ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा अनंत है, वह सहज भी भक्त पर प्रसन्न हो जाते हैं। हर मनुष्य को इस क्ष्ोत्र की यात्रा आवश्य करनी चाहिए। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन से लौकिक व पारलौकिक दोनों तरह के उत्तम फलों प्राप्ति होती है। भगवान शिव की कृपा से अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष के सभी साधन भक्त के सहज और सुलभ हो जाते हैं। अंतत: जीव शिव लोक को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है। भगवान शंकर भक्त पर अकारण ही कृपा करते है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन से जीव के सौभाग्य के द्बार खुल जाते हैं। उनके लिए पुण्य के मार्ग सदा-सदा के लिए खुल जाते है। शिव पुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है।
ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश में पावन नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा नदी दो धाराओं में विभक्त हो जाती है। इनके बीच में एक टापू बना हुआ है, इस टापू को मान्धाता पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी धारा दक्षिण की ओर होकर बहती है। दक्षिण वाली धारा ही मुख्य मानी जाती है। मान्धाता पर्वत पर ज्योतिर्लिंग स्थापित है। पूर्व समय में महाराजा मान्धाता ने इसी पर्वत पर घोर तप किया था और भगवान शिव को प्रसन्न किया था। इसी वजह से इस पर्वत को मान्धाता पर्वत कहा जाने गला। इस ज्योतिर्लिंग के मंदिर में दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। यहां अंध्ोरा होने के कारण यहां हमेशा प्रकाश जलता रहता है।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है, वरन प्राकृतिक है। इसके चारों ओर जल भरा रहता है। सम्पूर्ण मान्धाता पर्वत ही शिव का रूप माना जाता है। यहीं वजह है कि इसे शिवपुरी कहा जाता है। लोग भक्ति पूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं। कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन हयां मेला लगाने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। यहां लोग भगवान शिव को चने की दाल चढ़ाते हैं। रात्रि की शयन आरती का कार्यक्रम भव्य रहता है। इस ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दो स्वरूप है। एक को अमलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा नदी के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोडृी दूरी पर है। पृथक होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है।
लिंग के स्वरूप को लेकर पुराणों में कथा वर्णित है, जिसके अनुसार एक बार विन्ध्य पर्वत ने पार्थिव अर्चना के साथ यहां भगवान शिव की छह महीने तक कठिन तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और प्रत्यक्ष दर्शन दिए। उन्होंने विन्ध्य को मनोकूल वर प्रदान किया। विन्ध्याचल की इस वर प्राप्ति के मौके पर यहां बहुत से ऋषि और मुनि उपस्थित थ्ो। उनकी विनती पर भगवान शंकर ने लिंग को दो भागों मंे विभक्त कर दिया।इ तब एक भाग का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का नाम अमलेश्वर रखा गया। पुराणों में कहा गया है कि दोनों लिंग पृथक-पृथक होते हुए भी एक ही स्वरूप है। श्री ओंकारेश्वर और श्रीअमलेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा स्नान के पावन फल का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
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