ओ३म् जीवात्मा एक स्वतन्त्र एवं अन्य अनादि तत्वों से पृथक सत्ता व पदार्थ है

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हमारा यह संसार ईश्वर, जीव तथा प्रकृति, इन तीन सत्ताओं व पदार्थों से युक्त है। अनन्त आकाश का भी अस्तित्व है परन्तु यह कभी किसी विकार को प्राप्त न होने वाला तथा किसी प्रकार की क्रिया न करने वाला व इसमें क्रिया होकर कोई नया पदार्थ बनने वाला पदार्थ है। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति यह तीनों अनादि पदार्थ इस अनन्त व्यापक आकाश में ही रहते हैं। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव इतर जीव व प्रकृति से पृथक हैं जिनका ज्ञान इस सृष्टि के लोगों को प्रथम चार वेदों से अनादि काल में हुआ था तथा आज भी वेद ही ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानने के सबसे प्रमुख साधन हैं। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने वेदों का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। इन ऋषियों ने एक अन्य ऋषि ब्रह्मा जी को वेदों का ज्ञान कराया था। परमात्मा द्वारा अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न अन्य स्त्री व पुरुषों में इन ऋषियों द्वारा ही ज्ञान का प्रचार किया गया। यहीं से ऋषि परम्परा स्थापित हुई थी। महाभारत काल तक ऋषि परम्परा अनवछिन्न रूप से चली और सभी ऋषि वेदों का अध्ययन करने के साथ वेद मन्त्रों के अर्थों का साक्षात्कार करने का प्रयत्न करते थे। वह सब अपने शिष्यों को वेदाध्ययन कराकर तैयार करते व उनके साथ मिलकर वेदज्ञान से युक्त ग्रन्थों के लेखन व उपदेश आदि से वेदों का प्रचार करते थे। राजाओं व साधारण जन की शंकाओं व भ्रान्तियों का निराकरण भी इन ऋषियों के द्वारा ही होता था। इस प्रकार वेदों के प्रचार तथा ऋषियों के वेद व्याख्यान रूपी ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन, शुद्ध मनुस्मृति, ब्राह्मण आदि के द्वारा महाभारत काल तक वेद के सत्य अर्थों का प्रचार देश देशान्तर में था।

पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद देश में अव्यवस्था उत्पन्न होने से वेद प्रचार प्रभावित हुआ जिससे लोगों में भ्रान्तियां उत्पन्न होकर अनेकानेक अन्धविश्वास उत्पन्न हुए। इन अन्धविश्वासों के कारण ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सद्ज्ञान के विषय में अविद्या का विस्तार होता गया। इस अविद्या के कारण अधिकांश लोग ईश्वर व जीव आदि के सत्यस्वरूप को भूल गये और समय समय पर देश देशान्तर में अविद्या से युक्त अन्य मत-मतान्तर स्थापित होकर अस्तित्व में आये जो आज भी विद्यमान हैं। अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आज भी मत-मतान्तर ईश्वर व जीवात्मा संबंधी अविद्या से युक्त हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में सभी मत-मतान्तरों की अविद्या का प्रकाश किया है। अविद्या सहित सत्यार्थप्रकाश वेदों के सच्चे स्वरूप व विद्या का प्रकाशक होने से यह ग्रन्थ वर्तमान में वेद प्रचार का प्रमुख ग्रन्थ बन गया है। सत्यार्थप्रकाश की शिक्षाओं व विषय वस्तु ने सभी मतों पर उनकी चिन्तन प्रणाली पर प्रभाव डाला है। सत्यार्थप्रकाश में मत-मतान्तरों की परीक्षा व जो समीक्षा की गई है उसका यथोचित समाधान अद्यावधि देखने को नहीं मिलता। सत्यार्थप्रकाश के आधार पर मत-मतान्तरों ने अपनी मान्यताओं में अपेक्षित सुधार भी नहीं किये हैं। इस कारण से वेद प्रचार की आवश्यकता आज भी बनी हुई है। बिना वेद विद्या व वैदिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के प्रचार से संसार से अविद्या दूर नहीं की जा सकती और इसके बिना समस्त मनुष्य जाति को दुःखों से मुक्त एवं सुखों से युक्त नहीं किया जा सकता। अतः सृष्टि में विद्यमान ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप के प्रचार की आवश्यकता आज भी बनी हुई। वेद प्रचार व वेदमन्त्रों के सत्य अर्थों के ज्ञान से ही मनुष्य की बुद्धि सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होती है। इस कारण से आर्यसमाज आज भी सत्यार्थप्रकाश, वेदों के ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के भाष्य सहित ऋषियों के ग्रन्थ मुख्यतः उपनिषदों, दर्शनों तथा मनुस्मृति आदि का प्रचार करता है। इन का अध्ययन कर लेने पर मनुष्य ईश्वर सहित जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप को प्राप्त होकर निभ्र्रान्त होता है। अतः वेदानुसार ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्यस्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव का प्रचार करना आज आज भी समीचीन है।

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सभी मनुष्यों को यह ज्ञान होना चाहिये कि उनका यथार्थस्वरूप क्या है। इसके लिये यह जानना आवश्यक होता है कि मनुष्य के शरीर में एक सत्य-चित्त आत्मा का निवास होता है। वस्तुतः मनुष्य शरीर में मुख्य सत्ता इस चेतन आत्मा की ही होती है। इसी के लिए परमात्मा मनुष्य को जन्म देते हैं। मनुष्य जन्म आत्मा का ही जन्म होता है। यदि आत्मा न होता तो फिर मनुष्य का जन्म भी न होता। मनुष्य का जन्म अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के पाप व पुण्यरूपी कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों को भोगने के लिए होता है। इसके लिये परमात्मा की व्यवस्था युवा माता-पिताओं से कन्या व बालक शिशुओं का जन्म होता है जो वृद्धि को प्राप्त होकर शिशु से बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्ध बनते हैं। मनुष्य योनि उभय योनि होती है जिसमें मनुष्य शुभ व अशुभ कर्मों को करते हैं और पूर्व कृत कर्मों के फलों का भोग भी करते हैं। मनुष्य योनि में मनुष्य अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोग कर उनका कुछ मात्रा में क्षय करते हंै। यदि मनुष्य इस जन्म में वेदाध्ययन को प्राप्त होकर तथा ईश्वर के कर्म फल विधान को जानकर अशुभ व पाप कर्मों का करना छोड़ देते हैं तो उनकी आत्मा की उन्नति होती है। उनका कर्माशय उनको सुख प्रदान करता है तथा दुःखों के प्राप्त होने से रक्षा करता है।

मनुष्य वेद व वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर पंच-महायज्ञ करने संबंधी अपने सभी कर्तव्यों को जान लेता है जिसको करने से उसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का अर्थ जन्म व मरण सहित सभी दुःखों से छूटना तथा ईश्वर के सान्निध्य में 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक रहकर पूर्ण आनन्द का भोग करना होता है। मोक्ष के स्वरूप व उसकी प्राप्ति के साधनों का वर्णन वेद सहित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में उपलब्ध होता है। इस सामग्री का अध्ययन कर मनुष्य अपने जीवन को सन्मार्ग पर अग्रसर कर उसके निकट पहुंच सकते हैं। प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि व धर्मात्मा कोटि के लोग वेदाध्ययन करने सहित मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही प्रयत्न करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। जब तक हमारा देश ऋषियों व धर्मात्माओं से युक्त था, देश में मनुष्य वर्तमान की अपेक्षा अधिक उन्नत, चरित्र व नैतिकता के गुणों के धनी, सुखी, स्वस्थ, रोगरहित व दीर्घायु को प्राप्त होते थे। आज के समय में भी वैदिक जीवन ही उत्तम सिद्ध होता है। इससे मनुष्य ईश्वर व आत्मा को जानकर उनके ध्यान व चिन्तन से ईश्वर के निकट से निकटतर होता है। मनुष्य सत्यकर्मों को करते हुए आत्मा के लक्ष्य मोक्ष की ओर प्रवृत्त होकर ईश्वर व मोक्ष से निकटता को प्राप्त करता है। अतः सभी दुःखों से रहित मोक्ष को सब मनुष्यों को जानना चाहिये और उसके साधनों को जीवन में धारण व आचरण में लाकर अपने वर्तमान व भविष्य के जन्मों को सुखद एवं मोक्ष प्राप्ति में सहायक बनाना चाहिये।

मनुष्य का शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है। जिसका आदि होता है उसका अन्त भी निश्चय ही होता है। सिद्धान्त है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य होगी। हम संसार में जन्मधर्मा मनुष्य व सभी प्राणियों की मृत्यु होती हुई देखते हैं। इस सृष्टि में आदि काल से अब तक जितने भी प्राणी उत्पन्न हुए हैं वह सभी मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। हमें भी इसी प्रक्रिया से गुजरना है। हमारे वश में केवल वेदज्ञान की प्राप्ति व सद्कर्मों का आचरण है। इसे करके हम अपने जीवन को ईश्वर व ऋषियों की आज्ञा के अनुसार सत्य बोल कर तथा धर्म का आचरण कर व्यतीत कर सकते है। हमें अपनी आत्मा के सत्यस्वरूप को भी जानना है। वेद आदि शास्त्रों से आत्मा अनादि व अनुत्पन्न सिद्ध होता है। आत्मा का नाश व अभाव तीनों कालों में कभी नहीं होता है व होगा। यह आत्मा सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ है। इसमें मनुष्य योनि में जन्म लेकर ज्ञान को प्राप्त होने तथा वेदानुसार कर्म करने की योग्यता व क्षमता होती है। इसे अपने सभी कर्मों का फल जन्म-जन्मान्तर में अनेक योनियों में जन्म लेकर भोगना पड़ता है। हमारा आत्मा जन्म व मरण के बन्धनों में बंधा हुआ तथा अपने किये सभी कर्मों का भोक्ता होता है। शुभ, उत्तम व श्रेष्ठ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ व पाप कर्मों का फल दुःख व जीवन की अवनति होता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि आत्मा शिर के बाल के अग्रभाग के 100 भाग करने व सौवें भाग के पुनः एक सौ भाग करने पर जो उसका सौवां भाग होता है, उसके बराबर होता है। इससे जीवात्मा का परिमाण व सूक्ष्मता का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी सूक्ष्मता के कारण ही आत्मा आंखों से दिखाई नहीं देता। इतना सूक्ष्म आत्मा हम मनुष्यों व प्राणियों के शरीरों में निवास करता व इन्हें चलाता है। यही हमारा सत्यस्वरूप है। हमारे ज्ञान व कर्मों सहित अन्य मनुष्यों की संगति से ही हमारी शुभ व अशुभ कर्मों में प्रवृत्ति बनती है। हमें जीवन में धर्म का पालन करना चाहिये। धर्म क्या है, इसका ऋषि दयानन्द द्वारा बताया गया उत्तर है ‘जो पक्षपातरहित न्यायाचरण सत्यभाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ कहते हैं।’ जीव को परिभाषित करते हुए ऋषि ने लिखा है ‘जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य (सदा, हर काल में रहने वाला) है उसी को ‘जीव’ मानता हूं।’

हमने लेख में जीवात्मा के स्वरूप व कर्तव्यों की चर्चा की है। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

-मनमोहन कुमार आर्य

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