ओ३म् “वेदों का सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर से उत्पन्न होना सत्य व प्रामाणित है”

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वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेदों के बारे में हमें यह सत्य नहीं बताया जाता कि वेदों की उत्पत्ति मनुष्यों से न होकर इस संसार के रचयिता परमात्मा से हुई है और वेदों की सभी शिक्षायें व मान्यतायें सर्वथा सत्य हैं एवं सृष्टि क्रम सहित विज्ञान की मान्यताओं के भी अनुकूल हैं। यह तथ्य संसार को कभी विदित न होता यदि ऋषि दयानन्द का आविर्भाव न होता और वह सत्य सिद्धान्तों की खोज करते हुए वेदों की उत्पत्ति पर विचार न करते। उन्होंने वेदोत्पत्ति विषयक उपलब्ध साक्ष्यों एवं अपने योगबल से यह ज्ञात किया कि वेदों की उत्पत्ति कब, कैसे व किस प्रकार से हुई थी? ऋषि दयानन्द ने अपनी पात्रता से ज्ञान व विज्ञान का उपयोग कर इस तथ्य को जाना था कि वेदों की उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है। लोग इस मान्यता कि वेदों की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है, अनेक प्रश्न करते हुए इसका प्रमाण मांग सकते हैं। ऋषि दयानन्द को इस बात का अहसास था इसलिये उन्होंने स्वयं ही वेदोत्पत्ति से जुड़े सभी प्रश्नों का समाधान अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि में कर दिया है। किसी भी बात को समझने के लिये प्रश्नकर्ता व जिज्ञासु के भीतर कुछ पात्रता होनी चाहिये। यदि कोई व्यक्ति हठ, दुराग्रह एवं अविद्या तथा स्वार्थों से ग्रस्त है तो वह सत्य बातों को भी नही समझ सकता और समझ भी जाये तो उन्हें मानता नहीं है। ऐसा ही हमें वेदों के विषय में भी देखने को मिलता है। देश व संसार के लोगों ने ऋषि दयानन्द की वेदोत्पत्ति विषयक सत्य मान्यताओं तथा उनके इस विषयक समाधान की अकारण ही उपेक्षा की है। विज्ञ व्यक्तियों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती। अतः हम सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से वेदोत्पत्ति विषयक प्रकरण को इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं।

प्रश्न: वेद ईश्वरकृत हैं अन्य कृत नही। इसमें क्या प्रमाण है?

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उत्तर: इसका प्रमाण यह है कि जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित्, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत होता है, अन्य नहीं। और जिस पुस्तक में सृष्टि, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्माओं के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो वह ईक्ष्वरोक्त होती है। जैसा ईश्वर का निभ्र्रम ज्ञान है वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त होता है। जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है, वैसा ही ईश्वर, सृष्टि कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिस में होवे वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो, इस प्रकार के वेद हैं। अन्य मत-मतान्तरों आदि की पुस्तकें नहीं हैं। मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त मान्यताओं की व्याख्या भी ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के उत्तर भाग में की है। वेदोत्पत्ति विषयक ऋषि दयानन्द जी का उपर्युक्त उत्तर ऐसा है कि जिससे वेदों के ईश्वर से उत्पन्न होने का समाधान हो जाता है। वेदों में ईश्वर, आत्मा व सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में जो कथन हैं वह ज्ञान व सत्य मान्यताओं के अनुकूल हैं तथा वेदों की प्राचीनता भी सबके द्वारा स्वीकार्य होने से वेद ईश्वरीय ज्ञान ही निश्चित होता है। यह भी उल्लेखनीय है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि की थी। इसमें जो मनुष्य उत्पन्न हुए थे उनके माता, पिता तथा आचार्य आदि नहीं थे। उन्हें ज्ञान कौन देता व उन्हें ज्ञान कैसे प्राप्त होता? उस समय ज्ञान रूप सत्ता की पूर्ति सर्वज्ञानमय वा सर्वज्ञ परमात्मा जो सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा घट-घट का वासी है, वही कर सकता था। ईश्वर सर्वशक्तिमान भी है। वह अपने किसी कार्य में दूसरों की सहायता नहीं लेता। ईश्वर ही सब जीवों का पिता, माता तथा आचार्य भी है। आदिकालीन मनुष्यों को ज्ञान से सम्पन्न करना भी उसी का काम व दायित्व था। अतः उसी ने इस ज्ञानोत्पत्ति रूपी वेदोत्पत्ति के कार्य को किया था। यदि ईश्वर ऐसा न करता, तो विचार करने पर ज्ञात होता है, मनुष्य न तो भाषा की उत्पत्ति भी नहीं कर सकते थे और न ही सत्य ज्ञान को प्राप्त हो सकते थे क्योंकि भाषा की उत्पत्ति के लिये भी मनुष्य का ज्ञानी होना आवश्यक होता है और ज्ञान केवल भाषा में ही निहित रहता है। बिना भाषा व ज्ञान, अल्प व अधिक, मनुष्य विचार भी नहीं कर सकता। अतः मनुष्य जाति के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये ज्ञान व भाषा की उत्पत्ति व उसका प्रचार आवश्यक होता है जिसे सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा किया जाता है। यह ज्ञान व भाषा की उत्पत्ति परमात्मा वेदों को प्रकाशित कर करते हैं जिसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में दिया है।

ऋषि दयानन्द ने वेदों के ईश्वर से उत्पन्न होने की प्रमुख शंका को स्वयं ही प्रस्तुत किया है। वेदों के विषय में यह शंका की जाती है कि वेदों के ईश्वर से उत्पन्न होने की आवश्यकता कुछ भी नहीं है। क्योंकि मनुष्य लोग क्रमशः ज्ञान बढ़ाते जाकर पश्चात् पुस्तक भी बना लेंगे। इसका बहुत ही सटीक उत्तर ऋषि दयानन्द जी ने दिया है। वह कहते हैं कि मनुष्य वेदों के समान पुस्तक कभी नहीं बना सकते हैं। इसका कारण बताते हुए ऋषि कहते हैं कि बिना कारण के कार्योत्पत्ति का होना असम्भव है। जैसे जंगली मनुष्य सृष्टि को देख कर भी विद्वान नहीं होते ओर जब उन को कोई शिक्षक मिल जाय तो विद्वान् हो जाते हैं। और अब भी किसी से पढ़े विना कोई भी मनुष्य विद्वान् नहीं होता। इस प्रकार जो परमात्मा उन आदि सृष्टि के ऋषियों को वेदविद्या न पढ़ाता और वे अन्य को न पढ़ाते तो सब लोग अविद्वान् ही रह जाते। जैसे किसी के बालक को जन्म से एकान्त देश, अविद्वानों वा पशुओं के संग में रख देवें तो वह जैसा संग है वैसा ही हो जायेगा। इसका दृष्टान्त जंगली अर्थात् जंगल में रहने वाले भील आदि हैं।

ऋषि दयानन्द जी यह भी कहते हैं कि जब तक आर्यावर्त देश से दूसरे देशों में शिक्षा नहीं गई थी तब तक मिश्र, यूनान और यूरोप आदि देशों के मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी और इंगलैण्ड के कुलुम्बस आदि पुरुष अमेरिका में जब तक नहीं गये थे तब तक वे भी सहस्रों, लाखों क्रोड़ों वर्षों से मूर्ख अर्थात् विद्याहीन थे। पुनः सुशिक्षा के पाने से विद्वान् हो गये हैं। वैसे ही परमात्मा से सृष्टि की आदि में विद्या व शिक्षा की प्राप्ति से उत्तरोत्तर काल में विद्वान् होते आये हैं। ऋषि पतंजलि रचित योगदर्शन में कहा गया है ‘स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।।’ अर्थात् जैसे वर्तमान समय में हम लोग अध्यापकों से पढ़ कर ही विद्वान् हाते हैं वैसे परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि आदि ऋषियों का गुरु अर्थात् पढ़ानेवाला है। क्योंकि जैसे जीव सुषुप्ति और प्रलय में ज्ञानरहित होते हैं वैसा परमेश्वर नहीं होता। उसका ज्ञान नित्य है। ऋषि दयानन्द ने यहां एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि बिना निमित्त से नैमित्तिक अर्थ सिद्ध कभी नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर से ही उसके बनाये वेदों के अर्थ जाने जाते हैं। यदि ईश्वर वेदों के अर्थ ऋषियों को न जनाता तो मनुष्य वेदों के अर्थ कदापि नहीं जान सकते थे।

नित्य शब्द का अर्थ है जो सदा से है तथा सदा रहेगा। जिसका कभी अभाव नहीं होगा। जो न्यूनाधिक नहीं होगा। जिसके गुण, कर्म व स्वभाव तीनों कालों में अपरिवर्तनीय होते हैं। ईश्वर, जीव व आत्मा इसी प्रकार तीन नित्य पदार्थ हैं जिनका अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। नित्य पदार्थों के गुण, कर्म व स्वभाव भी नित्य अर्थात् अपरिवर्तनीय ही होते हैं। परमात्मा नित्य होने से उसके गुण, कर्म व स्वभाव तथा ज्ञान आदि भी नित्य हैं। वेदज्ञान ईश्वर के ज्ञान में सृष्टि व प्रलय दोनों कालों में समान रूप से बना रहता है। वेद ज्ञान जैसा अनादि काल में था वैसा ही अब है और ऐसा ही भविष्य में भी बना रहेगा। अतः परमात्मा के ज्ञान में सदैव विद्यमान रहने से परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान चार ऋषियों के माध्यम से कराते हैं। वेदों के सत्य अर्थ भी परमात्मा से ही प्राप्त होते हैं। वेद ही परमात्मा का ज्ञान है। वेदों की भाषा भी परमात्मा प्रदत्त होने से उसी की अपनी भाषा है। इस दृष्टि से वेद व वेदभाषा दोनों का हमारे लिये व सभी मनुष्यों के सबसे अधिक महत्व है।

वेदों के बारे में एक शंका यह भी होती है कि वेद संस्कृतभाषा में प्रकाशित हुए और वे अग्नि आदि ऋषि लोग उस संस्कृत भाषा को नहीं जाते थे फिर वेदों का अर्थ उन्होंने कैसे जाना? सृष्टि के आरम्भ में तो उन ऋषियों को वेदों के अर्थ बताने वाले कोई आचार्य आदि भी नहीं थे। इसका उत्तर ऋषि ने यह दिया है कि उन ऋषियों को परमेश्वर ने वेदों के अर्थ जताये। वह आगे कहते हैं कि धर्मात्मा, योगी और महर्षि लोग जब-जब जिस-जिस वेद मन्त्र के अर्थ को जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए तब-तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रों के अर्थ उन्हें जनाये। जब बहुतों की आत्माओं में वेदार्थ प्रकाश हुआ तब ऋषि मुनियों ने वह अर्थ और ऋषि-मुनियों के इतिहासपूर्वक ग्रन्थ बनाये। उनका नाम ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्म जो वेद हैं, उसका व्याख्यान ग्रन्थ होने से उन ग्रन्थों का नाम ब्राह्मण हुआ। ऋषि दयानन्द ‘ऋषयो मन्त्रदृष्टयः मन्त्रान् सम्प्रादुः।’ शास्त्रीय प्रमाण देकर कहते हैं जिस जिस मन्त्रार्थ का दर्शन जिस-जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिस के पहले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था, किया और दूसरों को पढ़ाया भी, इसलिये अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्ता बतलावें उन को मिथ्यावादी समझें। वेद मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों के नाम लिखे हैं वह तो मन्त्रों के अर्थ प्रकाशक हैं। वेद किन ग्रन्थों का नाम है इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द ने कहा है कि ऋक्, यजुः, साम और अथर्व मन्त्र सहिताओं का नाम वेद है अन्य का नहीं।

वेदों की उत्पत्ति विषयक प्रमुख शंका यह की जाती है कि ईश्वर निराकार है। जब निराकार है तो वेदविद्या का उपदेश विना मुख से वर्णोच्चारण किये कैसे हो सकता होगा? क्योंकि वर्णों के उच्चारण में ताल्वादि स्थान, जिह्वा का प्रयत्न अवश्य होना चाहिये। इसका उत्तर ऋषि ने यह दिया है कि परमेश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से जीवों को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिह्वा से वर्णोच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने व कराने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं। क्योंकि मुख जिह्वा के व्यापार करे बिना ही मन में अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को अंगुलियों से मूंद देखों, सुनों कि विना मुख जिह्वा ताल्वादि स्थानों के कैसे-कैसे शब्द हो रहे हैं। वैसे जीवों को अन्तर्यामीरूप से उपदेश किया है। किन्तु केवल दूसरे को समझाने के लिये उच्चारण करने की आवश्यकता है। जब परमेश्वर निराकार व सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेदविद्या का उपदेश जीवस्थ (जीव में विद्यमान) स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरों को सुनाता है। इसलिये ईश्वर में यह दोष नहीं आ सकता कि वह निराकार होने से वेदविद्या का उपदेश नहीं कर सकता। परमात्मा इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में अग्नि ऋषि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद तथा अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद का उनकी अन्तरात्माओं में जीवस्थ रूप से वेदों का प्रकाश किया था। इन ऋषियों ने ही सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी व ब्रह्मा जी ने अन्य मनुष्य में वेदों का प्रचार व पठन पाठन कराकर वेदों का प्रचार किया जो अद्यावधि जारी है।

ऋषि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदों का प्रकाश किये जाने विषयक मान्यताओं को हर प्रकार से समझाया है। सभी मनुष्यों व विद्वानों का कर्तव्य है कि वह वेद विरोधियों की मिथ्या बातों पर विश्वास न कर ऋषि दयानन्द की सत्य मानयता को स्वीकार करें। वेदों की उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है। वेद ही मनुष्यों के निर्विवाद व एकमात्र धर्मग्रन्थ हैं। जो वेदानुकूल नहीं है वह कदापि स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये। उनका स्वीकार किया जाना ईश्वर आज्ञा का भंग किया जाना है। वेदानुकूल को मानना ईश्वर की आज्ञा का पालन करना होने से धर्म है। वेदों को अपनाकर व अविद्यायुक्त ग्रन्थों का त्याग कर ही विश्व समुदाय का हित व विश्व में शान्ति हो सकती है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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