प्रसिद्ध मंदिर: हिमाचल में नैना देवी के प्रकट होने की अनुपम गाथा

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ती के मृत शरीर को लेकर संपूर्ण ब्राह्मण में भ्रमण कर रहे शिवजी का मोह भंग करने के लिए जब भगवान श्री हरि ने सती के शरीर को खंड-खंड कर दिया तो सती के दोनों नेत्र यहीं गिरे थे। पूर्व समय में शिवालिक पर्वत के निकट गुर्जरों की आबादी थी उसमें नैना नाम का एक गुर्जर रहता था जो देवी भगवती का परम भक्त था। वह अपनी गायों भैंसों को लेकर चराने के लिए इसी पहाड़ी पर आया करता था उसकी एक अन्य ब्याही गाय प्रतिदिन एक पीपल के नीचे जाकर खड़ी हो जाती थी और उसके स्तनों से दूध की धार फूटकर गिरने लगती थी वह दृश्य देखकर गुर्जर ने अपने मन में विचार किया कि गाय के स्तनों से इस पीपल के नीचे पहुंचते ही स्वतः दूध कैसे निकलने लगता है जबकि इसने आज की तिथि तक किसी बच्चे को भी जन्म नहीं दिया है फिर भी इसके स्तनों से दूध निकल कर गिर रहा है यहमहान आश्चर्य की बात है।

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अवश्य ही किसी दैवीय शक्ति की प्रेरणा से ऐसा होता है। ऐसा इस तरह विचार करके नैना गुर्जर ने पृथ्वी पर गिरे पीपल के सूखे पत्तों पर पत्तों के लगे ढेर को हटाना आरंभ किया वहां पत्तों के नीचे दबी हुई एक पिंडी दिखलाई दी। वह पिंडी ही देवीभगवती की प्रतिमा थी| रात्रि काल में सोते समय नैना गुर्जर को स्वप्न में दर्शन देकर माता ने कहा- मैं आदि दुर्ग आदिशक्ति दुर्गा हूं, इस पीपल वृक्ष के नीचे मेरा स्थान बनवा दें। मैं तेरे नाम से प्रसिद्ध हो जाऊंगी। वह गुर्जर माता का परम भक्त था अतः माता के आदेशानुसार उसने उसी दिन देवी मंदिर की नींव रख दी और अति शीघ्र मंदिर का निर्माण कराया।

उसी दिन माता नैना देवी विराजमान होकर दूर-दूर से आने वाले भक्तों का कल्याण करती आ रही हैं। माता के दरबार में पहुंचकर जो भक्त सच्चे मन से मैया के चरणों में शीश झुकाकर विनती करता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

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ऐतिहासिक कथा के अनुसार पूर्व काल में इस स्थान पर मात्र एक पंडित जी बिलासपुर के चंद्रवंशी राजा वीर सिंह ने सर्वप्रथम मैया का मंदिर बनवाया। माता नैना देवी का मंदिर ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। वहां पहुंचने के लिए तीर्थयात्री को पहाड़ी मार्ग पर पैदल चलकरमाता के दरबार तक पहुंचना होता है। मंदिर स्थापना तिथि से अब तक यात्रियों की सुविधाओं हेतु अनेक सुधार हुए हैं। मार्ग का नवीनीकरण हुआ है। माता के चरणों में शीश झुकाने के लिए प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं। शरद कालीन नवरात्रों में देवी पूजा करने से महान पुण्यफलों की प्राप्ति होती है। ऐसा पुराणों एवं ग्रंथों में कहा गया है। नवरात्र में व्रत रखकर धूप, दीप, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवैध आदि से नवदुर्गा की विधिवत पूजा अर्चना करने से उपरांत ब्राह्मणों तथा भिक्षुकों को भोजन कराना और यथा समर्थ दक्षिणा देना महान फलदाई होता है।

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माता के दरबार के अतिरिक्त वहां तीन महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल और भी हैं जो हवन कुंड ब्रह्म कपाली और प्राचीन गुफा के नाम से विख्यात हैं। हवन कुंड में नवरात्रों में दुर्गा सप्तशती का पाठ कराने के उपरांत कन्या पूजन करके दुर्गा पूजा करने का विधान है। नवरात्रों में माता के चरित्र का श्रवण एवं पठन पाठन करने से समस्त सुख प्राप्त होते हैं। अंतर्मन में निहित पाप नष्ट होकर पुण्य में बदल जाते हैं और वह प्राणी धन-धान्य से परिपूर्णता  प्राप्त करता है। दूसरा ब्रह्म कपाली कुंड है। कपाली नाम पढ़ने की कथा इस प्रकार है। पूर्व काल में एक बार संपूर्ण सृष्टि जलमग्न हो गई। भगवान श्री हरि विष्णु योग माया के वशीभूत होकर हजारों वर्ष तक निद्रा में लीन क्षीर  सागर में शयन करते रहे। तत्पश्चात उन्होंने सृष्टि रचना हेतु रजोगुण से ब्रह्मा तथा तमोगुण से शिवजी की उत्पत्ति की। उत्पन्न होने के पश्चात भगवान शिव जी ने रुद्राक्ष की माला लेकर योग आरंभ कर दिया तब विष्णु जी ने विचार किया कि यदि शिव जी योग में रत रहेंगे तो सृष्टि कार्य संभव नहीं है तदुपरांत श्रीहरि ने अहंकार की उत्पत्ति की और ब्रह्मा तथा शिव को उस अहंकार से प्रभावित किया। अहंकार के वश में होकर शिवजी ने ब्रह्मा को संबोधित करते हुए कहा- तुम कौन हो? उस समय श्रीहरि की प्रेरणा से प्रेरित श्री ब्रह्मा जी भी अहंकार युक्त होकर बोले- सर्वप्रथम तुम बतलाओ कि तुम कौन हो, तुम्हारी रचना किसने की?


इस तरह शिव और ब्रह्मा जी आपस में विवाद करने लगे। विवाद बढ़ता ही गया और अंततः ब्रह्मा ने अपने पांचवें मुख से शिव का उपहास करते हुए बोले- अरे अहंकारी! तेरे विषय में मुझे भली प्रकार ज्ञान है। तुम बैल पर सवार होकर नंग-धड़ंग रहने वाले, श्मशान में निवास करने वाला भूत प्रेत बैतालो का साथी और सृष्टि का विनाश करने वाला है।

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ब्रह्मा की व्यंग्य वाणी सुनकर शिवजी के क्रोध की सीमा ना रही। उन्होंने ब्रह्मा को तक्षण भस्म कर देने की इच्छा से अपने तीसरे नेत्र को खोल कर उन्हें एक टक देखने लगे। ऐसा करने से शिवजी श्वेत, रक्त, स्वर्णिम, नील और पिंगल वर्ण के पांच मुख वाले हो गए। उनके पांच मुखों को देखकर हंसते हुए ब्रह्मा जी ने कहा- हे शिव! पानी में पत्थर फेंकने का बुलबुला मात्र ही उत्पन्न होते हैं, पानी में शक्ति का संचार नहीं होता। मेरे कथन का तात्पर्य यह है कि तुम्हारे शरीर पर पांच मुख होने से तुम शक्तिशाली नहीं हो जाओगे। यह सुनकर अहंकार के प्रभाव से शिवजी के क्रोध की सीमा ना रही उन्होंने उसी समय अपने नाखूनों से ब्रम्हाजी का सिर काट डाला। वह कटा हुआ सिर शिवजी के बाएं हाथ की हथेली पर गिरा और चिपक गया। उस सिर को अपनी हथेली से छुड़ाकर शिव जी ने दूर फेंकने का प्रयत्न किया किंतु सफलता ना मिली। उस समय ब्रह्मा जी चार मुख वाले चतुरानन और शिव जी कपाली नाम से जगत विख्यात हुए। ब्रह्मा का सिर काटने से शिवजी ब्रह्मा हत्या के भागे हुए जिस कारण शनै-शनै( धीरे धीरे) उनका तेज तीक्ष्ण होने लगा और ब्रम्हाजी का सिर उनकी हथेली पर चिपका रहा। तब उन्होंने विचार करके श्री नारायण की तपस्या करने का निर्णय किया। भगवान उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर शिव जी को काशी में अशि वरुणा मैं स्नान करने के लिए कहा। शिवजी उसी समय काशी के अशि वरुणा घाट पर जाकर स्नानकर के पाप मुक्त हुए किंतु फिर भी ब्रह्मा जी का कटा हुआ सिर उनके हथेली से अलग ना हुआ तदुपरांत पुनः उन्होंने भगवान श्री हरि का दर्शन कर उनके आदेशानुसार सामने के सरोवर में स्नान किया। उस सरोवर में स्नान करते ही ब्रह्मा जी का कपाल सिर उनके हथेली सेअलग हो गया। उसी दिन वह सरोवर ब्रह्म कपाली नाम से विख्यात हुआ। दूर-दूर से आने वाले भक्तगण ब्रह्म कपाली सरोवर में स्नान करके अपने समस्त पापों को धो डालते हैं।ब्रह्म कपाली कुंड से थोड़ी दूर प्राचीन गुफा है। इस गुफा के संबंध में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह गुफा कितनी पुरानी है किंतु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज ने इस गुफा में अपना निवास स्थान बनाया तब से इस गुफा का महत्व बढ़ गया। माता नैना देवी के अनन्य भक्त स्वामी जी ने इस गुफा में रहकर माता नैना देवी की तपस्या की थी। यह कथा नैनादेवी मंदिर, बिलासपुर, हि.प्र. के सम्बन्ध में बताई जाती है।

नोट- शिवहारकराय या करविपुर शक्तिपीठ कराची, पाकिस्तान में स्थित है, यहां देवी की आंखें गिरी थीं, इसके अलावा नैनादेवी मंदिर, बिलासपुर, हि.प्र.में भी बताया जाता है। इसके इतर नैनीताल में भी नैना देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। 

 

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