भगवती दुर्गा की उत्पत्ति की रहस्य कथा और नव दुर्गा के अनुपम स्वरूप

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गवती दुर्गा शक्ति का पुंज हैं। उनकी शक्ति की महिमा का वर्णन सम्भव नहीं है, वैसे तो उनके अनगिनत रूप हैं, नाम हैं। जिनका उल्लेख मनुष्य तो क्या, देवों के लिए भी सम्भव नहीं है, लेकिन जब-जब सृष्टि में आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ता है, तब-तब भगवती दुर्गा दुष्टों के संहार के लिए प्रकट होती है। आसुरी शक्तियों का नाश करती हैं। वैदिक धर्म शास्त्रों में भगवती दुर्गा की महिमा का गान किया गया है।

कथा के अनुसार दैत्यों के घोर अत्याचार से पीडि़त देवता त्राहि-त्राहि करते हुए सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के सम्मुख जाकर रक्षा हेतु प्रार्थना करने लगे। ब्रह्मा जी को जब ज्ञात हुआ कि दैत्यरज जब वर प्राप्त करके शक्तिशाली हो चुका है। उसकी मृत्यु किसी कुंवारी कन्या के हाथ से होनी है, तब समस्त देवताओं के सम्मिलित दिव्य तेज से देवी की उत्पत्ति हुई।

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रुद्रावतार भगवान शंकर के तेज से देवी के मुख की संरचना हुई,यमराज के तेज से देवी के केश, श्री हरि विष्णु के तेज से शक्तिशाली भुजाएं, चन्द्रमा के तेज से स्तन, इन्द्र के दिव्य तेज से कमर, वरुण से जंघाएं, पृथ्वी से नितम्ब तथा ब्रह्मा के तेज से देवी के चरणों की उत्पत्ति हुई। सूर्य देव के तेज से पैरों की उंगलियां, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र। इसी प्रकार समस्त देवताओं के तेज से देवी के विभिन्न अंग बने तत्पश्चात सभी देवताओं ने देवी को अनेकानेक अस्त्र शस्त्र प्रदान किया।

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भगवान शिव ने महाशक्ति को अपना त्रिशूल प्रदानकिया, लक्ष्मी जी ने कमल पुष्प तथा श्री हरि विष्णु जी तेजपुन्ज से युक्त अपना अजेय शस्त्र चक्र दिया। उसी प्रकार अन्य देवताओं ने अनेक अस्त्र दिये। अग्निदेव ने शक्तिशाली वाणों वाला तरकश, वरूण देव ने दिव्य शंख, देवरज इन्द्र ने वज्र, भगवान श्री राम जी ने धनुष, कपिराज हनुमान जी ने गदा, ब्रह्मा जी ने वेद और पर्वतराज हिमालय ने सवारी हेतु सिंह प्रस्तुत किया। अपनी भुजाओं में देवी ने देवताओं द्वारा प्रदत्त अयुधो (हथियरों) को धारण किया और सिंह को वाहन स्वारूप स्वीकार की।

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दिव्य तेज से युक्त देवी के अद्भुत स्वरूप के दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के समस्त पाप धुल जाते हैं और उसे परमपद की प्राप्ति होती है। जो मानव नित्य प्रात: उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध मन और सच्चे ह्दय से देवी की उपासना करता है अथवा नौ देवियों की अमर कथा का श्रवण करता है, उस पर भगवती जगदम्बा प्रसन्न होकर मनवांछित फल प्रदान करती हैं।
धन प्रदान करने वाली, शत्रुओं का विनाश करने वाली, दैत्यों का संहार करने वाली माता समय-समय पर अलग-अलग स्वरूपों में अवतरित हुईं, जो अलग-अलग नामों से विख्यात हुई। श्री दुर्गा जी की नौ मुर्तियां है, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। ‘नवदुर्गा’ का पाठ करने से समस्तदुखों का निवारण होता है। नौ दुर्गा कहलाने वाली देवियों के नाम इस प्रकार हैं:-
(1) शैलपुत्री, (2) ब्रह्मïचारिणी, (3) चन्द्रघंटा, (4) कुष्मांडा, (5) स्कन्दमाता, (6) कात्यायनी देवी, (7) कालरात्रि, (8) महागौरी और (9) सिद्धिदात्री ।

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नवरात्रों में उपरोक्त नामों से देवी की उपासना सर्व हितकारी होता है।
हे भक्तों! मा जगदम्बे के स्परूप को ह्दय में धारण करें तथा मन को एकाग्र करके शक्तिपूर्वक अनेक रूपों में धरती से लेकर पाताल तक, सजीव से लेकर निर्जीव तक, कण-कण में विद्यमान मातेश्वरी के अनेक रूपों का गुणगान करें। नौ नामों से जग विख्यात नौ देवियोंकी अलग-अलग रूपों में अराधना करने से प्राप्त होने वाले फलों का संक्षिप्त उल्लेख-
1. शैलपुत्री:- पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न होने से देवी जगदमबा शैलपुत्री कहलायीं। दृढ़ संकल्प शक्ति से युक्त शैलपुत्री की अराधना करने से इच्छाशक्ति में दृढ़ता का आविर्भाव होता है ओर वाणी अपने लक्ष्य को निश्चित रूप से प्राप्त करताहै किन्तु इच्छा शक्ति की दृढ़ता में अहंकार का मिश्रण कदापि न हो।
2. ब्रह्मचारिणी:- ब्रह्मा जी के तेज से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मचारिणी नाम से विख्यात हुई। माता ब्रह्मचारिणी की उपासना ब्रह्म मंत्र द्वारा करने से अत्यन्त प्रसन्न होती हैं और अपनी कृपा दृष्टि से उसका भली प्रकार से कल्याण करती हैं। सदैव रुद्राक्षधारण करने वाली ब्रह्मचारिणी माता को बारम्बार नमस्कार है।
3. चन्द्रघण्टा:- चन्द्रमा के समान शीतल ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाली जग वन्दनीय माता चन्द्रघण्टा अपने भक्तों के प्रति सदैव विनयशील रहती हैं। भक्तों को सदैव पुत्र की दृष्टि से निहारने वाली माता चन्द्रघण्टा के चरणों की वन्दना करने से आत्मा कोशान्ति प्राप्त होती है। क्रोध का नाश होता है और ज्ञान के प्रकाश की अमर ज्योति के स्फुटित होने से ह्दय का अंधकार दूर होता है। जो भी प्राणी सच्चे मन से माता के चरणों का ध्यान करता है उसे अनेकों प्रकार की कठिनाईयों से मुक्ति मिलती है। काच्चीपुरम (कर्नाटक) में स्थित माता चन्द्रघण्टा के मंदिर में जो भी मनुष्य अपनी मुरादें लेकर जाता है। मैया उसकी मुरादों को पूर्ण कर सुख समृद्घि प्रदान करती हैं।
4. कुष्माण्डा:- त्रिविध तापों के निवारण हेतु माता कुष्माण्डा जी की पूजा अर्चना की जाती है। वैदिक, दैविक और भौतिक यह तीनों ताप (दु:ख) प्राणी की विवेकशीलता को नष्ट करने के साथ अत्यंत दु:खी करते हैं। जो मनुष्य पूर्ण श्रद्घा एवम भक्ति से माता केचरणों का ध्यान करते हुए विधि विधान से पूजन एवम जाप करता है उसे परम सुख एवम शान्ति प्रदान होती है और इस लोक में यश प्राप्त करके परलोक में स्वर्ग का अधिकारी होता है। कुष्माण्डा देवी का बसेरा भीमा पर्वत पर है।
5. स्कन्दमाता:-महामूर्ख, विवेकहीन, समाज से तिरस्कृत मनुष्यों को स्कन्दमाता सदैव अपने चरणों में स्थान देती हैं। मैया के चरणों में जो भी प्राणी एक बार भक्तिपूर्वक अपना मस्तक रख दे उसे दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। स्कन्दमाता की कृपादृष्टि हो जाने से महा मूढ़ कालीदास महाज्ञानी कालिदास कहलाये और कुमार सम्भव, मेघदूतम, अभिज्ञान शाकुन्तलम और रघुवंश महाकाव्य की रचना करके विशिष्ट यश मान प्राप्त किये। कालिदास जी के संबंध में कथा है कि वे वृक्ष के जिस डाली पर बैठे थे उसी डाली(शाखा) को काट रहे थे। उनके कार्य को देखकर विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ में हारकर निराश लौट रहे पंडितों ने अपने मन में विचार किया कि इससे बड़ा मूर्ख सम्पूर्ण सृष्टि में कोई और नहीं होगा।

शास्त्रार्थ में विद्योत्तमा से हारकर तिरस्कृत होने के कारण वे पंडित स्वयं कोअपमानित हुआ समझ रहे थे। विद्योत्तमा अतीव सुंदरी थी और उसने प्रण किया था कि जो मुझे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा उसी से विवाह करूंगी।
दूर-दूर से ज्ञानी विद्वान उससे शास्त्रार्थ करने के लिए आए किन्तु वे लज्जित हुए इसलिए उन सभी ने आपस में विचार किया किसी प्रकार उसका विवाह किसी महामूर्ख व्यक्ति से करा दिया जाए जिससे यह जीवन में दु:खी रहे।

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उन पण्डितों न पेड़ की डाल काट रहे कालिदास को नीचे बुलाया और अच्छे वस्त्र पहनाकर राज्यसभा में ले गए जहां विद्यात्तमा आकर शास्त्रार्थ करती थी। पंडितों ने मार्ग में ही कालिदास को भली प्रकार से समझा दिया था कि विद्योत्तमा कुछ भी पूछे, कोई भी प्रश्न करेतुम अपना मुंह बंद रखना अर्थात तुम्हें कुछ नहीं बोलना है। कालिदास ने कहा ठीक है।
तत्पश्चात जब शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ तो पंडितों ने विद्योत्तमा को सम्बोधित करते हुए कहा- ये हमारे गुरूदेव हैं किन्तु इस समय मौन वृत धारण किए हुए हैं अत: तुम जो भी कुछ पश्न करना चाहती हो, सांकेतिक (इशारे से) भाषा में पूछ सकती है। यह जानकर किसम्मुख बैठा विद्वान मौन वृत धारण किए है तो विद्योत्तमा संकेत करती हुई एक उंगली उठायी।
उसे क्या मालूम था कि सामने बैठा व्यक्ति विद्वान नहीं बल्कि महामूर्ख है। कालिदास ने अपनी तरफ विद्योत्तमा की उठी उंगली को देखकर मन में विचार किया कि यह मेरी एक आंख फोडऩा चाहती है तब उन्होंने अपनी दोनों उंगलियों को दिखाते हुए मुक भाषा में कहा- तू मेरी एक आंख फोड़ेगी तो मैं तेरी दोनों आंख फोड़ दूंगा जिसका अर्थ पंडितों ने इस प्रकार समझाया- हे राजकुमारी तुमने एक उंगली उठाकर यह कहा कि ईश्वर एक है जिसका उत्तर गुरूदेव ने दो उंगली उठाकर दिया- इसके दो उंगली उठाने का अर्थ यह कि ईश्वर और जीवदो हैं। इन दोनों के बिना सृष्टि संभव नहीं है।

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तब विद्योत्तमा ने पांचों उंगलियां उठायीं। कालिदास ने सोचा कि यह मुझे थप्पड़ मारना चाहती है। उन्होंने घूंसा दिखाया कि तू मुझे थप्पड़ मारेगी तो एक ही घूंसे से मैं तेरा मुंह तोड़ दूंगा। जिसका अर्थ ब्रह्मïणों ने बतलाया कि तुमने पांच उंगली उठाकर यह संकेत कियाकि तत्व पांच हैं (पंचतत्व-धरती, आग, पानी, वायु और आकाश) जिसका उत्तर हमारे गुरुदेव ने मुट्ठी बांधकर दिया अर्थात पांचों तत्व अलग-अलग रहकर अर्थहीन है। जब यह तत्व आपस में मिलते हैं तब शरीर का निर्माण होता है, सृष्टि का सृजन होता है।
उनका उत्तर सुनकर विद्योत्मा अति प्रसन्न हुई और कालिदास से विवाह करने के लिए सहमति प्रदान कर दी।

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विवाह के पश्चात एक दिन विद्यात्तमा और कालिदास बैठे हुए बातचीत कर रहे थे कि उसी समय एक उष्ट आ गया जिसे देखकर कालिदास उट्र-उट्र कहने लगे। ‘उष्ट’ (संस्कृत भाषा) को उट्र करते देखा तो विद्योत्तमा उसी क्षण जान गयी कि मेरा पति महामूर्ख है। उसनेकालिदास को बहुत धिक्कारा। पत्नी से प्रताडि़त कालीदास को महान दुख हुआ। उनका मन आत्मग्लानि से भर उठा। वे उसी क्षण भवन से बाहर निकले और देवी के मंदिर में जा पहुंचे। माता के चरणों में शीश झुकाकर विनय करते रहे हे माता! मैं महा मूर्ख हूं।

मूर्ख होने केकारण ही आज मुझे स्त्री से अपमानित होना पड़ा। मैं आपकी पूजा अर्चना भी करना नहीं जानता। करूं? कैंसे करूं?
ïभक्त वत्सला माँ! करुणामयी मां जो सफल संसार की मां है। एक पुत्र की पुकार कैसे न सुनती। कालिदास की विह्ववलता को देखकर मां ने अपनी कृपा दृष्टि से कालिदास के अन्दर दिव्य ज्ञान की ज्योति जगा दी और वही कालिदास, महाकवि कालिदास हुए जिसका नाम अमर है।
6. कत्यायिनी देवी:-कत्यायिनी देवी देवी की कृपा से जब तक प्राप्त नहीं होती तब तक शिक्षण कार्य कदापि सम्पादित (पूर्ण) नहीं हो सकता। शोधकार्य इनका प्रमुख गुण है जिसका आज के वैज्ञानिक युग में अत्याधिक महत्व है। माता कत्यायिनी देवीदेवी वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर सारे संसार में अपनी कृपा रूपी प्रसाद से प्राणियों की मनोकामनाएं पूर्ण कर रही हैं। जो प्राणी सच्चे ह्दय से माता की उपासना करता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। सत्य तो यह है कि माता कभी अपने पुत्रों का त्याग नहींकरती बल्कि पुत्र ही उनके दूर हो जाते हैं। जो उनके निकट आकर मैया के चरणों से प्रेम करता है, मां उसे अपने चरणों से उठाकर स्नेहवश ह्दय से लगाकर अपनी ममतामयी दृष्टि डालकर निहाल कर देती है।
7. कालरात्रि:- संसार के अन्धकार को नष्ट करके ज्ञान रूप ज्योति का अविर्भाव करती हैं। जब प्राणी के मन का अंधकार नष्ट हो जाता है तो स्वत: ही उसके मन में माता के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश फैलने से अज्ञान रूपी तम दूर भाग जाता हैजो माता कालरात्रि की देवी की कृपा के बिना कदापि संभव नहीं है तथा जो माता की उपासना सच्चे मन से करता है उसे काल का भय नहीं होता। भय विनाशिनी, शत्रु विमोचनी मैया का सिद्घ पीठ कलकत्ता में है जहां प्रतिदिन दूर-दूर से हजारों श्रद्घालु जाकर मैया केचरणों में शीश नवाते हैं उनकी मुरादें पूर्ण होती हैं।
8. महागौरी:- नारी शक्ति के रूप में पूज्यनीय महागौरी के रूप में आठवीं मूर्ति के रूप में स्थापित है। भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पर्णकुटी में रहकर कठिन तपस्या की और भगवान शिव को प्राप्त की। महागौरी का सिद्घपीठ स्थान हरिद्वार के निकट कनखल नामक स्थान पर है जहां सदैव भक्तों की भीड़ लगी रहती है। शिव अर्धागिनी महागौरी का स्वरूप गौर वर्ण है। नेत्रों से पुत्रों (सांसरिक प्राणियों के लिए) के लिए सदैव अमृत रूपी प्रेम बरसता है। जो प्राणी उस प्रेम को प्राप्त करने के लिए दरबार तकपहुंचता है और मैया के चरणों का ध्यान करता है उसे भौतिक सुखों की प्राप्ति तो होती ही है परलोक में भी वह उत्तम स्थान प्राप्त करता है।
9. सिद्धिदात्री:- समस्त सिद्धियों को प्रदान करने में माता दुर्गा की नवी मूर्ति सिद्धिदात्री के रूप में जग प्रसिद्ध हैं। हिमाचल नंदापर्वत पर माता सिद्धिदात्री देवी विराजमान हैं। उनकी कृपा से संसार की समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
देवी के उपरोक्त वर्णित नव रूपों को नवदुर्गा कहते हैं, जिनकी विधि पूर्वक अराधना-उपासना करने से प्राणियों का कल्याण होता है और सभी  अभिलाषाएं पूर्ण होती हैं।

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