वाह रे! मन, आह रे! मन,
तू भी बड़ा अजीब है,
कभी प्रफुल्लित, कभी मायूस,
बेपरवाह सा घूमता है,
आजाद पंछी की तरह,
उड़कर यहां-वहां चला जाता है,
बचपन की शरारत, यौवन की चूक का एहसास कराता है,
मन ही तो है जो गहरे भेद छुपा, चेहरे पर स्मित लाता है,
मन ही तो है जो मीत से मिलाता है,
मन ही तो है जो हमें तम से उजाले की ओर ले जाता है,
मन ही तो हमें हार से जीत की ओर ले जाता है,
ये मन ही तो है जो उस जगह विचरता है,
जहां हम जा नहीं सकते,
स्मृतियों के अवशेषों में, भविष्य के सपनों में, वर्तमान की आशाओं में,
मन की बात को मानव आसानी से झुठला नहीं पाता,
हां! ये मन ही तो है जो हमें परमेश्वर से मिलाता है।
डॉ. ऋतु नागर
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