जन्माष्टमी की पावन व्रत कथा व विधान, पापों से निवृत्ति और सुख वृद्धि देते हैं 16 कला अवतारी श्री कृष्ण

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भगवान विष्णु ने द्बापर युग में श्री कृष्ण के रूप में अवतार लिया था, श्री कृष्ण भगवान ने 16 कलाओं से युक्त अवतार किया जाता है।

जन्माष्टमी में व्रत-पूजन करने से अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है। भाद्रपक्ष कृष्णा अष्टमी को रात्रि के प्रहर में बारह बजे मथुरा नगरी में भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया था। मथुरा नगरी के कारागार में वसुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से षोडश कलावतार भगवान श्री कृष्ण ने लिया था। इस तिथि को रोहिणी नक्षत्र का विशेष महत्व है। इस दिन श्रीमद् भागवत में वर्णित श्री कृष्ण की बाल लीलाओं के श्रवण और पठन-पाठन का विशेष महत्व है। रात्रि में जागरण कर भक्त अपनी श्रद्ध भगवान श्री कृष्ण को अर्पित करते हैं। जन्माष्टिमी के दूसरे दिन दधिकांदो या नंदोत्सव मनाया जाता है। भगवान को कपूर, हल्दी, दही और केसर चढ़ाकर लोग परस्पर छिड़कते हैं। मिष्ठान का वितरण करते हैं।

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जन्माष्टमी की पावन व्रत कथा

सत्य युग में प्रतापी राजा केदार हुआ करते थे। उनकी पुत्री का नाम वृंदा था। वृंदा ने आजीवन कौमार्य व्रत धारण कर यमुना तटर पर कठिन तपस्या शुरू कर दी। तपस्या से भगवान प्रसन्न हुए और उसे दर्शन दिए। उन्होंने वृंदा को वर मांगने के लिए कहा। वृंदा ने भगवान को पति रूप में उनसे मांग लिया। भगवान उसे स्वीकार कर अपने साथ ले गए। इस कुमारी ने जिस वन में तपस्या की थी, वहीं आजकल वृंदावन के नाम से जाना जाता है। यमुना के दक्षिण तट पर मधु दैत्य मधुपुरी नगर बसाया था। उसे अब मथुरा के नाम से जाना जाता है। यहां द्बापर के अंत में इस मथुरा नगर में उग्रसेन राजा राज्य करते थे। उग्रसेन के पुत्र कंस ने उनका राज्य छीन लिया और स्वयं वहां शासन करने लगा। कंस की बहन देवकी का विवाह यादव वंशी वसुदेव जी से हुआ, जब वे जा रहे थे, तभी आकाशवाणी हुई कि जिस बहन देवकी को तू प्रेम से विदा कर रहा है, उसी देवकी के आठवें गर्भ से जो बालक जन्म लेगा, वह तेरा काल होगा।

इस पर कंस वसुदेव जी को मारने लगा, तब देवकी जी ने विनती की कि गर्भ से जो संतान होगी मैं उसे तुम्हें सौप दूंगी। मेरे पति को मत मारें। उसने देवकी और वसुदेव को मथुरा के कारागार में कैद कर लिया। देवकी के गर्भ से पहला बच्चा हुआ, वह कंस के सामने लाया गया, कंस ने आठवें गर्भ पर विचार कर उसे छोड़ दिया, तभी वहां देवर्षि नारद जी पहुंच गए। उन्होंने कहा कि क्या मालूम यही आठवां गर्भ हो। इस पर कंस विचलित हो गया और उसने बालक को मार डाला। इस तरह से कंस ने देवकी के सात बालकों को निर्दयता से मार डाला। आठवें गर्भ की सूचना मिलने पर कंस ने उन्हें विशेष कारागार में डाल दिया। जहां द्बारों पर ताले लगा दिए। भादों के कृष्णपक्ष की अष्टमी को राहिणी नक्षत्र में श्री कृष्ण ने अवतार लिया। उस समय मध्य रात्रि थी और सभी सो रहे थे। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। तभी वसुदेव की कोठरी में अलौकिक प्रकाश छाया। उन्होंने देखा कि शंख, चक्र गदा और पद्मधारी चतुर्भुज भगवान उनके सामने प्रकट हुए। उनके दिव्य व अलौकिक रूप को देखकर देवकी व वसुदेव उनके चरणों में गिर गए। तब भगवान ने कहा कि अब मैं बालक रूप में प्रकट होता हूं, तुम मुझे तत्काल गोकुल में नंद के यहां पहुंचा दो। उनके यहां अभी-अभी कन्या ने जन्म लिया है। मेरे स्थान की पूर्ति के लिए उसे कंस को सौप देना। हालांकि इस प्रकृति विकराल रूप में है, लेकिन जब तुम्हें लेकर जाओंगे तो कारागार के द्बार स्वत: खुल जाएंगे और पहरेदार सोते रहेंगे। मार्ग में यमुना भी तुम्हें मार्ग देगी। वसुदेव नवजात शिशु को छाल में रखकर उसकी समय चल दिए। मार्ग में जमुना ने उमड़-उमड़ कर भगवान श्री कृष्ण के चरणों को स्पर्श किया। जलचर भी भगवान श्री कृष्ण के चरणबिंद की ओर आकर्षित होकर आते रहे। गोकुल पहुंचकर वसुदेव जी नंद जी के घर पर पहुंचे। वहां उन्होंने नंदरानी के बगल में सो रही कन्या को उठा लिया और श्री कृष्ण को उनके स्थान पर सुला दिया। इसके बाद वसुदेव जी कन्या को लेकर कारागार पहुंचे। तब कन्या का रोना सुनकर पहरेदार भी जाग गए। उन्होंने कन्या का समाचार कंस को सुनाया। कंस कारागार में पहुंचा और कन्या को पकड़कर शिला पर पटकना चाहा तो वह कन्या उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई और कहा कि मुझे मारने से तुझे क्या लाभ होगा? कंस तेरा शत्रु को गोकुल में सुरक्षित है। यह सुनकर कंस चकित रह गया। इसके बाद कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए तमाम कुचक्र रचे और राक्षसों को श्री कृष्ण को मारने के लिए भ्ोजा। श्री कृष्ण ने अलौकिक लीलाए कर सभी राक्षसों को मार कर कंस को असफल कर दिया। फिर बड़े होने पर कंस को मार कर उग्रसेन को राजगद्दी पर बिठाया। अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को भी कारागार से मुक्त कराया।

जन्माष्टमी व्रत पूजन विधान 

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि के समय वृष के चन्द्रमा में हुआ था। यह व्रत भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को किया जाता है, इसलिए अधिकांश उपासक उक्त बातों में अपने अपने अभीष्ट योग का ग्रहण करते हैं । शास्त्र के अनुसार, इसके शुद्धा और विद्धा दो भेद है । उदय से उदयपर्यन्त और तद्गत सप्तमी या नवमी से विद्धा होती है । शुद्धा या विद्धा भी – समा, न्यूना या अधिकाके भेद से तीन प्रकारकी हो जाती हैं और इस प्रकार अठारह भेद बन जाते हैं, लेकिन सिद्धान्त रूप में तत्कालव्यापिनी ( अर्धरात्रिमें रहनेवाली ) तिथि अधिक मान्य होती है । वह यदि दो दिन हो – या दोनों ही दिन न हो तो ( सप्तमीविद्धा को सर्वथा त्याग कर ) नवमी विद्धा का ग्रहण करना चाहिये । यह सर्वमान्य और पापन्घव्रत बाल, कुमार , युवा और वृद्ध – सभी अवस्था वाले नर – नारियों करने योग्य है । इससे उनके पापों निवृत्ति और सुखादि वृद्धि होती है । जो इसको नहीं करते , उनको पाप होता है । इसमें आष्टमी उपवास पूजन और नवमी ( तिथिमात्र ) पारणा व्रत पूर्ति होती है ।

विधान 

व्रत करने वाले को चाहिये कि उपवास पहले दिन लघु भोजन करे । रात्रि जितेन्द्रिय रहे और उपवासके दिन प्रातःस्रानादि नित्यकर्म करके सूर्य , सोम , यम , काल , सन्धि , भूत , पवन , दिक्पति , भूमि , आकाश , खेचर , अमर और ब्रह्म आदि नमस्कार करके पूर्व या उत्तर मुख बैठे, हाथमें जल , फल , कुश , फूल और गन्ध लेकर ममाखिलपापप्रशमनपूर्वकसर्वाभीष्टसिद्धये श्रीकृष्णजन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये ‘ यह संकल्प करे और मध्याह्नके समय काले तिलो के जल स्नान करके देवकीजी के लिये ‘ सूतिकागृह ‘ नियत करे । उसे स्वच्छ और सुशोभित करके उसमें सूतिका के उपयोगी सब सामग्री यथाक्रम रखे । सामर्थ्य हो तो गाने – बजाने का भी आयोजन करे । प्रसूतिगृह के सुखद विभाग में सुन्दर और सुकोमल बिछौनेके सुदृढ़ मञ्च पर अक्षतादिका मण्डल बनवा कर उसपर शुभ कलश स्थापन करे और उसीपर सोना , चाँदी , ताँबा , पीतल , मणि , वृक्ष , मिट्टी या चित्ररूपकी मूर्ति स्थापित करे । मूर्ति में सद्यःप्रसूत श्रीकृष्णको स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किये हुए हों – ऐसा भाव प्रकट रहे । इसके बाद यथासमय भगवान के प्रकट होनेकी भावना करके वैदिक विधिसे , पौराणिक प्रकारसे अथवा अपने सम्प्रदायकी पद्धतिसे पञ्चोपचार , दशोपचार , षोडशोपचार या आवरणपूजा आदिमें जो बन सके वही प्रीतिपूर्वक करे । पूजनमें देवकी , वसुदेव , वासुदेव , बलदेव , नन्द , यशोदा और लक्ष्मी – इन सबका क्रमशः नाम निर्दिष्ट करना चाहिये । ” अन्त में ‘ प्रणमे देवजननीं त्वया जातस्तु वामनः । वसुदेवात् तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः ॥ सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं मे गृहाणेमं नमोऽस्तु ते । ‘ से देवकीको अर्घ्य दे और ‘ धर्माय धर्मेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः । ‘ से श्रीकृष्णको ‘ पुष्पाञ्जलि ‘ अर्पण करे । तत्पश्चात् जातकर्म , नालच्छेदन , षष्ठीपूजन और नामकरणादि करके ‘ सोमाय सोमेश्वराय सोमपतये सोमसम्भवाय सोमाय नमो नमः । ‘ से चन्द्रमाका पूजन करे और फिर शंख में जल , फल , कुश , कुसुम डालकर दोनों घुटने जमीन में लगावे और ‘ क्षीरोदार्णवसंभूत अत्रिनेत्र समुद्धव । गृहाणार्घ्यं शशाङ्केमं रोहिण्या सहितो मम ॥ ज्योत्स्नापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते । नमस्ते रोहिणीकान्त अर्घ्य मे प्रतिगृह्यताम् ॥ ‘ से चन्द्रमाको अर्घ्य दे और रात्रिके शेष भागको स्तोत्र पाठादि करते हुए बितावे । उसके बाद दूसरे दिन पूर्वाह्नमें पुनः नानादि करके जिस तिथि या नक्षत्रादिके योगमें व्रत किया हो उसका अन्त होने पर पारणा करे । यदि अभीष्ट तिथि या नक्षत्रादिके समाप्त होनेमें विलम्ब हो तो जल पीकर पारणा की पूर्ति करें।

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