सृष्टि में सबकुछ क्षणभंगुर है, जिसका जन्म हुआ है। उसकी मृत्यु पूर्व में ही निर्धारित की जा चुकी है। वास्तव में जन्म और मृत्यु के रहस्य से को सृष्टि में कम ही लोग जानते हैं, मृत्यु केवल अर्ध विराम है, न कि पूर्ण विराम कहा जा सकता है। यह परिवर्तन की ऐसी अवस्था है, जिससे कोई नहीं बच सकता है।
जो लोग मृत्यु विद्या को अधगत करने का प्रयास नहीं करते, वे सचमुच ही अज्ञानी होते हैं। शरीर और इंद्रिया पर निर्भर होने के कारण भौतिकवादी लोग मृत्यु के उपरान्त भी स्थिर रहने वाली आत्मा की सत्ता को समझ नहीं पाते हैं। सत्यद्रष्टा ऋषियों का अनुभव है कि आत्मा का ही एक मात्र अस्तित्व है और वह मन व शरीर से परे है। चेतना ही आत्मा का स्वरूप है। जिस पर मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। साधना से आत्मा का सक्षात्कार किया जा सकता है। बिना साधना के यह आत्म तत्व केवल तर्क-वितर्क का विषय बना रहता है। साधना से मन और बुद्धि को पवित्र करके, इच्छा, आसक्ति और समस्त सांसरिक प्रलोभन से स्वयं को दूर कर लेने के पश्चात साधक अध्यात्म विद्या का अधिकारी बन पाता है। अध्यात्म यात्रा के समय क्रमश: वह कर्म और उसके फल के क्ष्ोत्र को पार कर अमर तत्व को प्राप्त करता है।
मृत्यु से पुष्प भले ही नष्ट हो जाते हो लेकिन बीज यथावत ही बना रहता है। जन्म और मृत्यु, जीवन धारा की दो विशिष्ट अभिव्यक्तियां है। मृत्यु के साथ ही मनुष्य अपने कृत कर्मों के फल को यथोचित रीति से प्राप्त करता है। साधारण मनुष्यों के लिए मृत्यु अपरिहार्य और परम शक्तिशाली है, स्वयं को एकांत निष्ठा के साथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देने वाले साधक के लिए मृत्यु भी दीन हीन हो जाती है। स्वभाव से स्थिर योगी, जन्म और मृत्यु रूपी द्बैतभाव को तृरस्कृत कर जीवन के अनंत और अमर तट पर जा खड़ा होता है।
आत्मा कभी परिवर्तित नहीं होती है और उसका आवागमन भी नहीं होता है। यह नित्य साक्षी और समस्त प्राणियों की अंतरात्मा है। स्वयं अनादि और अनंत होकर भी निखिल ब्रह्मांड का उद्भव स्थल है। आत्मा ही जीवन का सत्य है। इसका उद्भव न तो माता के उदर से होता है और न ही इसकी समाप्ति श्मशान में होती है। हमारे अनंत जीवन काल के मध्य यह व्यक्त वर्तमान जीवन एक क्षण मात्र है और यह पूरा विश्व केवल एक सपना मात्र है। यह स्वप्न के भीतर दृश्यमान जगत में हम मृत्यु से डरे पड़े हैं। जीवन की पूर्णता आध्यात्मिक अर्थों में जाग्रत होकर अपने वास्तविक स्वरूप को जानना है। अपने सत्य स्वरूप के रहस्य को इसी जीवन काल में समाधि की स्थिति में पहुंच कर जाना जा सकता है। समाधि के कई स्तर होते हैं। उच्चतम स्तर को केवल अनुभव किया जा सकता है, वर्णन नहीं।
मृत्यु के लक्षणों को देखकर सच्चा साधक न तो दुखी और भयभीत होता है और न ही ध्यान भजन से विरत हो जाता है। बल्कि एकाग्र चित्त होकर समस्त प्रपंच को छोड़कर साधना में तत्पर हो जाता है। जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं, जब कोई हमारी मदद नहीं कर सकता है। मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य जीव बिल्कुल अकेले रहता है। इसकी वजह यह है कि इस समय में उसकी प्राण शक्ति भी क्रियाशील नहीं होती है। जो जीव इस क्षण के लिए तैयार नहीं रहते हैं, वे अवर्णनीय मानसिक कष्ट भोगते हैं। उस समय भावों को अभिव्यक्त करने का कोई माध्यम भी नहीं रहता है, लेकिन जीवन में आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने वाले साधकों को ऐसी समस्या नहीं होती है और वे नित्य तृप्त और आत्मानंद में निमग्न रहते हैं।