ओ३म्
“मनुष्यों के दो प्रमुख आवश्यक कर्तव्य सन्ध्या एवं देवयज्ञ अग्निहोत्र”
मनुष्य एक मननशील प्राणी है। इसके पास विचार करने तथा सत्य व असत्य का निर्णय करने के लिए परमात्मा से बुद्धि प्राप्त है। जैसी मनुष्यों के पास मनन करने योग्य बुद्धि होती है वैसी मनुष्येतर प्राणियों के पास नहीं होती। इस कारण मनुष्य संसार में अन्य प्राणियों की तुलना में एक भाग्यशाली प्राणी है। मनुष्य को परमात्मा से प्राप्त अपनी इस बुद्धि का अपने जीवन में अधिकाधिक सदुपयोग करना चाहिये। इसका परिणाम उसकी सर्वांगीण उन्नति हो सकती है। भौतिक उन्नति को भी उन्नति कहा जाता है परन्तु यह एकांगी उन्नति होती है। जब तक मनुष्य का ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान उच्च कोटि का न हो और वह इस आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार अपना जीवन न बनायें, तब तक भौतिक उन्नति अधिक अर्थयुक्त नहीं होती। अध्यात्म विषयों के ज्ञान से रहित भौतिक उन्नति करने से मनुष्य का पतन होना सम्भव होता है जो अध्यात्मिक ज्ञान व आचरण से कम होता है अथवा नही होता। अतः सभी को भौतिक ज्ञान व उन्नति सहित आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति करने के लिये वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा सत्पुरुषों से उपदेशों का श्रवण करना चाहिये। मनुष्य जीवन की उन्नति का मार्ग यही है। इसी से मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति अर्थात् शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होना सम्भव होती है।
जो मनुष्य बुद्धि का सदुपयोग ज्ञान प्राप्ति व चिन्तन मनन सहित वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय में करते हैं उनको विदित होता है मनुष्य के प्रमुख कर्तव्य क्या हैं? हमारे प्राचीन ऋषियों ने मनुष्यों के जीवन पर विचार कर यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य को वेदों का स्वाध्याय कर ईश्वर व जीवात्मा सहित संसार को जानना चाहिये। ईश्वर को जानकर हमें हमारे ऊपर ईश्वर के उपकारों का ज्ञान होता है। ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, नित्य और सृष्टिकर्ता सत्ता है। अनन्त संख्या में विद्यमान सत्य व चेतन, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, अनादि, नित्य व अनुत्पन्न जीवात्मायें ईश्वर की सन्तानें व प्रजा हैं। अपनी इस शाश्वत प्रजा के लिये ही ईश्वर एक पिता के समान इस विशाल सृष्टि को बनाता व सृष्टि तथा जीवों का पालन करता है। जीवों को अपने पूर्वजन्मों के कर्माशय के अनुसार जन्म व सुख-दुःख भी परमात्मा से प्राप्त होते हैं। ईश्वर न्यायकारी सत्ता है। अतः वह जीवात्माओं को जन्म देने में किसी के प्रति किसी प्रकार का पक्षपात नहीं करती।
जिस जीवात्मा के पूर्वजन्म में जैसे पाप व पुण्य कर्म होते हैं जिनका भोग करना शेष रहता है, उनके भोग के लिये परमात्मा जीवों को मनुष्यादि अनेक योनियों में जन्म देता है। सभी योनियों में प्राणी जो भोजन ग्रहण करते हैं वह भी परमात्मा ही उत्पन्न कर उपलब्ध कराता है। जीवों को केवल भोजन व अपनी आवश्यकताओं की वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न, पुरुषार्थ व कर्म ही करने होते हैं। मनुष्य को जीवन में जो सुख मिलता है, वह भी परमात्मा की व्यवस्था से ही मिलता है। मनुष्य जब वृद्ध होकर शारीरिक दुर्बलता व किन्हीं रोगों से ग्रस्त हो जाता है, तो परमात्मा ही निर्बल व रोगी शरीर से जीवात्मा को छुड़ाकर जीवात्मा के पुण्य व पाप कर्मों के अनुसार उसे मनुष्य व इतर योनियों में से किसीएक योग्य योनि में जन्म देता है। मनुष्य यदि वेदों का स्वाध्याय करे तो इसे ज्ञान होता है कि सभी जीवों में दुःखों से सर्वथा निवृत्ति की इच्छा व भावना होती है। यह भावना सभी प्राणियों में होती है। इसे जीवात्मा का स्वभाव भी माना जा सकता है। ईश्वर ने इसके लिये ही वेदों का ज्ञान देकर जीवों को सत्कर्मों को करने के लिये ज्ञान देकर प्रेरित किया है जिसको प्राप्त होकर तथा उसके अनुसार आचरण कर जीवात्मा वा मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष को प्राप्त होकर मनुष्य को लगभग 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिये जन्म व मरण से होने वाले दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। जीवात्मा दुःखों से न केवल मुक्त ही होता है अपितु ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वर के आनन्द का भोग करता है, ब्रह्माण्ड में अव्याहृत गति से घूमता है, मुक्त जीवात्माओं से मिलता है व उनसे वार्तालाप करते हुए आनन्दपूर्वक अपने समय को व्यतीत करता है। यह स्थिति वेदाध्ययन व वेदानुसार आचरण करने से ही प्राप्त होती है जिसका उल्लेख वेदों के अपूर्व विद्वान व ऋषि देव दयानन्द जी ने अपने अद्वितीय ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” के नवम समुल्लास में वर्णित की है। सभी पाठकों को अपने हित व लाभ के लिये सत्यार्थप्रकाश सहित इसके नवम समुल्लास को विशेष रूप से पढ़ना चाहिये और इसकी प्रेरणा से मोक्ष मार्ग का पथगमन तथा अनुसरण करना चाहिये।
परमात्मा ने मनुष्य की जीवात्मा पर जो उपकार किये हैं वह ऐसे हैं कि कोई जीवात्मा उन उपकारों का ऋण नहीं चुका सकते। जीवात्मा के पास ऐसा कुछ है ही नहीं जिसे देकर वह ईश्वर को प्रसन्न कर सके। वेदों के ज्ञान के आधार पर ऋषियों ने अनुभव किया व बताया है कि मनुष्य ईश्वर के उपकारों के लिये उसके सत्यस्वरूप का ध्यान कर तथा उससे एकाकार होकर उसके प्रति स्तुति व प्रार्थना के वचन बोलकर ही कृतज्ञता व्यक्त कर सकता है और ऐसा करके वह कृतघ्नता के दोषों से बच सकता है। इसे ही ईश्वर की उपासना व सन्ध्या करना भी कहा जाता है। ब्रह्म यज्ञ भी ईश्वर की उपासना को ही कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की उपासना वा सन्ध्या की एक सरल विधि लिखी है जिसके अनुसार सन्ध्या करने से इसका उद्देश्य पूरा हो जाता है। इस विधि से उपासना कर मनुष्य कृतघ्नता का दोषी नहीं रहता। इससे मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती है तथा उसे सुख मिलता है। सन्ध्या करने से मनुष्य को आत्मा की उन्नति के साथ शारीरिक व सामाजिक उन्नति करने में भी सहायता मिलती है। अतः सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ही ईश्वर का ध्यान करते हुए उससे एकाकार होकर तथा अन्य किसी विषय को मन में न आने देकर सन्ध्या के मन्त्रों व वचनों से ईश्वर के उपकारों का ध्यान करना चाहिये। मनुष्य ईश्वर के प्रति स्तुति वचनों को बोलकर तथा ईश्वर के उपकारों का ध्यान करते हुए अपने प्रथम प्रमुख कर्तव्य को पूरा कर सकते हैं। सभी मनुष्य को अवश्य ही प्रातः व सायं समय सन्ध्या करनी चाहिये। जो मनुष्य सन्ध्या वा ईश्वर का ध्यान नहीं करते वह कृतघ्न व महामूर्ख होते हैं। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने हमारे सुख के लिये इस सृष्टि को बनाया है, हमें जन्म दिया है और हमें अन्य योनियों में श्रेष्ठ मानव शरीर दिया है। परमात्मा ने हमें हमारे शरीर व आत्मा को सुख देने वाले अन्यान्य भौतिक पदार्थ दिये हैं, माता, पिता, भाई, बहिन, दादा, दादी, ताऊ, चाचा आदि नाना संबंधी आदि भी दिये जिनसे हमें सुख मिलता है। ईश्वर के उपकारों को भूल जाने वाला मनुष्य कृतघ्न ही होता है। अतः सबको सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये और इसे अपने जीवन का प्रथम व मुख्य कर्तव्य जानना चाहिये।
ऋषियों के अनुसार मनुष्य का दूसरा मुख्य कर्तव्य है देवयज्ञ अग्निहोत्र का करना। देवयज्ञ करके हम जड़ व चेतन देवताओं को सन्तुष्ट करते हैं। यज्ञ का अर्थ देवपूजा, संगतिकरण तथा दान होता है। चेतन देवों में परमात्मा, माता, पिता, आचार्य व हमारे शुभ चिन्तक ज्ञान व विद्या सम्पन्न मनुष्य हुआ करते हैं। जड़ देवताओं में पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि को माना जाता है। वैदिक मान्यतानुसार कुल तेतीस देवता होते हैं। इनको सन्तुष्ट करने के लिये हम देवयज्ञ करते हैं। देवयज्ञ प्रतिदिन प्रातः व सायं किया जाता है। इसमें हम एक हवन कुण्ड में आम्र, पीपल आदि की दुर्गन्ध व प्रदुषण न करने वाली सूखी व स्वच्छ समिधाओं को अग्नि में जला कर यज्ञ में वेदमन्त्रों का उच्चारण कर गोघृत, बलवर्धक पदार्थ, सुगन्धित पदार्थों सहित वनस्पति तथा ओषधियों आदि की आहुतियां देते हैं जिससे वह आहुतियां अग्नि में जलकर अत्यन्त सूक्ष्म होकर वायु के द्वारा पूरे वातावरण में फैल जाती है। इससे यह लाभ होता है कि वायुमण्डल शुद्ध व सुगन्धित होता है, दुर्गन्ध का नाश होता है, घर व निवास का दूषित वायु बाहर निकल जाता है, बाहर का शुद्ध वायु घर के भीतर प्रवेश करता है, यजमान परिवार सहित अनेक निकटवर्ती परिवारों व मनुष्यों को सुगन्ध की प्राप्ति व शुद्ध वायु का लाभ होता है, रोग के किटाणुओं का भी नाश होता, अस्वस्थ मनुष्य स्वस्थ होते हैं तथा स्वस्थ मनुष्य रोगी होने से बचते हैं।
यज्ञ में मन्त्रों से ईश्वर से जो प्रार्थनायें करते हैं, ईश्वर उनका फल प्रदान कर उन्हें पूरी करते हैं। आत्मा व जीवन की उन्नति होने सहित मोक्ष प्राप्ति में भी यज्ञ का करना सहायक होता है। मनुष्य अभावों से रहित तथा अन्न, धन व ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर अन्य अनेक लाभों से भी युक्त होता है। परमात्मा ने वेदों में मनुष्यों को यज्ञ करने की प्रेरणा व आज्ञा की है। इस ईश्वर आज्ञा का पालन भी यज्ञ करने से होता है। यज्ञ से जितनी मात्रा में प्राणियों को सुख पहुंचता है, उसी मात्रा में हमारे पुण्य भी अर्जित होते हैं जिसका लाभ हमें परजन्म में प्राप्त होता है। अतः सभी मनुष्यों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये और ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के साथ यज्ञ से प्राप्त होने वाले सभी लाभों को भी प्राप्त करना चाहिये। यह भी बता दें कि यज्ञ एक वैज्ञानिक क्रिया वा कर्म है। वैज्ञानिक वेद मत से जुड़े न होने के कारण यज्ञ की महत्ता को नहीं जानते और न ही समझना चाहते हैं। हमारे ऋषियों से बढ़कर तो वैज्ञानिक नहीं हो सकते। ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार न करना मनुष्य होने की पहचान नहीं है। इस सृष्टि की उत्पत्ति व इसके पालन पर विचार कर इसके कर्ता ईश्वर को जानने का प्रयत्न सबको करना चाहिये। वेदों के स्वाध्याय व चिन्तन से ईश्वर को जानकर उसकी उपासना करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य होता है। जो ऐसा करते हैं वही मनुष्य कहलाने के अधिकारी होते हैं। ऐसे व्यक्ति ही विद्वान कहलाने के अधिकारी भी होते हैं।
मनुष्य को सन्ध्या व देवयज्ञ, इन दो प्रमुख कर्तव्यों को अवश्य ही करना चाहिये। अन्य तीन कर्तव्य हैं पित-ृयज्ञ, अतिथि-यज्ञ तथा बलिवैश्वदेव-यज्ञ। पितृ यज्ञ में घर में माता, पिता, दादी व दादा सहित सभी वृद्धों की पूरी तन्मयता व श्रद्धा से सेवा की जाती है। उन्हें भोजन, वस्त्र व ओषधि उपलब्ध कराने सहित उनसे प्रेम व आदर का व्यवहार किया जाता है। अतिथि वेदों के विद्वान तथा सबका हित करने वाले ऐसे विद्वानों को कहते हैं जो अचानक हमें सदुपदेश देने व हमारे कर्तव्यों का बोध कराने के लिये समय समय पर हमारे घरों में आते हैं। हमारा कर्तव्य होता है कि ऐसे विद्वान अतिथियों की हम तन, मन व धन से सेवा करें। हम ऐसा करके जो कर्म करते हैं वह हमारा पुण्य कर्म होता है जिसका फल हमें परमात्मा से जन्म जन्मान्तरों में मिलता है। अतः पितृ यज्ञ तथा अतिथि यज्ञ को भी सभी गृहस्थियों को अवश्य ही करना चाहिये।
गृहस्थ मनुष्यों का पांचवा मुख्य कर्तव्य होता है बलिवैश्वदेव यज्ञ का करना। इसमें हमें पालतू पशुओं यथा गो, बकरी व अन्य को अपनी सामथ्र्यानुसार भोजन देना होता है तथा उन्हें सुख पहुंचाना होता है। हमें सभी पशुओं से प्रेम व अहिंसा का व्यवहार करना चाहिये, यही मनुष्य का धर्म सिद्ध होता है। मांसाहार वैदिक धर्म में सर्वथा वर्जित है एवं निन्दनीय कर्म है। जो ऐसा करते हैं वह अज्ञानता व संगति के दोष के कारण करते हैं। उन्हें अपनी भूल को सुधारना चाहिये जिससे वह परमात्मा के दण्ड से बच सकें। बलिवैश्वदेव-यज्ञ में इस दृष्टि से भी विचार किया जाता है कि आज हमने जिन पशुओं व पक्षियों को भेाजन आदि कराया है अगले जन्म में वह मनुष्य बन सकते हैं और हो सकता हम व हममें से कोई पशु या पक्षी बन जाये। तब यदि इस यज्ञ की रक्षा होगी तो हमें भी अभयता के साथ भोजन व आश्रय प्राप्त हो सकेगा। ऐसा इस कारण कि पशु-पक्षी से मनुष्य बनी आत्माओं पर बलिवैश्वदेव यज्ञ के संस्कार होंगे। यदि हमने इस परम्परा को त्याग दिया तो हम सोच सकते हैं कि किसी पशु आदि योनि में जन्म लेने पर हमारी क्या क्या दुर्दशा हो सकती है? जैसा हम आज कर रहे हैं वैसा ही हमारे साथ भी हो सकता है। अतः सभी मनुष्यों को पशुओं के प्रति दया का भाव रखते हुए उनसे पूर्ण अहिंसा का व्यवहार करना चाहिये और उन्हें श्रद्धा के साथ आश्रय व भोजन कराना चाहिये। इसी में हमारा दूरगामी हित है।
हमने मनुष्य के दो प्रमुख कर्तव्यों सहित तीन इतर कर्तव्यों पर भी संक्षेप में प्रकाश डाला है। वैदिक धर्म व संस्कृति में इन्हें ही पंचमहायज्ञ कहा जाता है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से हमारे पाठक मित्र लाभान्वित होंगे। हम प्रेरणा करेंगे सभी मनुष्य वेदों की शरण में आयें। इसके लिये सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करें। इससे आपको अकथनीय लाभ होगा। इससे आपके जन्म व जन्मान्तर सुधर सकते हैं। इति ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य