुरातत्वविद् डा. डी. टेरा ने जिस सुमेरु-खत्ती-हिटाइन-क्रीटन सभ्यता  को मिश्र की मूल सभ्यता बताया है,वास्तव में वही भार्गवों की सभ्यता है। प्रोटोइलामाइट सभ्यता चाक्षुष मनुओं और उनके पौत्र अंगिरा की विश्वविजय की संघर्ष गाथा है।
महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ,उस समय इनके पिता प्रचेता सुषानगर जिसे कालान्तर मे पर्शिया,ईरान कहा जाने लगा इसी भू-भाग के राजा थे। इस समय ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता के पास उनकी दो पत्नियां रह रहीं थी।पहली भृगु की माता वीरणी दूसरी उरपुर की उर्वसी जिनके पुत्र वशिष्ठ जी हुए।       
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए,इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी।दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्ही भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है।
भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी की तीन संताने हुई,दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था । च्यवन ॠषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाडी के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ । ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (वर्तमान उप्र राज्य का गाजीपुर जिला)के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोडे दहेज मे देकर किया । पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य)के साथ किया । इन शादियों से उनका रुतबा भी काफ़ी बढ गया था।

महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य मे (वर्तमान उप्र का बलिया जिला)आने के पौराणिक ग्रन्थों मे दो कथानक मिलते है, भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणूका के पति भगवान विष्णु मे वर्चस्व की जंग छिड गई,इस लडाई मे महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया । क्रोधित विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला,इस पारिवारिक झगडे को आगे नही बढ्ने देने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया,और वह धर्मारण्य मे आ गए ।
दूसरी कथा पद्मपुराण के उपसंहार खण्ड मे मिलती है, जिसके अनुसार मन्दराचल पर्वत पर हो रही यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया । भगवान शंकर की परीक्षा के लिए भृगु जी जब कैलाश पहुँचे,उस समय शंकर जी अपनी पत्नी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे,शिवगणों ने महर्षि को उनसे मिलने नही दिया,उल्टे अपमानित करके कैलाश से भगा दिया।आपने भगवान शिव को तमोगुणी मानते हुए,शाप दे दिए कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। यहॉ से महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक पहुँचे वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे,सोचा पुत्र ही तो है,मिलने के लिए आया होगा । महर्षि का सत्कार नही हुआ,तब नाराज होकर इन्होने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए,शाप दिया कि आपकी कही पूजा ही नही होगी। क्रोध मे तमतमाए महर्षि भगवान विष्णु के श्रीनार (फ़ारस की खाडी )पहुचे,वहाँ भी विष्णु जी क्षीरसागर मे विश्राम कर रहे थे,उनकी पत्नी उनका पैर दबा रही थी। क्रोधित महर्षि ने उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया । भगवान विष्णु ने महर्षि का पैर पकड लिया, और कहा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर मे चोट तो नही लगी।महर्षि प्रसन्न हो गए और उनको देवताओ मे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया।
कथानक के अनुसार महर्षि के परीक्षा के इस ढग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य मे तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए बलिया के गंगातट पर जाने का आदेश दिया । इस प्रकार से भृगु मुनि अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर सुषानगर (ईरान )से बलिया आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल खोला,उस समय यहां के लोग खेती करना नही जानते थे , उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया।
यही रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना किया। कालान्तर मे अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हे यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहां प्रवाहित हो रही गंगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को यहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया। जिसकी स्मृति मे आज भी यहां ददरी का मेला लगता है। महर्षि भृगु के वंशजों ने यहां से लेकर अफ़्रीका तक राज्य किया । जहाँ इन्हे खूफ़ू के नाम से जाना गया ।यही से मानव सभ्यता विकसित होकर आस्ट्रेलिया होते हुए अमेरिका पहुची,अमेरिका की प्राचीन मय-माया सभ्यता भार्गवों की ही देन है।
प्रस्तुति- महेंद्र ईरूल, वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ
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