स्वयं को ईश्वरीय सत्ता से भिन्न मानना ही दुख का कारण 

0
1010
स्वयं के अस्तित्व को ईश्वरीय सत्ता से भिन्न मानना और स्वयं के अस्तित्व को ही सत्य मानना वास्तव में दुख का कारण होता है,जबकि वास्तविकता यह है कि जीव उस परमसत्ता का अंश मात्र है, जब तक वह स्वयं को उससे पृथक मानता है, या इसकी अनुभूति रखता है, दुखी होता है। इहलोक और उहलोक में दुख को भोगता है, जीवन के इस सत्य को जो मनुष्य जान लेता है, वह इन सुख-दुख के भाव से मुक्ति पा लेता है। मनुष्य का दोष यह होता है, वह मै के भाव में जीता है, यानी उसने यह किया, उसने वह किया। यदि अच्छा किया तो उसका अभिमान होता है और बुरा किया तो उसका क्षोभ होता है, जो उसके सुख-दुख का कारण बनता है।
रामायण के प्रसंग से इस बात की पुष्टि होती है। एक समय की बात है कि माता कैकेयी बहुत दुखी होकर दशरथ नंदन श्री राम के पास आयीं और बोली कि मेरे कारण तुम्हें बहुत दुख भोगना पड़ा। तुम्हें चौदह वर्ष वन में रहना पड़ा। यह अपराध भाव मुझे अब बहुत दुखी कर रहा है। उसके लिए श्री राम मेरे पुत्र तुम मुझे क्षमा कर दो। अब मैं तुम्हारी शरण में हूं, मेेरा उद्धार करो और मेरे अज्ञान को नष्ट कर दो। भगवान राम माता को इतना दुखी देखकर बहुत असमंजस में आ गए और बोले- माता आपने कोई अपराध नहीं किया है, आप व्यर्थ में इतना दुखी हो रही हो, लेकिन यदि आप फिर भीी अज्ञानता से मुक्ति चाहती हैं तो कल सुबह आप लक्ष्मण के साथ एक स्थान पर चली जाइयेगा, मैं लक्ष्मण को आपके साथ भ्ोज दूंगा और आपको सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी।
 
माता कैकयी उस समय विदा करने के बाद श्री राम ने लक्ष्मण जी को बुलाया और बोले कि कल सुबह तुम कैकयी माता को लेकर सरयू तट पर भ्ोड़ों के पास ले जाना। वहां माता को भ्ोड़ों से उपदेश सुनाकर वापस ले आना। अब असमंजस में पड़ने की बारी लक्ष्मण जी की थी। वह हैरान थ्ो कि प्रभु ने माता को भ्ोड़ों के पास ले जाने के लिए आखिर क्यों कहा है? लेकिन भगवान श्री राम का आदेश था, तो उसका पालन तो करना ही था, लिहाजा श्री राम की आज्ञा के अनुसार वे माता कैकयी को लेकर सरयू तट पर पहुंचे, जहां भ्ोड़ें मौजूद थीं। 
माता जब वहां पहुंची और उन्हें पता चला कि राम ने उन्हें भेड़ों से उपेदश प्राप्त करने के लिए कहा है तो वह यह सोच कर और दुखी हो गई कि कहीं राम मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हैं। मन में चल रहे तर्क-वितर्क के बीच कैकेयी को भेड़ों के मुख से कई बार मै-मै- मै की आवाज सुनाई दी। 
माता कैकेयी विचार करने करने लगी कि इस आवाज में ही निश्चित तौर पर कोई रहस्य छुपा है। विचार किया और वह निष्कर्ष पर पहुंच गई कि वह मै का भाव ही है तो उन्हें दुखी कर रहा है। इसके बाद वह लक्ष्मण के साथ सरयू तट से वापस लौट कर राम के पास पहुंची। कैकेयी ने कहा कि राम आज मुझे वास्तविक ज्ञान हो गया। मुझे समझ में आ गया है कि मै- मै यानी मेरा यही सभी तरह के बंधनों का कारण है। इसी मेरा- मेरा की वजह से ही मनुष्य दुख भोगता है और नीच योनियों में जन्म लेता रहता है। इस मैं के भाव से मुक्ति ही मनुष्य को मुक्ति के पथ पर ले जाती हैं। 
 
सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here