ओ३म् “यम नियमों का पालन किये बिना ईश्वर-भक्ति व उससे लाभ होना असम्भव”

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मनुष्य ईश्वर का बनाया हुआ एक चेतन प्राणी है जिसके पास पांच ज्ञान एवं पांच कर्म इन्द्रियों से युक्त मानव शरीर है। शरीर में मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार नाम वाला अन्तःकरण चतुष्टय भी होता है। बुद्धि का कार्य ज्ञान प्राप्ति व उस ज्ञान का उपयोग करने में सहायक होना होता है।

बुद्धि की सहायता से मनुष्य सत्य व असत्य का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वह सत्य व असत्य का विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर सकता है। सत्य को जानना, मानना व आचरण में लाना इस लिये आवश्यक होता है। सत्य से ही मनुष्य की उन्नति व असत्य व तदनुरूप आचरण से मनुष्य का पतन होता है। मनुष्य जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करता है उसमें उसकी बुद्धि का योगदान होता है। इस ज्ञान को उसे अपने आचरण में ढालने के साथ दूसरों को भी सदुपदेश द्वारा ऐसा ही करने की प्रेरणा करनी होती है। परमात्मा नामी सत्ता एक न्यायाधीश के समान है। वह सब जीवों के सभी कर्मों की साक्षी होती है। मनुष्य ने इस जन्म व पूर्वजन्मों में नाना योनियों में जो भी कर्म किये होते हैं, परमात्मा उन सबको जानता है। परमात्मा का अपना कर्म फल विधान है जिसके अनुसार सदाचार व पुण्य कर्मों को करने से आत्मा व प्राणी को सुख मिलता है तथा इसके विपरीत असत्य आचरण करने पर दण्ड व दुःख प्राप्त होता है। वेदों का सत्य वेदार्थ ईश्वर को समाधि अवस्था में प्राप्त वेदों के ज्ञानी ऋषि ही जान सकते हैं। वह राग, द्वेष व निजी महत्वाकांक्षाओं से रहित तथा प्राणी मात्र के हितकारी होते हैं। उन्होंने ही वेदानुकूल शास्त्रों की रचना की है। योगदर्शन भी वेदों के अनुगामी ऋषि महर्षि पतंजलि की रचना है। योगदर्शन की समस्त सामग्री वेदों से ली गई है। इस सामग्री को ऋषि पंतजलि जी ने उपासना विषय के अनुरूप अपने ज्ञान व विवेक से साधारण जनता को समझाने के लिये योगदर्शन के रूप के प्रस्तुत किया है। योग के आठ अंग होते हैं जिनके नाम हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योग के प्रथम दो अंग यम व नियम हैं। यम नियमों को जाने व इनका आचरण किये बिना कोई मनुष्य योग के फलों ध्यान व समाधि अर्थात् ईश्वर का सम्यक चिन्तन तथा उसके साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हो सकता। अतः यम व नियमों को जानकर तथा उनको आचरण में लाकर ही भक्ति व उपासना के क्षेत्र में आगे बढ़ा जा सकता है। यम व नियम में जो मनुष्य व उपासक प्रवीणता व सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं उन्हीं का ध्यान करना व समाधि लगना सम्भव होता है। ईश्वर का सम्यक ध्यान करने के लिये मन व शरीर की जिस स्थिति की आवश्यकता होती है वह यम व नियमों का पालन करने से ही उत्पन्न होती व बनती है। अतः यम व नियम को जानकर इनका पालन करना सभी ईश्वर भक्तों, उपासकों व योगनिष्ठों का आवश्यक कर्तव्य होता है।

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यम व नियम का पालन करने से मनुष्य का शरीर ईश्वर की भक्ति व साधना के लिये तैयार होता है। यम पांच होते हैं जिन्हें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह के नाम से जाना जाता है। मनुष्य को अहिंसा का तात्विक अर्थ समझ में आना चाहिये। अकारण किसी प्राणी को कष्ट या दुःख नहीं दिया जाना चाहिये। अहिंसा का अर्थ अन्य प्राणियों से वैर त्याग करना होता है। जब हमारा किसी प्राणी से वैर नहीं होगा तो हम उसके प्रति हिंसा, द्वेष व घृणा का व्यवहार कदापि नहीं करेंगे। हिंसा में द्वेष व घृणा तथा अज्ञान निहित होता है। अतः योगी व भक्त के लिए अपने मन से दूसरे प्राणियों के प्रति सभी प्रकार के वैर के भावों का त्याग कर देना चाहिये और किसी भी प्राणी को जाने अनजाने में कष्ट नहीं देना चाहिये। यदि अनजाने में भी हमसे किसी को कष्ट हो जाये तो उनसे क्षमा प्रार्थना करने के साथ ईश्वर से भी क्षमाप्रार्थी होना चाहिये तथा उस हिंसा के दोष से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों सन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञों को करना चाहिये। अहिंसा को सिद्ध कर लेने पर दूसरे हिंसक प्राणी तक उस मनुष्य के प्रति हिंसा करना छोड़ देते हैं। ऐसा मनुष्य देश देशान्तर व घने वनों में भी निश्चिन्त, निर्भय व स्वछन्द घूम सकता है। ऐसा कहा व माना जाता है कि दूसरे प्राणी उसको हिंसा द्वारा हानि नहीं पहुंचाते। ईश्वर की भक्ति के लिये मनुष्य का अहिंसक होना आवश्यक होता है। इसका एक कारण यह भी होता है कि सभी प्राणी हमारे समान ईश्वर की सन्तानें हैं और अपने अपने कर्म फलों का भोग कर रहे हैं। ईश्वर को ही अधिकार है कि वह उन्हें सुख व दुःख प्राप्त कराये वा दण्ड दे। हमें अकारण किसी भी प्राणी को दुःख नहीं देना चाहिये। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम दूसरे प्राणियों पर अन्याय करने से ईश्वर के दण्ड के भागी बनते हैं। ऐसे मनुष्यों को ईश्वर भक्ति करने पर वह लाभ व सुख नहीं मिल सकता जो ईश्वर की यथावत आज्ञापालन करने वाले मनुष्यों को मिलता है। अतः सुख व आनन्द की प्राप्ति के इच्छुक सभी मनुष्यों को ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हुए दूसरे प्राणियों के प्रति वैर त्याग कर पूर्ण अहिंसक बन जाना चाहिये। इससे उनकी ईश्वर भक्ति व उपासना को सफलता प्राप्त करने में सहायता प्राप्त हो सकती है।

अहिंसा के बाद दूसरा यम सत्य है। जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा मानना सत्य व उसके विपरीत मानना असत्य होता है। मनुष्य को सत्य का ही सेवन करना चाहिये तथा असत्य को छोड़ना चाहिये। तीसरे नियम अस्तेय का अर्थ है मन में चोरी करने का विचार न आने देना। हम छिपकर कोई कार्य न करें। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर हमारे सभी कर्मों का द्रष्टा व साक्षी है। अतः हमें किसी के पदार्थ को अधर्म से प्राप्त करने का विचार नहीं करना चाहिये। इसके विपरीत हमें अपने पास आवश्यकता से अधिक पदार्थों को दूसरे पात्र व साधनहीन लोगों में वितरीत करना चाहिये। हमें अपनी आवश्यकतायें कम से कम रखनी चाहियें। इसकी प्रेरणा भी ईश्वर ने वेदों में की है। पांच यमों में चैथे स्थान पर ब्रह्मचर्य पालन को आवश्यक बताया गया है। ब्रह्मचर्य को धारण कर ही हम ईश्वर की अनुभूति व उसका ध्यान करने में सफल हो सकते हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ भी सभी इन्द्रियों को पूर्ण संयम में रखना तथा उनसे कभी किसी प्रकार की कुचेष्टा का न करना होता है। ईश्वर व उसके स्वरूप में ही विचरण करना व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना से युक्त रहना भी ब्रह्मचर्य होता है। ईश्वर भक्त व उपासक का जीवन ब्रह्मचर्य से युक्त होना चाहिये। पांचवां यम अपरिग्रह है। अपरिग्रह का अर्थ है पदार्थों, धन व साधनों का आवश्यकता से अधिक संचय न करना और अपनी आवश्यकतायें न्यूनतम रखना। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

पाचं नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान हैं। शौच का अर्थ सभी प्रकार की स्वच्छता रखना होता है। हम शरीर व विचारों से भी स्वच्छ व शुद्ध रहें। हमारा जीवन शुद्ध व पवित्र होना चाहिये। सन्तोष का अर्थ है कि हानि-लाभ तथा मान-अपमान सहित अनुकूल व विपरीत परिस्थितियों में भी दुःखी न होना और मन को सामान्य, प्रसन्न व सन्तुष्ट रखना। ईश्वर की उपासना में मनुष्य का विपरीत परिस्थितियों में भी सन्तुष्ट रहना आवश्यक होता है। तीसरा नियम तप है। तप धर्म के आचरण में कष्ट व दुःखों को सहन करने को कहते हैं। धर्म का आचरण करने में हमें दुःख हो सकता है व होता ही है। ऐसा होने पर हमें उस काम को जारी रखना, निराश न होना तथा उद्देश्य प्राप्ति तक कार्य को करते जाने को तप कह सकते हैं। अतः हमें दुःख व कष्टों के भय से तप करना छोड़ना नहीं चाहिये। तप के बाद स्वाध्याय नाम का तीसरा नियम है। इस नियम का पालन करते हुए हमें वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन व चिन्तन मनन करना चाहिये। स्वाध्याय नित्य होना चाहिये। हम जितना स्वाध्याय करेंगे हमारा ज्ञान बढ़ेगा तथा हम निःशंक व भ्रान्तिरहित हांेगेे। ईश्वर प्रणिधान में हमें ईश्वर के प्रति दृण आस्थावान व समर्पित रहना चाहिये। हम हर क्षण ईश्वर की अपनी आत्मा में उपस्थिति को अनुभव करें और उसकी स्तुति व प्रार्थना करते रहें। उसको विस्मृत न होने दें। इस प्रकार इन पांच यम व नियमों का पालन करने के लिये हमें किसी धार्मिक स्थल पर जाने व विशेष रीति से पूजा करने की आवश्यकता नहीं है। सद्ज्ञान एवं सद्कर्म जिसमें ईश्वरोपासना व देवयज्ञ अग्निहोत्र सम्मिलित है, यह पूर्ण उपासना, भक्ति व पूजा है। ऐसा करके ही हम ईश्वर को प्राप्त होकर उसका साक्षात्कार कर सकते हैं। यम व नियमों से रहित भक्ति, उपासना व पूजा कृत्रिम कार्य होता है। हमें ईश्वर की भक्ति यम व नियमों का पालन करते हुए योगदर्शन के सभी नियमों व सिद्धान्तों के अनुसार ही करनी चाहिये। तभी हमारी भक्ति व जीवन सफल होगा और हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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