ओ३म्: “अवैदिक मत-मतान्तरों से सर्वथा सत्य वेदों की महत्ता कम नहीं होती”

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संसार में ज्ञान व अज्ञान तथा सत्य व असत्य दो सर्वथा भिन्न बातें हैं। ज्ञान अज्ञान का विरोधी तथा सत्य असत्य का विरोधी व विपरीत ज्ञान होता है। सत्य वह होता है जो असत्य नहीं होता। ज्ञान ही किसी पदार्थ के वास्तविक स्वरूप का बोध कराता है। ज्ञान के विपरीत बातें तिरस्कार करने व स्वीकार न करने योग्य होती हैं। मनुष्य की आत्मा व जीवन की उन्नति भी सत्य व ज्ञान के धारण व आचरण करने से ही होती है। यदि हमारे जीवन में सत्य व ज्ञान नहीं होगा तो हम सुखों को प्राप्त होकर सभी क्षेत्रों में उन्नति नहीं कर सकते। मनुष्य की उन्नति ज्ञान व विज्ञान को जानने व धारण करने से ही होती है। ज्ञान व विज्ञान सहित सत्य व असत्य पक्षों पर विचार कर सत्य का ग्रहण करने से ही हम आत्म सन्तोष, सुख तथा सफलताओं को प्राप्त करते हैं। विज्ञान सत्य, तर्क एवं युक्तियों सहित प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों पर आधारित होता है। यह मनुष्य जीवन की उन्नति व सुख प्रदान करने कराने में सर्वाधिक सहायक होता है। इसी प्रकार से हमारे जीवन के सभी सिद्धान्त, मान्यतायें व आचरण होने चाहियें। इसी में हमारी बुद्धि की उपयोगिता होती है और हम प्रकृति प्रदत्त मानव शरीर का भली प्रकार से उपयोग करने वाले बनते हैं।

हम सभी किसी न किसी मत को मानते हैं। यह मत मतान्तर उन दिनों प्रचलित हुए जब ज्ञान व विज्ञान की दृष्टि से देश व समाज अवनत अवस्था में था। सभी मनुष्य स्वभाव से ही अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञानी होते हैं। ज्ञान की उन्नति सत्यासत्य का विचार कर, जो बातें तर्क व युक्ति से सत्य सिद्ध हों, उन्हीं को स्वीकार करने से होती हैं। महाभारत के बाद फैले अन्धकार के समय के बाद मनुष्यों में विचार करने की शक्ति एवं सत्य असत्य का निर्णय करने की शक्ति व क्षमता में वृद्धि हुई है। आज हम अनेक प्रमाणों व तर्कों के आधार पर किसी भी बात व विषय का विचार कर उसके विभिन्न पहलुओं को जानकर सबसे अधिक उपयुक्त सत्य बात को ग्रहण कर सकते हैं। इसके आगे भी स्वीकार तथ्य का चिन्तन करते हुए उसमें जहां जो सुधार आवश्यक होता है उसे किया जा सकता है। ऐसा करके ही मनुष्य असत्य से दूर तथा सत्य के निकट जाता है। विज्ञान में ऐसा निरन्तर होता आया है व अब भी होता है, जिससे हमें नये ज्ञान व इसके रहस्यों का ज्ञान होता है। इससे मानव जीवन सुगम व सुखद बनता है। अतः सभी मनुष्यों को मत-मतान्तरों के आग्रह से ऊपर उठकर विश्व के हित को ध्यान में रखकर सभी धार्मिक, सामाजिक व व्यक्ति विशेष के जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णय लेने चाहिये। ऐसा होने पर ही मनुष्य समाज में सुखों की वृद्धि व दुःखों की न्यूनता होती है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि अज्ञान व इसके अनुरूप कर्म ही मनुष्यों के दुःख का कारण होते हैं। अतः हमें अज्ञान दूर करने के लिये इसके साधक सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन तथा आत्म चिन्तन, मनन, विद्वानों की संगति, अनुभवी लोगों से मित्रता व संगति आदि करनी चाहिये।

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वेदों के स्वाध्याय तथा विद्वानों की संगति एवं अनुसंधान आदि से हमें जो सत्य ज्ञान प्राप्त होता है उसी का आचरण करना ही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म होना विदित होता है। मनुष्य को जीवन में कोई भी बात बिना सत्य व असत्य का विचार किये स्वीकार नहीं करनी चाहिये। ऋषि दयानन्द का बनाया हुआ एक सत्य एवं वैज्ञानिक नियम है‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये’। एक अन्य नियम यह भी है कि ‘सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये’। इसी श्रृंखला का एक और नियम यह है ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये’। सारा संसार इन नियमों को मानता है परन्तु जब व्यवहारिक दृष्टि से मत-मतान्तरों का अध्ययन करते हैं तो पातें हैं कि इन सत्य नियमों का पालन नहीं किया जाता है। वैदिक मत में ही इनका सर्वाधिक पालन होता है। वहां सृष्टि के आदि काल से ही परम्परा रही है कि सत्य का आचरण ही धर्म कहलाता है। किसी भी विषय में शंका होने पर लोग विद्वान ऋषियों से उसका समाधान कराया करते थे। विद्वान वस्तुतः वही कहलाता है जो वेदों एवं सत्य को यथावत् जानता है। सत्यज्ञान से रहित मनुष्य न तो विद्वान होता है और न ही वह किसी मत का धर्माचार्य ही होना चाहिये। यदि होगा तो फिर वह सत्य का प्रचार प्रसार नहीं कर सकता। उससे अविद्या का विस्तार होगा जिससे उसके अनुयायियों को अविद्या से किये जाने वाले कार्यों से दुःख व हानि होगी। अतः हमें सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग के प्रति सदा सर्वदा सावधान व तत्पर रहना चाहिये। यही मनुष्य जीवन की जन्म जन्मान्तरों में उन्नति व सुखों की प्राप्ति का प्रमुख व एकमात्र मार्ग है।

संसार में सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि को सत्य असत्य का ज्ञान कराने के लिये स्वयं सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा से चार वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों का यह ज्ञान परमात्मा ने उच्च कोटि के ज्ञान ग्रहण की क्षमता से युक्त अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा ऋषियों को दिया गया था। ईश्वर सृष्टिकर्ता तथा मनुष्यादि सभी प्राणियों का उत्पत्तिकर्ता एवं पालनकर्ता है। अतः उसका ज्ञान निर्दोष होता है। वेदों का ज्ञान भी सर्वथा निर्दोष है। वेद ज्ञान का विज्ञान तथा तर्क व युक्तियों से किसी प्रकार टकराव व विरोध नहीं है। वेदों के सत्य अर्थ वस्तुतः मनुष्य जीवन की उन्नति व कल्याण से युक्त सुख देने वाले होते हैं। कई बार पात्रता रहित लोग वेदों के मिथ्या अर्थ प्रस्तुत कर समाज में अविद्या व अन्धविश्वास उत्पन्न कर देते हैं। मध्यकाल में हमारे देश में भी ऐसा ही हुआ। मध्यकालीन लोगों को वेदों के सत्य अर्थों का ज्ञान नहीं था। उन्होंने वेदों के असत्य अर्थ किये जिससे समाज में अन्धविश्वास व अज्ञान फैला। ऋषि दयानन्द ने जब सत्य का अनुसंधान किया और वेदांगों का अध्ययन कर वेदों की परीक्षा की तो उन्हें ज्ञात हुआ कि धर्म में जो वेदों के नाम से मिथ्या व अज्ञानयुक्त मान्यतायें व सिद्धान्त प्रचलित हैं वह दूषित व असत्य वेदार्थ के कारण हैं। उन्होंने वेदों के सत्य अर्थों का प्रचार किया। इस कार्य के लिए उन्होंने सत्य वेदार्थ दिया। वेदों के रहस्यों को बताने वाले सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। उनकी कृपा से आज हमें वेदों के सत्य अर्थ प्राप्त हैं। वेदों में ही ईश्वर का सत्य व सर्वांगपूर्ण स्वरूप तथा ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभावों का वर्णन मिलता है। वेद व वैदिक साहित्य से ही आत्मा व सृष्टि को यथार्थ रूप में जाना जाता है। वेदों की शिक्षायें व तथ्य अकाट्य हैं। वेदों की शिक्षायें सर्वथा सत्य हैं एवं तर्क एवं युक्ति की कसौटी पर भी खरी हैं। अतः वेद ही मानव का सत्य धर्म सिद्ध होता है। संसार के सभी मनुष्यों को वेदों का अध्ययन करना चाहिये और इसकी प्रत्येक मान्यता को तर्क और युक्ति की कसौटी पर कसकर सत्य होने पर ही अपनी पूर्व की असत्य मान्यताओं का त्याग कर ग्रहण करनी चाहिये। ऐसा करके ही उनका मनुष्य जन्म लेना सफल होगा और उनकी लोक व परलोक में उन्नति होगी। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सबको ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों सहित प्रथम मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये। इससे मनुष्य जीवन की उन्नति सहित विश्व में शान्ति की प्राप्ति का लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकता है।

संसार में अनेक अवैदिक मत प्रचलित हैं। वैदिक मत एक ही है जिसका प्रचार व प्रसार ऋषि दयानन्द के अनुयायी वेदों के सत्य भाष्य व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के द्वारा करते हैं। इस मत में मनुष्यता विरोधी कोई मान्यता नहीं है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से वेद की सभी मान्यतायें व सिद्धान्त ओतप्रोत हैं। वेदों के विचारों को धारण करने से सभी प्राणियों को कल्याण होता है। अहिंसा सिद्ध होने पर सभी हिंसक प्राणी भी अहिंसक मनुष्य के प्रति वैर त्याग कर उसके अनुकूल हो जाते हैं। यह स्थिति वेदों व अहिंसा को सिद्ध करने पर ही प्राप्त होती है। किसी मत में इसकी चर्चा नहीं है। यह अहिंसा को सिद्ध करने का बहुत बड़ा फल होता है। सत्य के पालन को ही वेदों में धर्म व धर्म पालन कहा जाता है। सभी प्राणियों पर दया व अहिंसा युक्त व्यवहार वेदों की बहुत बड़ी देन है। वेद पालतू पशुओं के प्रति किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन नहीं करते अपितु इसे अमानवीय कार्य बताते हैं।

ऋषि दयानन्द ने सभी मतों के प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन किया था और उनकी मान्यताओं पर पूर्ण निष्पक्षता से विचार किया था। उनको जो तथ्य उपस्थित हुए उनका प्रकाश उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के उत्तरार्ध में किया है। उनका निष्कर्ष है कि सभी मत मतान्तर अविद्या वा अज्ञान युक्त मान्यताओं से युक्त हैं जिनसे मनुष्यों को दुःख होता है तथा परस्पर वैर भाव में वृद्धि भी होती है। जिन पशुओं का मांस खाया जाता है उनको अनावश्यक व अकारण दुःख होता है। अतः उन्होंने असत्य को छोड़ने तथा वेदों में निहित सत्य को ग्रहण करने की देश के सभी लोगों से अपील की थी। अविद्या, मत-मतान्तरों के आग्रह सहित अपने हित व अहित आदि कारणों से लोगों ने वेदों के सत्य सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं किया। इससे परमात्मा व ऋषि दयानन्द की भावना पूर्ण न हो सकी। ऐसा होने पर भी वेद सत्य धर्म के आदर्श व निर्विवाद ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित है। कोई वेदों को स्वीकार करें या न करें, इससे वेदों की हानि नहीं अपितु हम मनुष्यों की ही हानि व लाभ होता है।

जब तक सर्वज्ञान युक्त वैदिक मत सर्वत्र प्रचलित नहीं होगा और अवैदिक अविद्या अज्ञान युक्त मत अपनी अविद्या का सुधार नहीं करेंगे, विश्व व समाज में शान्ति नहीं लाई जा सकती। वेदों का महत्व निर्विवाद है। यह महत्व प्रलय काल तक रहेगा। परमात्मा की आज्ञा व प्रेरणायें वेदों में हैं। इसे मानकर ही मनुष्य को पूर्ण सुखों की प्राप्ति, आत्मा की उन्नति व मोक्ष रूपी परम सुख व आनन्द की प्राप्ति होगी। परम सुख मोक्ष को प्राप्त करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। वह वेदों को सर्वांगपूर्ण रूप से अपनाने तथा अविद्या व अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के असत्य सिद्धान्तों को छोड़कर ही प्राप्त किया जा सकता है। वेदों का महत्व सूर्य, अग्नि, जल व वायु के समान सब मनुष्य आत्माओं के लिये अनिवार्य एवं अपरिहार्य हैं। जिस प्रकार हम वायु व जल का त्याग नहीं उसी प्रकार से हमें ईश्वर प्रदत्त सर्वकल्याण वेदों का भी त्याग नहीं करना चाहिये। सबको वेदरूपी वटवृक्ष की छाया में बैठ कर सुख, शान्ति तथा कल्याण प्राप्त करना चाहिये। ऐसा करेंगे तो हमारा परजन्म व भविष्य सुखद होंगे अन्यथा नहीं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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