आदि शक्ति दुर्गा के नौ स्वरूपों में से महाकाली अवतार की रहस्य गाथा और माया का प्रभाव

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गवती आदि शक्ति दुर्गा के वैसे तो अनन्त रूप है, अनन्त नाम है, अनन्त लीलाएं हैं। जिनका वर्णन कहने-सुनने की सामर्थ्य मानवमात्र की नहीं है, लेकिन देवी के प्रमुख नौ अवतार है। जिनमें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, योगमाया, शाकम्भरी, श्री दुर्गा, भ्रामरी व चंडिका या चामुंडा है। इन नौ रूपों में से आइये जानते हैं हम महाकाली अवतार के बारे में-

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 महाकाली अवतार:- उस समय सम्पूर्ण सृष्टि का प्रलय हो चुका था,चारों ओर जल ही जल व्याप्त था। भगवान श्री हरि विष्णु शेष शैय्या पर सोये हुए थे। उनके कान के मैल से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए जो समुद्र में ही युवा हो गए। तब वेदोनों आपस में विचार करने लगे कि बिना आधार के किसी भी वस्तु का स्थिर (ठहर) हर पाना पूर्णतया: असंभव है। यह आगाध जल किस पर ठहरा हुआ है यह जानने की इच्छा उनके मन में जागृत हुई और अपने उत्पन्नकर्ता के विषय में भी उन दोनों ने भी विचार किया,लेकिन चारों ओर उन्हें जल ही जल दिखाई दिया। तब मधु नामक दैत्य ने अपने भाई को सम्बोधित करके कहा- हे भाई! हम दोनों ने अपने उत्पन्नकर्ता के नियम में जानने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु हमें जल के सिवा और कुछ नहीं दिखाई दिया और जल के ठहरने के विषय में भी जानने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे जिससे यह सिद्ध होता है कि जल में हमारी सत्ता बनाये रखने वाली परम आराध्या शक्ति (देवी) ही हमारी उत्पत्ति की कारण हैं। वे दोनों दैत्य जिस घड़ी इस प्रकार आपस में विचार कर रहे थे, उसी समय आकाश सुंदरवाग्यबीज मंत्र की ध्वनि गूंज उठा और एक सुंदर ज्योति पुंज दिखाई देकर लुप्त हो गया।

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तब वे दोनों दैत्य उस वाग्यबीज मंत्र का जप करने लगे। मन और इन्द्रियों को वश में करके एक हजार वर्षों तक कठिन तपस्या की। उसकी कठिन तपस्या से देवी प्रसन्न हुईं।तत्पश्चात आकाशवाणी हुई- हे दैत्यों! तुम्हारी उग्र तपस्या से मैं अति प्रसन्न हूं अत: मनोवाछित वर मांगों। आकाशवाणी सुनकर मधु और कैटभ के प्रसन्नता की सीमा न रही- वे उस समय बोले- हे देवी। यदि आप हमारी तपस्या से प्रसन्न हैं तो हमें यह वर दें कि हम दोनोंकी मृत्यु हमारी इच्छानुसार हो। अर्थात जब हम स्वयं मरना चाहें तभी हमारी मृत्यु हो। हमें स्वेच्छा-मरण का वर प्रदान करें। आकाशवाणी ने कहा- हे दैत्यों मेरी कृपा से तुम्हारी इच्छा के बिना देवता, दैत्य अथवा कोई भी नहीं मार सकता। देवी से वर प्राप्त कर मधु और कैटभ महाअभिमानी हो गए। तत्पश्चात वे समुद्र के जल में रहने वाले विशाल जीवों से क्रीडा करने लगे। इस प्रकार कुछ काल के पश्चात एक दिन श्री विष्णु के नाग कमल से उत्पन्न कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मा जी पर उनकी दृष्टि पड़ी। ब्रह्मा जी को देखकर वे उनकेनिकट जाकर बोले- हे सुव्रत! तुम हमारे साथ युद्ध करो। युद्घ की अभिलाषा से हम तुम्हारे निकट आए हैं।

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यदि तुम्हारे अन्दर शकित है तो युद्ध करो। अन्यथा यह सुन्दर आसन त्यागकर हमारी विनती करो। मधु-कैटभ के अहंकार से परिपूर्ण वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी ने विचार किया कि यह दानव निश्चित रूप से महा बलिशाली हैं अन्यथा ऐसे कठोर वचनों का उच्चारण कदापि न करते। फिर शत्रु के बल को जाने बिना युद्ध करना सर्वथा असंगत है। यदि मैं विनती करता हूं तो यह मुझे निर्बल समझकर मार डालेंगे तब उन्होंने शेष सैय्या पर सोये हुए भगवान श्री हरि की शरण में जाकर उन्हें जगाने का विचार किया। उस समय श्री हरि, देवी योगमाया के वशीभूत (वश में होकर) गहरी नींद में सो रहे थे। ब्रह्मा जी कमल की डंडी पकड़कर संतापहारी श्री हरि विष्णु के सम्मुख पहुंचकर उनकी स्तुति करते हुए जगानेका प्रयास करने लगे किन्तु देवी योगमाया के वश में होने के कारण उनकी निद्रा भंग न हुई। वे पूर्ववत गहरी निद्रा में सोते रहें। यह देखकर ब्रह्मा जी को अत्यंत चिंता हुई। मधु और कैटभ भी उन्हें ढूंढते हुए उसी ओर आ रहे थे। चिंता एवं भय से व्याकुल ब्रह्मा जी ने विचार किया कि इस समय एक मात्र देवी की शरण ही इस अभिमानी दैत्यों से मेरी रक्षा कर सकती हैं। तब उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रीय तरते देवी की स्तुति आरम्भ कर दी- हे देवी मैं जान गया हूं कि निश्चय ही तुम इस जगत की कारण स्वारूपा हो। तुम ही समस्त चर-अचरप्राणियों के अंतकरण में विनाश करती हो और सगुण रूप धारण करके अपनी दिव्य लीला से सम्पूर्ण जगत को भी मोहित करती हो। तुम ही मन, विद्या, बुद्धि और ज्ञान हो। ऋषि मुनि साध्या नाम से तुम्हारी वंदना करते हैं। हे मातेश्वरी सम्पूर्ण सृष्टि में कीर्ति घृति, कान्ति, रति एवं श्रद्धा रूप में विराजती हो। हे सकल जगत की जननी तुम्हे बारम्बार प्रणाम है। वेद भी तुम्हारे मर्म को नहीं जानते। क्योंकि उनकी उत्पत्ति तमसे है।

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यज्ञ में हवन करते समय वेदन तुम्हारे स्वाहा का नाम का उच्चारण करते हुए आहूति डालते हैं। यदि स्वाहाका उच्चारण न करें तो देवतागण यज्ञ भाग से वंछित रह जाएं। हे माता- हे वर देने वाली देवी भगवती! हे असुरों का संहार करने वाली जगजननी। भगवान श्री हरि इस घड़ी तुम्हारे माया के आधीन हैं। हे कल्याणी, हे साधुजनों को अभय देने वाली देवी। रक्षा करो। रक्षा करो।तुम्हारी माया से भगवान श्री हरि जड़वत पड़े हैं।
ब्रह्मा जी द्वारा स्तुति किये जाने पर तामसी निद्रा देवी भगवान विष्णु के श्री विग्रह से निकलकर बगल में खड़ी हो गईं तब वे हिलने डुलने लगे। उनकी निद्रा भंग होते देख ब्रह्मा जी का मुख मंडल प्रसन्नता से खिल उठा उन्होंने श्री हरि का प्रणाम किया। उन्हें देखकर विष्णुजी ने पूछा-हे पदम योगि (कमल आसनधारी) आप जप तप त्यागकर यहां किस उद्देश्य से आए तथा आपके मुख मंडल पर मलिनता क्यों छायी हुई है। आप भय से आक्रान्त (घबराए) दिखाई दे रहे हैं। अतिशीघ्र कारण स्पष्टï करें। तब ब्रह्मा जी ने कहा- हे पालन हार! आपकी कान के मैल से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए हैं जो अत्यन्त पराक्रमी और बलशाली हैं। बहुत ही भयानक रूप वाले वे दोनों दैत्य मुझे मारने के लिए मेरे पीछे आ रहे हैं। हे जगत्प्रभो! उन दैत्यों से मेरी रक्षा करो।

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जिस समय ब्रह्मा जी, श्री विष्णु से मधु और कैटभ के विषय में बतला रहे थे उसी समय वे दोनों वहां आ पहुंचे और ब्रह्मा जी को ललकारते हुए बोले- सर्प के फन पर बैठने वाले इस विष्णु के पास तू भाग कर चला आया क्या यह तेरी रक्षा कर सकेगा? पहले तू मुझसे युद्ध कर अथवा अपने प्राणों की भिक्षा मांगते हुए यह कह कि मैं तुम्हारा दास हूं।
बल के अभिमान में चूर मधु-कैटभ की वाणी सुनकर श्री विष्णु जी बोले हे दानव श्रेष्ठï तुम दोनों महा बली हो, इसमें तनिक भी संदेह नही है किन्तु इस प्रकार के वचनों का उच्चारण करना अशोभनीय है। तुम युद्ध करना चाहते हो तो मैं युद्ध करने के लिए तैयार हूं।तत्पश्चात श्री हरि तुमसे युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। वे बिना किसी सहारे के ही जल में खड़े थे। विष्णु जी के मुख से युद्ध करने की बात सुनकर मधु उसी क्षण आंखें लाल-लाल किए हुए आगे बढ़ा और ताल ठोककर उनसे मल्ल युद्ध करने लगा जबकि कैटभ वहीं ठहर गया।विष्णु जी से लड़ते-लड़ते जब मधु थक गया तब कैटभ उनके युद्ध करने लगा। इस प्रकार वे दोनों दैत्य बारी-बारी से भगवान श्री विष्णु से मल्ल युद्ध करने लगे। दैत्यों के श्री हरि का मल्ल युद्ध आकाश में स्थिर होकर देवी भगवती और ब्रह्मा जी देखने लगे। युद्ध करते हुए उन्हें पांच हजार वर्ष व्यतीत हो गए। किन्तु मधु और कैटभ को तनिक भी भ्रम न हुआ। अर्थात युद्ध से विचलित न हुए। तब भगवान ने विचार किया कि पांच हजार वर्षों तक निरंतर लड़ते रहने से मैं थक गया किन्तु यह दानव पूर्ववत हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। यहदानव सदा स्वस्थ्य कैसे रहते हैं? मेरा बल और पराक्रम कहां गया? इनकी मृत्यु कैसे होगी? शान्त मन से विचार करने के लिए उन्होंने दैत्यों से कहा- हे दैत्य श्रेष्ठï तुम कदापि यह मत सोचना कि मैं हार गया हूं। सत्य तो यह है कि निरंतर पांच हजार वर्षों तक युद्ध करतेरहने से थक गया हूं जबकि तुम दोनों भाइयों ने बारी-बारी से युद्ध किया। अत: मैं कुछ घड़ी विश्राम कर लूं तत्पश्चात पुन: युद्ध करूंगा।
पुन: युद्ध करने की बात सुनकर वे दैत्य अति प्रसन्न होकर कुछ दूर जाकर खड़े हो गए। जब भगवान ने देखा कि वे कुछ दूर चले गए हैं तब उनकी मृत्यु का कराण जानने के लिए ध्यान लगाया तो ज्ञात हुआ की देवी से इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त है।

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देवी इन्हें वर दे चुकी हैं वह उसे टाल भी नहीं सकती और अपनी इच्छा से दुखी व्यक्ति भी मृत्यु का आवाहन नहीं करता। असाध्य रोग से ग्रस्त प्राणी भी मरना नहीं चाहता। अत: मैं किस प्रकार इन दानवों का वध करूं। यह जीवित रहेंगे तो वर के घमंड में चूर होकरसाधुजनों पर निश्चित ही अत्याचार करेंगे। भगवान श्री हरि विष्णु जिस घड़ी विचार कर रहे थे उसी समय मन को मुग्ध करने वाली कल्याणमयी देवी के दर्शन हुए। वह आकाश में विराजमान थीं। योग से ज्ञात भगवान विष्णु ने भगवती की स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर देवी ने कहा हे विष्णु मेरे वर के प्रभाव से यह दोनों दानव शक्तिशाली हो रहे हैं। तुम पुन: इनके युद्ध करो अब यह दानव मेरी वक्त दृष्टि से मोह में पड़ जाएंगे और तुम ठगकर इनका वध करो, देवी के वचन का तात्पर्य श्री हरि जान गए और उसी क्षण युद्ध के लिए मधु-कैटभ के समक्ष उपस्थित हुए। पुन: भीषण युद्ध आरंभ हो गया। इस तरह कुछ समय व्यतीत हुआ तब भगवान विष्णु ने कातर दृष्टि से भगवती की ओर देखा जो आकाश में विराजमान थीं। उस समय भगवती देवी का रूप अत्यंत सुंदर दिखायी दे रहा था। दानवोंने देखा तो उनकी दृष्टिï वहीं ठहर गयी। युद्घ करते हुए बार-बार वे देवी की ओर निहारने लगे। देवी की माया के वश में होकर वे प्रेम और मोह के पाश में बंध गए। मद से उनका शरीर व्यथित हो उठा। उधर विष्णु जी देवी के अभिप्राय को समझ चुके थे। अत: अपनी गंभीरवाणी से मधु-कैटभ को सम्बोधित करते हुए बोले हे दानव श्रेष्ठ तुम दोनों अतुलित पराक्रमी और महाबली वीर हो। तुम्हारे युद्ध कौशल से मैं अति प्रसन्न हूं। वर मांगों।

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श्री विष्णु के इस प्रकार कहने पर अहंकार के मद में चूर मधु और कैटभ ने भयंकर अटटाहस किया तत्पश्चात कहने लगे हे-विष्णु हम याचक नहीं बल्कि हम उदारदाता हैं। तुम हमें क्या दे सकते हो। हम तुम्हे वर देने को तत्पर हैं- मांगों, क्या मांगते हो? उस समय उचितअवसर जानकर भगवान विष्णु ने कहा हे महावीरों यदि तुम हमें वर देना चाहते हो तो मेरे हाथ से अपनी मृत्यु स्वीकार करो।
देवी की वक्त दृष्टि से माया के वशीभूत दैत्यों ने विष्णु भगवान को वर प्रदान करने की बात कही। लेकिन जब उन्होंने वर मांगा तो दोनों दैत्य ठगे रह गए। किन्तु वचन दे चुके थे तब उन दोनों ने विचार किया कि हम ठगे गए हैं। उनके मुख मंडल पर शोक की घटा घिर आयी। तत्पश्चात उन्होंने दृष्टि घुमाकर अपने चारों ओर देखा सर्वत्र जल ही जल दिखायी दे रहा था। प्राकृतिक भूमि कहीं न थी। जब वे बोले- हे विष्णु तुमने भी वर देने की बात कही है। तुम कभी असत्य नहीं बोलते, हम दोनों ने तुम्हारे हाथों अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली लेकिन हमें आप उस स्थान पर मारो, जहां पर जल न हो।
दानवों ने इस विचार से ऐसा कहा था कि चारों ओर जल ही जल है सूखी धरती तो है ही नहीं अत: यह किस प्रकार हमारा वध करेंगे। मधु-कैटभ को वर प्रदान करते हुए श्री विष्णु जी ने कहा- हे दैत्यों तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो हम तुम्हे उस स्थान पर मारेंगे जहां जल का आभाव होगा। यह कहकर उन्होंने अपनी दोनों जांघें सटाकर जल रहित (जहां पानी न हो) स्थान दिखाकर कहने लगे-अब तुम दोनों अपना मस्तक मुझे दे दो। यह कहकर उन्होंने चक्र सुदर्शन से दोनों का सिर काट लिया। जिसने असुरों की बुद्धि नष्ट कर माया के वशीभूत किया। वह शक्ति ‘महाकाली’ थी।

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