सनकादि के तप: प्रभाव से शंकर की समाधि में क्षोभ हुआ। वह जाग्रत अवस्था में आकर विचार करने लगे- ओह, सनकादि मुनि कुमार गुरु के लिए सहस्त्रों वर्षो से तप कर रहे हैं। उनकी अभिलाषा पूर्ण करनी चाहिए। उनकी भावना को भी परिमार्जित करना है। सनकादिकों को अनादि होने का गर्व है। वे विचार करते हैं कि सृष्टि में सबसे अनादि होने के कारण वे सबसे वृद्ध हैं। वृद्धायु अल्पायु को गुरु कैसे बनावे? उनके इस भाव को मिटाने के लिए मुझे बाल रूप में दर्शन देना है तथा उनमें बैखरी वाणी की प्रधानता है। अत: परावाणी की जाग्रत करके स्वरूपस्थिति करवाना है। ऐसा विचार कर भगवान शंकर जी अपने आसन से चल दिए।
स्फटिक शिला पर आसीन चारों वेद स्वरूप अग्नि सदृश तेजस्वी सनकादिकों के हृदय में आज विश्ोष रूप से आनंद की सरिता बह रही थी। उनक मन अभूतपूर्व विलक्षण सुखानुभूति कर रहा था। गहन ध्यान भी उपर उछल रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो आज उनका साध्य परमश्रेय प्राप्त हो रहा है। सहसा मुनियों के हृदय में एक शुभ्र धवल ज्योत्सना प्रकट हो गयी। नेत्र खोलने पर भी वहीं ·िग्ध चंद्रिका सन्मुख थी। सनकादिकों ने देखा- सामने श्वेत शिला पर परम शांति का साकार स्वरूप शत-शत ज्योत्सनाओं एक साधनीभूत दिव्य ज्योति बालक रूप में उपविष्ट है। उन्होंने निश्चय कर लिया कि हमारी तपस्या से सदगुरु का प्रकटीकरण हो चुका है। नेत्रवृन्ति से निकल कर सनकादि गुरु के चरणों पर गिर पड़े। सुध बुध विस्मृत कर एक आपार आनंद में डूब गए असंख्य वर्षों की साधनाएं सिद्ध हो गयीं। वे भगवान भूतभावन शंकर की शोभा निरखने लगे।
ज्ञानमुद्रा में सिद्धासनस्थ, चंद्रवदन बाल रूप शंकर समुपस्थित है। स्कन्धपूरित जटायें। कामदेव की भस्म की विभूति से लावण्यमय शरीर विभूषित है। मुखमंडल पर मधुर मुस्कान की क्रीड़ा, अरुण कमल नय कृपा की वर्षा करते हुए बाल शिव मौन होते भये मानो परावाणी से ही उपदेश कर रहे हों। कैलाश की मेखला में सरोवर के सन्मुख शांत वातावरण में, प्रकृति के उन्मादीह्वास में, हिम के वैभव विलास में, स्फटिक शिला पर आसीन शंकर की शोभा अवर्णनीय थी। स्वच्छ मानसरोवर में शिव समेत शंकर का प्रतिबिम्ब शिव की व्यापकता को द्योतित कर रहा था।
कैलाश पर प्रकट शिव ऐसे प्रतीत हो रहे थ्ो, मानो जलमग्न तपस्या करने पर कैलाश के हृदय से ज्ञान प्रकाश उद्भूत हो गया हो। सनकादिकों ने आदि गुरु शंकर की मन ही मन स्तुति की और उनकी ओर दृष्टिमात्र से शिव द्बारा दी जाने वाली परावाणी में उपदेश को श्रवण भाव से ग्रहण करते हुए चारों मुनिकुमारों ने गुरु के अरुण चरण नख ज्योति से अपने हृदय को देदीप्यमान बना लिया। कटितट पर नागों से अवनद्ध बाघाम्बर की शोभा से उनके हृदय में आपार साहस का प्राकटñ हुआ। नीलमणि सा देदित्यमान कंठ दर्शन से वे पूर्ण रूप से आश्वस्त हो गए थ्ो। संसार का अविद्या रूर्पा विष पान करने वाले नीलकंठ अब हमारी अविद्या का विषपान करेंगे।
भान पर धवल चंद्र की इंदुरेखा की सुषमा विलोक सनकादिक शोक विमुक्त हो चुके थ्ो। आत्म समर्पण करने वाले को चंद्रवत् शिव का शीर्ष स्थान प्राप्त होता है। यह विचार आते ही उन्होंने श्री सद्गुरु चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया। आनन्द विभोर मुनियों ने शिव शीर्ष की गंग तरंग को देखा। जो हृदय सद्गुरु को समर्पित कर दिया जाता है। उसमें ज्ञान गंगा का प्रवाहित न होना असम्भव है। सनकादिकों के अंत:करण में ब्रह्म विज्ञान का स्त्रोत फूट पड़ा था। ज्ञान तरंगणी लहराने लगी। वे अथाह अनंत अगाध आनंद सिन्धु में निमग्न हो गए। परावाणी बैखरी रूप में प्रादुर्भूत हो गई। स्वयं शंकर ही तद्रूप हो सनकादिकों के हृदय में प्रविष्ट होकर उनके मुख से बोल उठे-
चित्रं बटतरोर्मूले वृद्धा:शिष्या गुरुर्युवा।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु क्षीण सशंया।।
वे चारों मुनिकुमार सद्गुरु के पावन चरणों में गिर पड़े। परन्तु शंकर तो अंतध्र्यान थ्ो। सनकादिक पूर्ण हो गए। कृत-कृत्य हो गये। युग-युग की साधनाएं सिद्ध हो चुकी थीं। जीवन का साफल्यलब्ध हो गया था। पुलकित शरीर, आनन्द रस नयनों से छलकाते हुए सनकादिक प्रेमविभोर हो पड़े।
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उन दिनों नारद विवाह की आकांक्षा में थ्ो और श्री हरि ने उसमें विघ्न डाला था। भगवान विष्णु को शाप देने के उपरान्त नारद को परमक्लेश हुआ। वह विचार करने लगे- ओह, मैने क्या किया?
मेरी बुद्धि कैसी हो गयी? जीवन भर कठिन तप का क्या यही फल है? पराभक्ति की क्या यहीं पराकाष्ठा है? प्रभु ने मुझ अधम का उद्धार ही किया, कुझे हीन समझ कर शरण में लिया। स्वामी ने तो अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभाया, मुझा अभागे का नरक से उद्धार किया, परन्तु मैने उसका क्या प्रत्युत्तर दिया? ओह, यह कैसी कृतज्ञता है मेरी? अपने सेवक होने का कितना विभत्स रूप दिखाया अपने प्रभु को? परम दयालु, पतित पावन, अशरण- शरण प्रभु का अनादर किया, अपमान किया। हा, मेरी बुद्धि को धिक्कार है। ओह, उस समय की स्मृति अब शल्य बन गई। अपने प्रभु को क्रोधान्ध होकर कटु शब्द कह रहा था और करुणा वरुणालय प्रभु मुस्करा रहे थ्ो। हा, उस मुझ पर प्रभु का तीक्ष्ण चक्र क्यों नहीं चल पड़ा। आज मुझे, मेरे हृदय में संताप की ज्वाला जलती दिखाई दे रही है। इस प्रकार परम उदिग्न होकर नारद जी उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।
नारद के हृदय में अशांति का सागर उमड़ रहा था। उनका मन शांति के लिए व्याकुल था। यद्यपि वे परम विद्बान और वेदों के ज्ञाता थे। उँचें पर्वत की श्रेणियों पर नारद भटक रहे थ्ो शांति की खोज में। शिथिल शरीर का भार सम्हल न पाने के कारण डगमगाते कदम चल रहे थ्ो। तभी कहीं दूर पर उनकी दृष्टि को एक आधार मिला। तुरीयावस्थावस्थित सनकादिक मुनि कुमार आनंद लहरों से सराबोर लहराते चले आ रहे थ्ो। अपने स्वरूप में स्थित सनाकादिकों के मुख्या मंडल पर परमशांति छायी हुई थी। नारद ने उन्हें देखा और पहचानने पर उनकी ओर दौड़ पड़े, कुछ ही क्षणों में सनकादिकों के चरण नारद के आंसुओं से धुल गए। सनकादिकों ने नारद को उठाकर हृदय से लगा लिया और बोले- भक्ताग्तगण नारद, आज यह दशा क्यो? संगीत की स्वर लहरों में करुण क्रंदन कैसे? मधुर मुस्कार के स्थान पर अश्रुधारा क्यों?
सनकादिकों के कथन से नारद ने अधीर होकर रोते-रोते अपनी सारी व्यथा सुनाई। सनकादिकों ने मुस्करा कर कहा- हे नारद, तुमने अशरण शरण प्रभु को आत्म श्ोष बनाकर उपासना की अर्थात उन्हें अपना ही माना। उसी के फलस्वरूप तुम्हे दुख प्राप्त हुआ। जिस समय तुम परम प्रभु को आत्म रूप का श्ोषी बनाकर उपासना करोंगे, उस समय तुम्हें पूर्ण शांति प्राप्त होगी।
नारद तुम ध्ौर्य धारण करो, आवश्य ही तुम्हें परमशांति की प्राप्ति होगी। जब कोई अपने को पतित समझ लेता है, तब उसे उठने में देर नहीं लगती। नारद को कुछ आश्रय मिला, प्रकतिस्थ होकर बोले- ऋषियों, मुझ निराधार की रक्षा कीजिये। हे पतित पावन अशरण शरण मेरा उद्धार कीजिये, मुझे इस अथाह अशांत सागर में डूबने से बचा लीजिये। मैं परम दुखी हूं। सनकादिकों का हृदय द्रवित हो उठा, सुंदर शिला पर बैठकर नारद को परम ज्ञान देने लगे। शंकर से प्राप्त ब्रह्म ज्ञान में सनकादिक तरंगित हो उठे, बोले- हे नारद, शंकर के मुस्कराने से अनंत कोटि ब्रह्मांड आंदोलित होते हैं, जिनके भ्रूभंग मात्र से त्रिभुवन विकम्पित होते हैं। जिनके चित्त प्रसाद से सारा ब्रह्मांड प्रसन्न हो जाता है। उन्हीं शंकर का स्मरण करो।
नारद आशुतोष भवानी पति शिव के स्मरण में निमग्न हो गये। तदोपरान्त चित्त के शांत एवं शुद्ध होने पर नारद को सनकादिकों ने वही ब्रह्म विज्ञान प्रदान किया, जो उन्होंने शंकर से परावाणी में प्राप्त किया था। नारद उस समय ब्रह्म विज्ञान की प्राप्ति कर पूर्ण हो गये। उनके हृदय में आनन्द सिन्धु उमड़ पड़ा। वे वे आत्म तुष्ट होकर पूर्ण महारस में डूबे हुए पर्वतीय रमणीय श्रेणियों में विचरने लगे तथा इस प्रकार इस सृष्टि में गुरु शिष्य परम्परा का प्रदुर्भाव हुआ।
लेखक विष्णुकांत शास्त्री
विख्यात वैदिक ज्योतिषाचार्य और उपचार विधान विशेषज्ञ
38 अमानीगंज, अमीनाबाद लखनऊ
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आभार
1- ब्रह्म विज्ञान संहिता
2- ब्रह्मलीन स्वामी
स्वयं भू तीर्थ जी महाराज
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