ओ३म् “स्वाध्याय तथा उपासना से ही जीवन की वास्तविक उन्नति होती है”

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मनुष्य एक चेतन प्राणी है। मनुष्य का आत्मा चेतन अनादि व नित्य पदार्थ है। मनुष्य का शरीर जड़ प्राकृतिक तत्वों से बना हुआ नाश को प्राप्त होने वाला होता है। शरीर की उन्नति मनुष्य आसन, व्यायाम, सात्विक भोजन तथा संयम आदि गुणों को धारण कर करते हैं। आत्मा की उन्नति शरीर की उन्नति से अधिक महत्वपूर्ण होती है। मनुष्य का आत्मा विद्या तथा तप से शुद्ध, पवित्र व उन्नत होता है। यदि आत्मा शुद्ध व पवित्र नहीं है तो उसकी उन्नति सम्भव नहीं होती। आत्मा को उन्नति के लिये उसे आत्म व परमात्म ज्ञान से शुद्ध व पवित्र करना होता है। आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त होकर ही आत्मा की उन्नति होती है। मनुष्य जीवन में सभी मनुष्यों को सद्ज्ञान की आवश्यकता होती है। परमात्मा ही ज्ञान के अनादि व अक्षय स्रोत हैं। परमात्मा का ज्ञान वेदों में प्राप्त होता है। मनुष्य को जितने व जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह वेदों से प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त समय की सामयिक आवश्यकताओं के अनुरुप मनुष्य ज्ञान व विज्ञान का विस्तार भी कर सकते हैं। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से ही हुई है। वेद सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। वेदों में आध्यात्मिक एवं भौतिक सभी प्रकार का ज्ञान उपलब्ध होता है। वेदों का ज्ञान परमात्मा से प्राप्त होने के कारण पूर्णतया सत्य एवं निभ्र्रान्त है। इसी कारण वेदों को स्वतः प्रमाण तथा अन्य ग्रन्थों के ज्ञान को वेदोनुकूल होने पर ही परतः प्रमाण माना जाता है। जो बात वेदों के विपरीत व विरुद्ध होती है वह मानने योग्य नहीं होती। अतः आत्मा की उन्नति के लिए हमें वेद व वेदानुकूल सिद्धान्तों को जानना व मानना आवश्यक होता है। वेदों पर ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों की संस्कृत व हिन्दी भाषाओं में प्रामाणिक टीकायें उपलब्ध हैं। इनके अध्ययन से हम वेदों के मर्म को समझ सकते हैं तथा इससे संसार को यथार्थ रूप में जान सकते हैं। ईश्वर तथा आत्मा सहित ईश्वर प्राप्ति में साधन रूप में सहायक सृष्टि का यथार्थ ज्ञान भी वेदों के अध्ययन से ही होता है। वैदिक साहित्य में वेदों का नित्य स्वाध्याय करने की प्रेरणा है। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह भ्रांति रहित ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त होते हैं।

हमारा यह संसार एक अपौरुषेय सत्ता परमात्मा से बना है। परमात्मा ने यह संसार मनुष्य आत्माओं के कर्मों का भोग करने तथा उन्हें अपवर्ग अर्थात् दुःखों से मुक्त कराने के लिए सत्कर्मों को करने के लिए बनाया है। हमें संसार में शुभ कर्मों को करने से सुख प्राप्त होता है। इस सुख का दाता व मुख्य कारण परमात्मा ही होता है। अतः अपने जन्म जन्मान्तरों में परमात्मा के किए उपकारों को स्मरण कर हमें उसका ध्यान करना होता है। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप होने से आनन्द से परिपूर्ण हैं। मनुष्य का आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का ध्यान व उपासना कर ही सुखों को प्राप्त होता है। उपासना करने के मुख्य दो ही प्रयोजन विदित होते हैं। ईश्वर के उपकारों को स्मरण कर उसका ध्यान व धन्यवाद करना तथा उपासना द्वारा उसके आनन्दमय स्वरूप में मग्न होकर आनन्द व सुखों से युक्त होना। ईश्वर के प्रति यह दोनों ही कार्य करने प्रत्येक जीवात्मा वा मनुष्य के लिये आवश्यक होते हैं। यदि ऐसा न करेंगे तो हमारी आत्मा कृतघ्न होगी तथा हमें सुखों की प्राप्ति भी नहीं होगी। इसी कारण से सृष्टि के आरम्भ से सभी विद्वान व ऋषि मुनि इस रहस्य को जानकर ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान का स्वाध्याय करने व वेदज्ञान के प्रचार को करते हुए उपासना द्वारा सुखों को प्राप्त करते आये हैं। ऐसा करते हुए वह योगाभ्यास, ध्यान व समाधि आदि द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार को प्राप्त होकर मोक्ष के अधिकारी भी बनते थे। यही सब मनुष्य के लिये करणीय होता है। वर्तमान में मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त शिक्षा के कारण मनुष्य इस ज्ञान से दूर हो गये हैं। इसी कारण से समाज आपस में बंटा हुआ है तथा आत्मज्ञान व उपासना से होने वाले आनन्द व सुखों से वंचित है।

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स्वाध्याय से मनुष्य का आत्मा ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञानी मनुष्य अपने उद्देश्य की प्राप्ति ज्ञान के अनुरूप कर्मों को करके कर सकते हैं। सभी प्रशंसनीय उत्तम कार्य ज्ञान व पुरुषार्थ से ही सम्पन्न व सफल होते हैं। अतः स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान से मनुष्य ईश्वर की उपासना व संगति ही नहीं करता अपितु अन्य सांसारिक कार्यों को करने में भी सफलता प्राप्त करता है और इससे इच्छित सुखों वा धन एवं ऐश्वर्य को भी प्राप्त होता है। सभी मनुष्यों को वेदादि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपने जीवन को सफल करना चाहिये। स्वाध्याय में प्रमुख ग्रन्थ हैं वेद, दर्शन, उपनिषद, विशुद्ध मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं आर्य विद्वानों के वेद विषयक अनेक ग्रन्थ। इन ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य की आत्मा की पूर्ण उन्नति सम्भव होती है। इनके अध्ययन से विद्या प्राप्त होती है जिसको हम अपने कर्मों व व्यवहार में लाकर सफल मनुष्य बनते हैं। वेदों व इतर ऋषिकृत ग्रंथों का अध्ययन कर मनुष्य को ईश्वर का जो सत्यस्वरूप प्राप्त होता है वह ऋषि दयानन्द के शब्दों में इस प्रकार है। ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी परमात्मा की उपासना करनी योग्य है।’ आत्मा भी एक चेतन, अल्प सामथ्र्य से युक्त, एकदेशी, अणु परिमाण, ससीम, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों को करने व उनका फल भोगने वाला, वेदज्ञान को प्राप्त होकर उपासना, ध्यान व समाधि आदि कर्मानुष्ठानों से ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त होने वाला है। जो मनुष्य वेद मार्ग से भिन्न अन्य अविद्यायुक्त मार्गों का अनुसरण करते हैं वह ईश्वर व सद्कर्माें से दूर बन्धनों को प्राप्त होकर सुख व दुःखों का भोग करते हैं। वह ईश्वर के आनन्द तथा मोक्ष सुख से वंचित रहते हैं। उनका वर्तमान जन्म सहित परजन्म भी दुःखों व हानियों को प्राप्त होता है। अतः मनुष्य को जीवन में सत्य व विद्या को प्राप्त होकर सत्य का ही आचरण करना चाहिये जिससे वह दुःखों से मुक्त तथा सुखों से युक्त रहें और साथ ही उनका परजन्म भी उन्नति, कल्याण व सुखों को प्राप्त हो।

वेद एवं वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करने से मनुष्य की आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार की उन्नति होती है। स्वाध्याय व ईश्वर की उपासना करने से मनुष्य सात्विक गुणों से युक्त होता है। यह गुण भौतिक उन्नति में भी सहायक होते हैं। सात्विक गुणों से जीवन में ज्ञान विज्ञान सहित सभी विषयों को समझने व स्मरण करने की योग्यता में वृद्धि होती है। सात्विक विचारों वाले व्यक्तियों की शारीरिक श्रम करने की सामथ्र्य अधिक होती है। अतः भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने में भी स्वाध्याय एवं उपासना सहायक होती है। ऐसा करते हुए मनुष्य उन्नति के शिखर को प्राप्त हो सकते हैं। हम सभी वैदिक ऋषि-मुनियों, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, ऋषि दयानन्द तथा आचार्य चाणक्य आदि के जीवन की सफलता में स्वाध्याय, उपासना तथा पुरुषार्थ को ही युक्त पाते हैं। इन्हीं गुणों व प्रयत्नों से यह सब इतिहास में अमर व विख्यात हुए हैं। अतः सफलता व उन्नति की इच्छा रखने वाले सभी मनुष्यों को इन गुणों को धारण करना चाहिये और इनकी प्राप्ति व साधना करने में प्रमाद नहीं करना चाहिये। लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति में इन गुणों का महत्व निर्विवाद है। यदि हम ऐसा करेंगे तो हम जीवन के चार पुरुषार्थ वा उन्नतियों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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