ओ३म्: “ईश्वर हमारा माता, पिता और आचार्य भी है”

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ओ३म्
“ईश्वर हमारा माता, पिता और आचार्य भी है”

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय एवं सृष्टिकर्ता है। वह जीवात्माओं के जन्म-जन्मान्तर के कर्मों के अनुसार न्याय करते हुए उन्हें भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म देकर उनको सुख व दुःख रूपी भोग व फल प्रदान करता है। संसार में असंख्य प्राणी योनियां देखने को मिलती है। इन सभी योनियों में मनुष्य योनि ही एक ऐसी योनि है जो उभय योनि कहलाती है। यह कर्म करने की और भोग योनि होने से उभय योनि कहलाती है। मनुष्येतर अन्य सभी योनियां केवल भोग योनियां होती हैं। भोग योनियों में हम अपने पूर्वजन्मों में मनुष्य योनियों में किये हुए पाप कर्मों का फल भोगते हैं और मनुष्य योनि में हमें अपने पूर्वजन्मों के पाप व पुण्य कर्मों का भोग प्राप्त होता है। मनुष्य योनि में पूर्व कर्मों के फलों का भोग करने के साथ हम नये कर्मों को भी करते हैं जिससे हमारी आत्मा सहित शरीर की उन्नति होती है। आत्मा की उन्नति होने पर मनुष्य पुण्य कर्मों को करता है जिससे उसे सुखों की प्राप्ति होती है तथा मृत्यु के बाद अवशिष्ट पुण्य कर्मों के कारण उसे पुनः मनुष्य योनि प्राप्त होती है। परमात्मा अनादि काल से जीवों के लिये प्रत्येक प्रलय काल के बाद सृष्टि को बनाता व उसका पालन करता है। हम सृष्टि काल में जन्म लेकर सृष्टि के पदार्थों का भोग करते हुए अपनी शारीरिक तथा आत्मा की उन्नति के कार्यों सहित ज्ञान प्राप्ति, ईश्वरोपासना, परोपकार व दान आदि कर्मों को करते हैं।

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हम प्रायः विचार ही नहीं करते कि परमात्मा हमारा माता, पिता और आचार्य भी है। परमात्मा के अगणित गुण, कर्म व स्वभाव हैं जिनकी गणना मनुष्य नहीं कर सकते। परमात्मा सब जीवों के माता व पिता सहित आचार्य के कर्तव्यों का निर्वहन भी करता है। माता निर्माता होती है। वह जन्मदात्री व पालनकर्ता भी होती है। वह अपनी सन्तानों को भाषा का ज्ञान कराकर उसे संस्कारों की शिक्षा भी देती है जिससे मनुष्य असुरत्व को त्याग कर देवत्व में दीक्षित होता है। यह सभी कार्य परमात्मा भी सभी जीवों के प्रति सदा से करता आ रहा है। परमात्मा न केवल हमें जन्म देता है अपितु हमारी मृत्यु के समय वही हमारी आत्मा को प्रेरणा कर शरीर से बाहर निकालता है। आत्मा का जो कर्म संचय होता उसे केवल परमात्मा ही जानता है। परमात्मा उस कर्म संचय वा प्रारब्ध के अनुसार जीवात्मा के लिये योग्य माता-पिता का चयन कर उनके द्वारा आत्माओं को जन्म देने के लिये प्रत्येक आत्मा को उसके योग्य पिता व माता के शरीर में प्रविष्ट कराता है। जीवात्मा पहले पिता के शरीर में जाता है, उससे माता में और फिर शिशु का शरीर बनने पर प्रसव द्वारा संसार में आता है जिसे जीवात्मा का जन्म कहते हैं। माता के शरीर में शिशु का शरीर परमात्मा वा उसकी व्यवस्था द्वारा ही बनाया जाता है। शिशु जन्म के बाद भी परमात्मा द्वारा ही उस शिशु की रक्षा व पालन के अनेक उपाय किये जाते हैं। माता तो केवल अपने शिशु को दुग्ध व अन्न खिलाती है परन्तु शरीर में पहुंच कर उस दुग्ध व अन्न से शरीर की वृद्धि, आरोग्यता व बल आदि की प्राप्ति परमात्मा ही कराता है। माता, पिता को जो शरीर मिले हैं व दुग्ध व शारीरिक शक्तियां उनके पास होती हैं, वह सब भी परमात्मा प्रदत्त ही होती हैं। नये बालक बालिकाओं के लिये यह सब व्यवस्थायें परमात्मा द्वारा की गयी होती हैं जिससे परमात्मा माता व पिता दोनों कहलाता है।

माता-पिता बालक को प्राथमिक शिक्षा, ज्ञान व संस्कार देते हैं। यही कार्य जीवात्माओं के अन्तर्मन व शरीर में परमात्मा भी सर्वान्तर्यामी स्वरूप से करता है। परमात्मा ही शुभ कर्मों का प्रेरक होता है। हमारी आत्मा में सत्कर्मों के प्रति जो प्रेम व उत्साह उत्पन्न होता है तथा अशुभकर्मों के प्रति जो भय, शंका व लज्जा होती है, उसे भी परमात्मा ही उत्पन्न करते हैं। परमात्मा ने ही सब जीवों के लिये पिता द्वारा आवास गृह बनाये जाने की भांति इस सृष्टि व भूमि को बनाया है जो हमें आश्रय का सुख देती है। पृथिवी पर परमात्मा ने हमारे लिए वायु, अग्नि, प्रकाश, जल, अन्न, दुग्ध, फल, ओषधियां आदि नाना प्रकार के पदार्थ बनाकर निःशुल्क प्रदान कर रखे हैं। हम अपनी आवश्यकता के अनुसार पृथिवी में अन्नादि पदार्थों को उत्पन्न कर सकते हैं और इनका सेवन कर सकते हैं व अपने प्रियजनों को भी करा सकते हैं। परमात्मा ने ही हमें माता-पिता की भांति सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान दिया था। चार वेद हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। यह चार वेद ज्ञान, कर्म, उपासना नामी त्रयी विद्याओं के ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों का अध्ययन कर बताया है कि वेद सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों व शुभ लक्षणों से युक्त मनुष्य आर्यों का परमधर्म है। वेदाध्ययन कर वेदों के परमधर्म होने की पुष्टि होती है। वेदों में मनुष्य के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का विधान है। कर्तव्य पालन से मनुष्य उन्नति होती है तथा अकर्तव्यों का सेवन करने से मनुष्य निन्दित होता है।

सभी आचार्य अपने शिष्यों को ज्ञान देकर उनके जीवन का कल्याण करते हैं। वस्तुतः मनुष्य ज्ञान व संस्कारों को प्राप्त होकर ही सच्चा व अच्छा ज्ञानी वा विद्वान मनुष्य बनता है। यह कार्य सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देकर किया था। फिर उन ऋषियों ने ईश्वर की प्रेरणा से ही वेदज्ञान को अन्य मनुष्यों में प्रचारित व प्रसारित किया। आज भी यह ज्ञान हमें परम्परा से प्राप्त है। हमारे सभी आचार्य व गुरु भी वेद ज्ञान को पढ़कर ही हमें पढ़ाते व शिक्षा देते हैं। वेदों को पढ़ व पढ़ाकर ही मनुष्य आचारवान बनता है। आचार्य का काम अपने शिष्यों को आचारवान बनाना ही होता है। यह काम परमात्मा व आचार्य दोनों मिलकर करते हैं। सृष्टि में वेद ज्ञान देने व आदि ऋषियों का आचार्य होने के कारण परमात्मा सब मनुष्यों व प्राणियों का आचार्य भी है। मनुष्येतर पशु पक्षी योनियों में सबको परमात्मा ने ही स्वाभाविक ज्ञान दिया है। उसी के दिये ज्ञान से सभी पशु व पक्षी अपने अपने व्यवहार करते हैं। इस दृष्टि से भी परमात्मा ही मनुष्यों व सभी प्राणियों का आचार्य भी सिद्ध होता है।

परमात्मा सब मनुष्यों सहित पशु पक्षियों आदि प्राणियों का भी माता, पिता व आचार्य है। इससे सम्बन्धित चर्चा हमने इस लेख में की है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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