इस अनन्त संसार में हम अनन्त प्राणियों में से एक प्राणी है जिसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति करना है। ज्ञान यह प्राप्त करना है कि हम कौन हैं, कहां से आये हैं, कहां जाना हैं? हमारा अस्तित्व कब से है, यह अस्तित्व कब व कैसे अस्तित्व में आया, इसका भविष्य में क्या होगा? हम अमर हैं या हमारा नाश हो सकता है। संसार में हमारे अतिरिक्त अन्य कौन-कौन सी सत्तायें हैं और हमारा व उनका परस्पर किस प्रकार का सम्बन्ध है? यह भी प्रश्न जानने योग्य होता है कि क्या हमें संसार में सांसारिक पदार्थों का अमर्यादित भोग करना चाहिये अथवा इसकी कोई सीमा रेखा है जिससे हमारा वर्तमान व भविष्य सुख एवं कल्याण से युक्त हो। एक प्रमुख प्रश्न यह भी है कि इस संसार को कब, किसने व क्यों बनाया है? संसार को बनाने वाला वह सृष्टिकर्ता कहां है, दिखाई क्यों नहीं देता? क्या उसे जाना जा सकता है? उसके साथ हमारे क्या सम्बन्ध हैं? सृष्टि में ज्ञान वा भाषा कि उत्पत्ति कब व कैसे हुई? क्या मनुष्य भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकते हैं अथवा यह उन्हें किसी अपौरूषेय सत्ता से प्राप्त हुई है? यह सभी प्रश्न सभी मनुष्यों व सभी मत-मतान्तर के लोगों के लिये जानने योग्य हैं परन्तु सर्वत्र इनका सत्य उत्तर उपलब्ध नहीं होता। इन सभी प्रश्नों का समाधान वेद एवं वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के अध्ययन से होता है।
मनुष्य का आत्मा इतर सभी प्राणियों में विद्यमान आत्मा के ही समान है। इनका अलग अलग योनियों व परिस्थितियों में जन्म होने का कारण इनके पूर्वजन्म के कर्म हैं जिनके अनुसार परमात्मा ने सभी आत्माओं को उनके कर्मानुसार जाति व योनि, आयु व भोग (सुख व दुःख) प्रदान किये हैं। यदि पूर्वजन्म में हमारे कर्म भी मनुष्य योनि की पात्रता के अनुरूप न होते तो हम भी किसी पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि योनियों में से किसी एक योनि में होते। जिस मनुष्य के शुभ कर्म अधिक तथा अशुभ वा पाप कर्म कम होते हैं उन्हीं को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। इसकी साक्षी हमें ईश्वरदर्शी हमारे ऋषि, मुनि, योगी विद्वान पुरुषों से होती है। मनुस्मृति में महाराज मनु ने बताया है कि जब मनुष्य के सद्कर्म वा पुण्य अशुभ कर्मों व पाप कर्मों से अधिक होते हैं तब आत्मा को मनुष्य का जन्म मिलता है अन्यथा आत्मा को मनुष्येतर योनि में विचरण करना होता है जहां पाप कर्मों का फल भोग कर लेने पर पुनः मुनष्य योनि में जन्म मिलता है। यह वैदिक सिद्धान्त सर्वथा तर्क एवं युक्तिसंगत है। संसार के सभी मनुष्यों को इस पर विश्वास करना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मान्यता व सिद्धान्त सत्य नहीं है। इसका कारण यह है कि सत्य एक ही होता है। सभी वैदिक सिद्धान्त सत्य हैं अतः इससे भिन्न व विपरीत कोई भी मान्यता सत्य नहीं हो सकती। हमें यह भी ज्ञात है कि यह ज्ञान परमात्मा ने वेदों में दिया है अतः यही सत्य है।
वैदिक धर्म से हम कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी मिलता है। हम अनादि, नित्य, सनातन, एक स्वल्प परिमाण वाली चेतन सत्ता हैं जो कि अल्पज्ञ है। अल्पज्ञ का अर्थ अल्प ज्ञानवाली सत्ता होना है। आत्मा एकदेशी, ससीम तथा सूक्ष्म होने के कारण अल्प ज्ञान वाली होती है। इसे ज्ञान प्राप्ति के लिये सर्वज्ञ सत्ता की आवश्यकता होती है जो कि संसार में केवल परमात्मा है। परमात्मा भी अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, अविनाशी, अजर, अमर तथा सृष्टिकर्ता है। ईश्वर के सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक होने के कारण ही सभी आत्मायें परमात्मा से व्याप्य हैं और उसी से आत्माओं को ज्ञान व शक्ति तथा सुखों की प्राप्ति होती है। अतः इस विशाल अनन्त ब्रह्माण्ड में हम मनुष्य एक जीवात्मा हैं जिसका आकार सिर के बाल के अग्रभाग के लगभग दस हजारवें भाग के बराबर अनुमान किया जाता है। हमारी आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी, अल्प ज्ञान की सामथ्र्य से युक्त है। ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान को धारण व उसे आचरण में लाकर इसका कल्याण होता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। यह विस्तृत ज्ञान व विधान हमें वैदिक ग्रन्थों में जानने व समझने को मिलते हैं। अतः आत्मा को ज्ञान की प्राप्ति और आत्मा की उन्नति व कल्याण के लिये वेद व वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इससे मनुष्य निभ्र्रान्त ज्ञान को प्राप्त होकर जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाले मोक्ष मार्ग पर चलकर उसे प्राप्त करने में सफल होता है। यही सभी आत्माओं का लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के बाद आत्मा के सभी दुःख दूर हो जाते हैं। इससे आत्मा सर्वव्यापक आनन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होकर उसी में विचरण करते हुए हर पल व हर क्षण आनन्द का अनुभव करता है। मुक्ति में आत्मा अन्य मुक्त जीवों से मिलकर उनका सत्संग आदि भी करता है। यह आत्मा का यथार्थ स्वरूप है व मुक्ति की अवस्था आदि की स्थितियां हैं। हमें यह भी पता होना चाहिये कि हम इस जन्म से पूर्व मनुष्य या किसी अन्य योनि में थे। वहां मृत्यु होने के बाद कर्म विधान के अनुसार परमात्मा ने हमें इस मनुष्य योनि में जन्म दिया है। यहां से भी मरकर हम अपने कर्म संचय के अनुसार पुनः पुनर्जन्म को प्राप्त करेंगे जिसमें हमारी जाति-जन्म वा योनि, आयु एवं सुख-दुःखादि भोगों का निश्चय कर परमात्मा हमको पुनर्जन्म प्रदान करेगा। अनादि काल से यह जन्म-मृत्यु व पुनर्जन्म का चक्र निरन्तर चल रहा है और हम भी संसार में इसको निरन्तर होता हुआ देख रहे हैं।
हमारी आत्मा का अस्तित्व अनादि है। हम आत्मा ही हैं। हमारी कभी उत्पत्ति नहीं हुई है और न कभी हमारा नाश अर्थात् हमारी सत्ता का अभाव होगा। आत्मा जन्ममरण धर्मा सत्ता है। मुक्ति पर्यन्त इसका इसके कर्मों के अनुसार मनुष्य एवं अन्य किसी भी योनि में जन्म होता रहेगा। जन्म व मरण तथा बीच के काल में सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के सुख व दुःख होते हैं। इनसे मुक्त होने का एक ही उपाय है कि वेद की शरण में जाकर वेदानुसार जीवन बीताना, मुक्ति के साधनों सद्कर्मों आदि को करना तथा ईश्वर का साक्षात्कार करने पर मुक्ति को प्राप्त होना। जब तक ईश्वर का साक्षात्कार होकर मुक्ति नहीं होगी तब तक हमारा जन्म निरन्तर होता रहेगा। इसी कारण हमारे पूर्वज ऋषि मुनि आदि मुक्ति के साधन हेतु यौगिक जीवन व्यतीत करते थे। हमें भी उनसे प्रेरणा लेकर तथा ऋषि दयानन्द प्रदत्त ग्रन्थों की सहायता से मुक्ति की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने चाहिये। यदि हमने तत्काल इस पर ध्यान नहीं दिया तो समय व्यतीत हो जाने पर हो सकता है कि हमें सद्कर्मों को करने का अवसर ही प्राप्त न हो। अतः सन्मार्ग को प्राप्त होकर उस पर चलना सभी मनुष्य का कर्तव्य है। इसमें विलम्ब करना हानिप्रद हो सकता है।
संसार में आत्मा के अतिरिक्त अन्य दो सत्तायें और हैं। ये हैं ईश्वर एवं प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप सत्ता है। यह सत्ता अनादि व नित्य है तथा इस सृष्टि का निमित्त कारण है। हमारी यह सृष्टि परमात्मा ने ही बनाई है। उपादान कारण प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। इस सम्पूर्ण रहस्य को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास पढ़ना चाहिये। इससे समस्त भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं। हम आत्मा हैं और परमात्मा से हमारा व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र आदि का सम्बन्ध है। ईश्वर सभी जीवात्माओ का पिता, माता, बन्धु, सखा, मित्र, आचार्य, गुरु, राजा, न्यायाधीक्ष, रक्षक, जन्म व मृत्यु का आधार, वेदज्ञान प्रदाता, संस्कृत भाषा प्रदाता, मुक्ति प्रदाता, शुभ कर्मों का प्रेरक आदि है और यही हमारे उससे सम्बन्ध हैं। अतः हमें उसको जानने के लिये वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय, उसका चिन्तन-मनन-ध्यान-उपासना आदि करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये।
मनुष्य के जीवन का उद्देश्य केवल सुखों की प्राप्ति व उसका भोग करना नहीं है अपितु मनुष्य को अपनी शरीर की आवश्यकताओं यथा भोजन व वस्त्रादि का न्यूनतम उपभोग करते हुए परमार्थ के कार्यों में अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। एक वेदमन्त्र में कहा गया है कि ईश्वर इस संसार में सर्वत्र व्यापक है तथा सभी जीवों के सब कामों को देखता है। यह संसार ईश्वर का है और वह इसका स्वामी है। हमें ईश्वर को जानकर उसका अनुभव करते हुए त्यागपूर्वक पदार्थों आदि का भोग करना है। इसमें लिप्त नहीं होना है। हमें लोभ के वशीभूत न होकर अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना है। इसका कारण यह है कि आवश्यकता से अधिक धन अर्जित करने से कोई लाभ नहीं है। यह सब धन यही छूट जायेगा, साथ नहीं जायेगा। अधिक सुख भोग करने से शरीर भी रोगी होकर दुःखदायी होता है। अतः हमें सुख की सभी सामग्री का त्यागपूर्वक एवं आवश्यकता के अनुरूप व अल्प मात्रा में ही भोग व संग्रह करना है, अधिक नहीं। यही लोक व परलोक में सुख प्राप्त करने का आधार बनता है।
हमें यह भी जानना चाहिये कि इस संसार को परमात्मा ने प्रकृति नामक अनादि जड़ व सूक्ष्म पदार्थ से बनाया है। इस सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। परमात्मा ने यह संसार अपनी अनादि ्रजा जीवों के सुख व उनको उनके पूर्वजन्म व कल्पों के बचे हुए अभुक्त कर्मों के फलों का भोग करने के लिये बनाया है। अनादि काल से सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय का क्रम चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। अनन्त काल तक हमारे जन्म-मरण व मुक्ति का सिलसिला भी चलता रहेगा। बुद्धिमत्ता इसी में है कि सभी मनुष्य जन्म-मरण से छूट कर मुक्ति को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करें। इससे अन्य कोई श्रेष्ठ व महान लक्ष्य जीवात्मा का नहीं है। परमात्मा हमें आंखों से दिखाई नहीं देता है जिसके अनेक कारण हंै। एक कारण यह है कि वह भौतिक पदार्थ नहीं है। वह अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है। जैसे हम संसार में अनेक सूक्ष्म पदार्थों को नहीं देख पाते, उसी प्रकार से ईश्वर भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देता। ईश्वर हमारी आत्मा के बाहर व भीतर व्याप्त हो रहा है। वह हमें प्रेरणा करता रहता है। जब हम कोई बुरा काम करते हैं तो वह हमें उसे करने से रोकता है और जब हम परोपकार व श्रेष्ठ कर्मों को करते व कर रहे होते हैं तो वह हमें उन्हें करने में उत्साहित करता है। इस अवसर पर उसके द्वारा की जाने वाली प्रेरणाओं का हम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। इन प्रेरणाओं से ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। संसार में इस सृष्टि में रचना विशेष को देखकर भी हमें ईश्वर के होने का ज्ञान होता है। संसार एक आदर्श व्यवस्था में चल रहा है, यह भी हमें ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान वा प्रत्यक्ष कराते हैं। यह भी बता दें कि सृष्टि की आदि में परमात्मा ने संस्कृत भाषा एवं वेदों का ज्ञान दिया था। ऋषियों ने सृष्टि में उसी वेदज्ञान का विस्तार किया है। परम्परा से हमें वही वेद व संस्कृत भाषा आज भी प्राप्त है। यदि परमात्मा भाषा व वेदज्ञान न देता तो मनुष्य उसकी रचना व उत्पत्ति नहीं कर सकते। इसके लिये हम परमात्मा के आभारी हैं। वेद व वैदिक साहित्य से सभी प्रश्नों का समाधान मिलता है। हमने कुछ प्रश्नों की चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक इससे लाभान्वित होंगे।
ईश्वर को हम वेद, वैदिक साहित्य, ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश तथा वेदभाष्य आदि अनेक ग्रन्थों के द्वारा जान सकते हैं। ईश्वर की उपासना की विधि भी वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने हमें प्रदान की है। इस विधि से ईश्वर की उपासना कर मनुष्य उसका साक्षात्कार कर मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर को जानने व उसकी उपासना कर अपनी आत्मा व शरीर की उन्नति सहित पारलौकिक उन्नति के लिये भी प्रयत्न करने चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
प्रस्तुति -मनमोहन कुमार आर्य
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