ओ३म् “वैदिक धर्म त्रैतवाद, पुनर्जन्म, कर्म-फल व मोक्ष के सिद्धान्तों के कारण यथार्थ एवं महान है”

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संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। यह सब मत-मतान्तर ही हैं परन्तु इसमें धर्म वेदों से आविर्भूत सिद्धान्तों के पालन को ही कहते हैं। वेद क्या हैं? वेद ईश्वर से प्राप्त उस ज्ञान को कहते हैं जिसमें इस सृष्टि के प्रायः सभी रहस्यों जो मनुष्यों के जानने योग्य होते हैं तथा जिसे प्राप्त व धारण कर मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है, उनका सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। वेद ईश्वर से ही प्रेरित हैं इसका प्रमाण यह है कि वेदों में ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति सहित धर्माधर्म आदि विषयों का सत्य व यथार्थ स्वरूप प्राप्त होता है। वेदों की कोई शिक्षा अप्रमाणिक, सत्य एवं विद्या के विपरीत नहीं है। वेदों के अध्ययन व धारण करने से मनुष्य के जीवन का कल्याण होता है।

आत्मा वेद की शिक्षाओं को सत्य पाती है व स्वीकार भी करती है। वेदों के खण्डन में विगत एक सौ से अधिक वर्षों में कोई ग्रन्थ किसी वेद विरोधी ने नहीं लिखा। इसका एक कारण लोगों में वेदों को जानने व समझने की योग्यता भी नहीं है। जिन लोगों ने वेदों को जाना व समझा है वह सब वेदों की प्रशंसा करते हैं और इसे मनुष्य जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिये आवश्यक मानते हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण वेदों के 1 अरब96 अरब वर्ष पूर्व आविर्भाव के बाद से पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक वेद, वैदिक धर्म एवं संस्कृति ही विश्व में प्रचलित एवं मानी जाती रही है। वेद को जान लेने पर मनुष्य की सभी शंकायें एवं भ्रम दूर हो जाते हैं। वेद ज्ञानी को जीवन में अन्य और कुछ जानने के लिये शेष नहीं रहता। वेद को पढ़ते हैं तो जीवन के हर पहलू पर वेद हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमारा संसार कब, किससे व कैसे बना इस विषय को भी वेदों व वैदिक साहित्य में बताया गया है। इस लेख में हम वेद के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों की चर्चा कर रहे हैं जो विश्व को वेदों से प्राप्त हुए हैं।

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वेदों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि संसार में तीन अनादि व नित्य सत्तायें ईश्वर, जीव तथा प्रकृति हैं। ईश्वर चेतन तथा आनन्द से युक्त है। यह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी है। ईश्वर के सभी गुणों का वर्णन वेदों में हुआ है। वेदों में ईश्वर के बताये गये सभी गुण सत्य एवं यथार्थ हैं। ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता, धर्ता एवं हर्ता है। यह सृष्टि वह अपनी शाश्वत, अनादि व नित्य प्रजा जीवात्माओं के लिये बनाता है। हमारी यह सृष्टि ईश्वर ने अभाव से नहीं बनाई अपितु अनादि व नित्य जड़ पदार्थ प्रकृति से बनाई है जो सृष्टि बनने से पूर्व प्रलयावस्था में सत्व, रज व तम गुणों की साम्यवस्था कही जाती है। इस प्रकृति में में ईश्वर द्वारा विक्षोभ व हलचल कर अपने ज्ञान व पूर्व के अनुभव के अनुसार इसे रचा जाता है।

प्रत्येक कल्प में एक जैसी ही सृष्टि बनती है। जैसी सृष्टि आज है वैसी ही यह आदि काल में बनी थी। इसी प्रकार से प्रलय की अवधि तक रहेगी। ऐसी ही यह इस कल्प से पूर्व के कल्पों में थी तथा ऐसी ही भविष्य के अनन्त कल्पों में भी बनेगी। इसका कारण यह है कि परमात्मा का ज्ञान व अनुभव कभी कम व अधिक नहीं होता। जैसा वह अनादि काल पूर्व था वैसा ही आज है और ऐसा ही अनन्त काल के बाद भी रहेगा। त्रैतवाद के सिद्धान्त को जानने के लिये मनुष्य को दर्शन ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना चाहिये। इससे उन्हें ईश्वर, जीव व प्रकृति के अनादि व नित्य अस्तित्व अर्थात् त्रैतवाद के सिद्धान्त का ज्ञान हो जायेगा। ईश्वर जीवों को सुख देने, उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग कराने, उन्हें अपवर्ग वा मोक्ष प्राप्ति में सहायक होने व उसका अवसर देने के लिए इस सृष्टि को बनाते हैं।

इस कारण ईश्वर के सभी जीवों पर अनन्त उपकार हैं। ईश्वर के सभी उपकारों को अल्पज्ञ होने से कोई जीव जान नहीं सकता। इन उपकारों के लिये ही कृतज्ञतावश उसकी उपासना वा स्तुति एवं प्रार्थना करने का विधान किया गया है। इसे करके मनुष्य कृतघ्नता के पाप से बचता है। अतः सबको वेदाध्ययन व सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर ईश्वर व उसके उपकारों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और पंचमहायज्ञ में उपलब्ध वैदिक विधि से सन्ध्या व उपासना करनी चाहिये। ऐसा करके आत्मा की उन्नति होगी, ईश्वर का यथार्थ ज्ञान होकर उपासना से साक्षात्कार होगा तथा मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होकर अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकता है।

मनुष्य व सभी प्राणियों का आत्मा सत्य, अनादि व नित्य है तथा अजर, अमर, अविनाशी स्वभाव वाला है। इसका कभी अन्त, नाश व अभाव नही होता। परमात्मा भी इस सृष्टि में सदा रहने वाली सत्ता है। अतः परमात्मा द्वारा प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय क्रमशः किये जाते रहते हैं और जीवात्माओं को प्रत्येक सृष्टिकाल में जन्म आदि प्राप्त होते रहते हैं। जीवात्मा का अनादि काल से अपने अपने कर्मानुसार भिन्न भिन्न प्राणी योनियों में जन्म होता आ रहा है। जन्म के बाद शरीर में वृद्धि होती है। कुछ समय व वर्षों तक युवावस्था रहती है और उसके बाद ह्रास होकर वृद्धावस्था व मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद आत्मा अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार पुनः नया जन्म व शरीर प्राप्त करती हैं। आधे व आधे से अधिक शुभ, पुण्य व अच्छे कर्म होने पर जीवात्मा को मनुष्य का शरीर मिलता है। आधे से कम शुभ व पुण्य कर्म होने पर मनुष्येतर पशु, पक्षी आदि असंख्य योनियों में से किसी एक योनि में ईश्वर अपने विधान के अनुसार जो सत्य, न्याय व पक्षपातरहित सिद्धान्तों पर आधारित हैं, जन्म देता है। यह जन्म व मरण मनुष्य के मोक्ष प्राप्ति तक जारी रहता है।

मोक्ष की प्राप्ति होने पर जन्म व मरण का चक्र ईश्वर के एक वर्ष जिसे परान्तकाल कहते हैं तथा जिसकी अवधि 31 नील, 10 खरब 40 अरब वर्ष होती है, रुक जाता है। इस अवधि में जीव ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुख व आनन्द का भोग करता है। इसका वर्णन सभी प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में हुआ है। सभी जिज्ञासुओं को सत्यार्थप्रकाश का यह समुल्लास अवश्य ही पढ़ना चाहिये। इससे पुनर्जन्म व मोक्ष पर प्रकाश पड़ता व इन सिद्धान्तों की पुष्टि होती है।

वैदिक धर्म जीवात्मा को सत्य एवं चेतन पदार्थ मानता है। यह चेतन पदार्थ अनादि व नित्य तथा अविनाशी होने के साथ एकदेशी व ससीम है। यह ज्ञान व कर्म करने की सामथ्र्य से युक्त होता है। इस जीवात्मा को सुख आदि प्राप्त कराने के लिये परमात्मा इसके पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों के अनुसार न्यायपूर्वक इसे जन्म देते हैं और इसके कर्मों का भोग कराते हैं। मनुष्य किसी भी योनि में हो वह कर्म अवश्य करते हैं। यह कर्म पूर्व कर्मों का भोग होता है। मनुष्येतर सभी पशु पक्षी आदि योनियों में केवल भोग होता है, उनमें नये कर्म नहीं किये जाते। मनुष्य योनि ही उभय योनि होती है जिसमें मनुष्य अपने पूर्वजन्म व जन्मों के कर्मों का भोग करने के साथ अपने ज्ञान व विवेक से सत्यासत्य व धर्माधर्म के कर्मों को करते हैं। यह कर्म अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार मनुष्यों को बन्धनों में डालने वाले व बन्धनों से मुक्त करने वाले दोनों ही प्रकार के होते हैं। शुभ कर्मों का उसे जन्म जन्मान्तर में सुख तथा अशुभ व पाप कर्मों का फल दुःख मिलता है।

यदि मनुष्य अशुभ कर्मों को न करें तो आत्मा की उन्नति होती है। उसके जीवन में दुःख कम व सुख अधिक होते हैं। सुख होने पर भी जन्म व मरण तथा शरीर के साहचर्य से अनेक दुःख प्राप्त होते हैं। अतः मनुष्य योनि में जीवात्मा को मोक्ष प्राप्ति के लिये ज्ञान प्राप्ति व विद्यायुक्त कर्म अवश्य करने चाहिये और इसके लिये वेदों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिये। मोक्ष किन कर्मों को करने से होता है, इसका उल्लेख ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में किया गया है। वहां इस विषय को पढ़कर इससे लाभ उठाना चाहिये। हमें यह विश्वास करना चाहिये कि परमात्मा सत्यस्वरूप हैं। वह किसी भी जीव के साथ कदापि पक्षपात व अन्याय नहीं करते। वह पक्षपात व अन्याय करने वाले मनुष्यों को उनके कर्मों का यथोचित फल देते हैं। ऐसा करने में परमात्मा के कार्य में कोई बाधा नहीं आती। बड़े से बड़े महापुरुष, आचार्य व विद्वान भी ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था से बच नहीं सकते। उनको भी अपने अपने शुभ व अशुभ कर्मों का फल सामान्य मनुष्यों की ही भांति जन्म जन्मान्तर लेकर भोगना पड़ता है। कर्म-फल सिद्धान्तों पर आर्यसमाज के विद्वानों ने कुछ ग्रन्थ लिखे हैं। जिज्ञासु मित्रों को उन ग्रन्थों का अध्ययन कर लाभ उठाना चाहिये।

वैदिक धर्म एवं सभी मत-मतान्तरों पर दृष्टि डालने से वैदिक मत व धर्म सत्य सिद्धान्तों पर आधारित मनुष्य की आत्मा की सर्वांगीण उन्नति करने वाला मत व धर्म सिद्ध होता है। वेद व वैदिक धर्म मिथ्या मान्यताओं व अविद्या आदि से सर्वथा मुक्त है। वैदिक धर्म की शरण में आने पर मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष सिद्ध होते हैं व हो सकते हैं। सत्य ज्ञान की प्राप्ति, विधिपूर्वक उपासना व देवयज्ञ अग्निहोत्र आदि किये बिना आत्मा की पूर्ण उन्नति नहीं हो सकती। अतः सबको वेद, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर अपनी आत्मा और जीवन को उन्नत बनाना चाहिये। ऐसा करने से ही मनुष्य जीवन सफल हो सकता है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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