जब भगवान व्यासदेव जी ने जनहित में वेदों को शाखाओं में बांट दिया और सत्रह पुराणों और महाभारत की रचना कर दी, यह प्रसंग उसके बाद का है। यह प्रसंग ब्रह्म रस की महिमा को बताने वाला है।
एक दिन भगवान व्यासदेव प्रात: कृत्य सम्पन्न कर सरस्वती तट पर बैठ हुए थे। आज उनके हृदय में अपेक्षित प्रसन्नता नहीं थी, जैसी आम दिनों में उनके हृदय पटल पर रहती है।
उनकी प्रफुल्लतता में कहीं न कहीं कोई कमी महसूस हो रही थी। कोई कमी उन्हें निरंतर कुरेद रही थी, वे विचार करने लगे कि जनहित में मैंने वेदों को शाखाओं में बांट दिया और अभी तक 17 पुराणों और महाभारत की रचना कर ली है, फिर मेरा मन विचलित क्यों है?
वह आखिर कौन सी कमी है, जिसकी वजह से मेरा अंतर्करण संतुष्टि का अनुभव नहीं कर रहा है। काफी विचारोंपरांत उन्हें भान हुआ कि उन्होंने परमहंसों के प्रिय धर्मों का प्राय: निरुपण नहीं किया है, इसी वजह से ये बेचैनी है।
ब्रह्म रस स्वरूप है, अत: रसरूप में उसका वर्णन भी अपेक्षित है। ठीक इसी अवसर पर महाभागवत श्री नारद जी वहां आ गए। व्यास जी उन्हें देखकर तुरंत उठ कर खड़े हो गए। उन्होंने देवर्षि नारद जी की विधिवत पूजा की।
देवर्षि ने पूछा कि आप अकृतार्थ पुरुष की तरह खिन्न क्यों है? व्यास जी बोले कि हे देवर्षि वास्तव में मेरा मन संतुष्ट नहीं है। मुझमें जो भी कमी रह गई है, कृपया आप बताये। मेरा मार्ग दर्शन करें देवर्षि।
उसकी का नाम श्रीमद्भागवत
नारद जी बोल कि आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरुपण किया है, वैसा निरुपण रसरूप ब्रह्म का नहीं किया है। रस के उल्लास के लिए ब्रह्म रसमय लीला करता है। आप उसका ही रसमय निरुपण करें। इससे आपके हृदय को संतोष व प्रफुल्लता प्राप्त होगी। इसके बाद भगवान वेदव्यास ने जिस ग्रंथ की रचना की, उसकी का नाम श्री मद्भागवत है। पुप्पिका में भगवान व्यास देव ने इसे पारमहंसी संहिता कहा है। श्रीमद्भागवत भगवान का ही स्वरूप है।
भगवान रस है, भागवत रस भी है।