संसार की जनसंख्या का बड़ा भाग ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है और अपने ज्ञान व परम्पराओं के अनुरूप ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करना क्यों आवश्यक है?, इसके लिये हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव तथा उस ईश्वर के जीवात्माओं के प्रति उपकारों का ज्ञान होना आवश्यक है। विश्व साहित्य में चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद ही ऐसे ग्रन्थ हैं जो ईश्वर से ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त हुए थे। ऋषियों ने ईश्वर से प्राप्त वेदज्ञान को स्मरण किया व उसे सुरक्षित रखा और कालान्तर में देवनागरी लिपि आदि का आविष्कार उसे चार संहिताओं में लिपिबद्ध किया। आज यही वेद संहितायें हमें सुलभ होती हैं। इन संहिताओं में विद्यमान सभी वेदमन्त्रों के सत्य वेदार्थ व भाष्य भी आज हमें ऋषि दयानन्द की कृपा से सुलभ होते हैं।
ईश्वर प्राप्ति की साधना की सिद्धियों का वेदार्थ में उपयोग कर वेदों के सत्यार्थ को प्रकाशित व प्रचारित किया
महाभारत के बाद ऋषि दयानन्द प्रथम ऋषि हुए जिन्होंने विलुप्त सत्य वेदार्थ की प्रक्रिया अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति को प्राप्त होकर, अपनी ईश्वर प्राप्ति की साधना की सिद्धियों का वेदार्थ में उपयोग कर वेदों के सत्यार्थ को प्रकाशित व प्रचारित किया था। उनके बाद उनके अनुयायी विद्वानों ने उनके कार्य को जारी रखा व पूरा किया। चारों वेदों में ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म, स्वभाव सहित ज्ञान, कर्म व उपासना का वर्णन हुआ है। ऋषि दयानन्द ने अपनी पूर्ववर्ती परम्पराओं को दोहराया है जिसमें उन्होंने कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब श्रेष्ठ गुणों व आचरणों से युक्त मनुष्यों, जिन्हें वेदों में आर्य कहा गया है, उनका परमधर्म है। वेद की शिक्षाओं का पालन, आचरण, व्यवहार व प्रचार ही मनुष्य का परम धर्म होता है। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं, इसका प्रकाश ऋषि दयानन्द ने अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पुस्तक सहित अपने प्रायः सभी ग्रन्थों में किया है। अतः वेदों से ही ईश्वर का सत्यस्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभावों का ज्ञान मनुष्य सृष्टि की आदि में हुआ व निरन्तर होता आ रहा है। इस कारण ऋषि दयानन्द ने ज्ञान के आदि स्रोत वेदों को प्राप्त कर उनके आधार पर ही ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति सहित वेद निहित ज्ञान का प्रकाश व प्रचार विश्व में किया था। महाराज मनु ने कहा है कि ‘वेदऽखिलो धर्ममूलम्’ अर्थात् वेद ही धर्म का आदि मूल है। यह बात भी वेदाध्ययन से स्पष्ट होती है। वेद और वेदानुकूल मान्यतायें ही संसार में धर्म हैं तथा वेद विरुद्ध मान्यतायें, विचार, सिद्धान्त व परम्परायें धर्म न होकर धर्म के विपरीत मान्यतायें हैं।
‘प्रकृति’ नाम के जड़ पदार्थ का भी अस्तित्व अनादि व नित्य
हमारी यह सृष्टि एक अनादि, नित्य, अविनाशी, सर्वव्यापक, चेतन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु सत्ता से बनी है। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण होता है। संसार में‘प्रकृति’ नाम के जड़ पदार्थ का भी अस्तित्व अनादि व नित्य है। यह प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म कणों का भण्डार होता है। यह तीन गुणों सत्व, रज व तम गुणों वाली है। इन गुणों में विकार व संयोजन होने से ही हमारा यह समस्त जगत अस्तित्व में आया है। ईश्वर ही इस कारण प्रकृति को अपनी सर्वज्ञता व पूर्व कल्पों की सृष्टियों के अनुसार बनाता व चलाता है। सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया वेदों तथा सांख्य दर्शन ग्रन्थ से प्राप्त होती है। ऋषि दयानन्द ने सृष्टि की उत्पत्ति पर अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के आठवें समुल्लास में प्रकाश डाला है। वैदिक परम्पराओं का अध्ययन करने पर विदित होता है कि ईश्वर सर्गकाल के आरम्भ में प्रकृति में विक्षोभ उत्पन्न कर क्रमशः महतत्व बुद्धि, अहंकार, पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत, दश इन्द्रियां, मन, पृथिव्यादि पांच भूत और मनुष्य सहित सभी प्राणियों को उत्पन्न करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि हमारी यह सृष्टि परमात्मा ने अपनी सर्वज्ञता तथा सर्वशक्तिमतता से बनाई है। यह सृष्टि परमात्मा ने अपनी अनादि व नित्य जीव रूपी प्रजा के लिये बनाई है। जीव जन्म व मरण धर्मा हैं। इनमें ज्ञान व कर्म करने का सामथ्र्य होता है। ईश्वर अपनी ज्ञान एवं बल आदि शक्तियों से इस सृष्टि को बनाकर जीवों को उनके पूर्व कल्प व जन्मों के अनुसार जड़-जंगम वा जड़-चेतन जगत को उत्पन्न करते हैं। यदि परमात्मा सृष्टि की रचना न करते तो यह अनन्त सूर्य व चन्द्र आदि से युक्त सृष्टि अपने आप बन नहीं सकती थी। उस स्थिति में संसार व सारा आकाश अंधकार से आवृत्त रहता। जीव अन्धकार व सुषुप्ति अवस्था में ढके रहते। परमात्मा की ज्ञान व बल की शक्तियों का सदुपयोग न होता। प्रकृति जो जगत का रूप ले सकती है वह न ले पाती। जीव जो अपने कर्मानुसार मनुष्य व इतर अनेक योनियों में जन्म ग्रहण कर नाना प्रकार की क्रियायें व क्रीड़ायें कर सकते हैं, वह न करते। जीवात्माओं के दुःखों का अन्त न होता व उन्हें मोक्ष प्राप्त न होता। अतः परमात्मा ने जीवों पर उपकार कर सृष्टि रचना सहित सभी जीवों व उनके योग्य मनुष्य आदि शरीर देकर परम उपकार किया है।
जीव ईश्वर के प्रति कृतज्ञ व ऋणी होते हैं
उपर्युक्त कारणों से सभी जीव ईश्वर के प्रति कृतज्ञ व ऋणी होते हैं। ईश्वर द्वारा जीवों के लिए सृष्टि का निर्माण करने, उन्हें उनके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख देने सहित ईश्वर की उपासना कर सभी जीवों व मनुष्यों को दुःखों से निवृत्त कर मोक्ष का सुख प्रदान करने के लिये ही उपासना का विधान वेद एवं हमारे मनीषी ऋषियों ने किया है। उपासना से मनुष्य को अनेकानेक लाभ होते हैं। इन लाभों को हम सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेद-भाष्य को पढ़कर जान सकते हैं। निराकार तथा सर्वव्यापक ईश्वर की योगविधि से ध्यान द्वारा उपासना करने से मनुष्य की आत्मा का अज्ञान दूर होता है, उसके ज्ञान में वृद्धि होती है तथा ईश्वर से जुड़ना व उससे मेल होना होता है। ऐसा करने से आत्मा को ज्ञान व बल दोनों ही प्राप्त होते हैं, सत्कर्मों को करने की प्रेरणायें प्राप्त होती हैं। आत्मा पर चढ़े कुसंस्कारों व अज्ञान के मल दूर होने से ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। ईश्वर की उपासना करते हुए दीर्घ काल का अभ्यास होने पर उपासक, साधक व ध्याता को ईश्वर के साक्षात्कार का लाभ होता है। यह ईश्वर का साक्षात्कार ही जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य होता है। इसे प्राप्त करना ही परम तप कहलाता है जो कि ईश्वर के ज्ञान व उपासना सहित सत्याचरण से प्राप्त होता है। उपासना की इस महत्ता के कारण ही सृष्टि के आरम्भ से ही हमारे पूर्वज वेदाध्ययन करते हुए ईश्वर की उपासना, पंचमहायज्ञों का पालन तथा परोपकार के कार्य किये करते थे। वह संसार में अजातशत्रु हुआ करते थे। सबका भला व उपकार करने के कारण सभी मनुष्य व जीव-जन्तु उन्हें अपना मित्र समझते थे। यह उच्च स्थिति मनुष्य को ईश्वर की उपासना से प्राप्त होती है। अतः ईश्वर के उपकारों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उपासना से होने वाले अनेकानेक लाभों सहित ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिये सभी मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं न्यूनतम एक घंटा ईश्वर की उपासना करनी चाहिये। यह विधान ऋषि मुनियों ने किया है जो कि उचित ही है। उपासना के साथ वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय भी अनिवार्यतः करना चाहिये जिससे उपासक की आत्मा में किंचित भी अविद्या उत्पन्न न हो।
स्तुति वचनों आदि के द्वारा अवश्य करनी चाहिये
इस संसार को बनाने तथा इसका संचालन करने सहित जीवों को जन्म देने, उनको सांसारिक पदार्थ ज्ञान, धन, ऐश्वर्य आदि देकर पालन करने के कारण परमात्मा एक परम उपकार करने वाली सत्ता है। सभी जीवों व मनुष्यों को परमात्मा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये उसकी उपासना ध्यान-चिन्तन तथा वेद-स्वाध्याय विधि सहित स्तुति वचनों आदि के द्वारा अवश्य करनी चाहिये। इस उपासना से ही मनुष्य को समस्त संसार के स्वामी, सब धनों व ऐश्वयों के दाता तथा मोक्ष आनन्द के अजस्र स्रोत परमात्मा का साक्षात्कार होता है। इसी से मनुष्य को मोक्ष आनन्द की प्राप्ति होती है। अतः सबको ईश्वर साक्षात्कार व इससे प्राप्तव्य मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त करने सहित अपने जीवन की सफलता के लिये श्रेय मार्ग उपासना का आश्रय लेकर अपने अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य