इस पवित्र स्थल की मान्यता शक्तिपीठों में सर्वोपरि मानी जाती है। इनकी महिमा आश्चर्य में डालने वाली है। मान्यता के मुताबिक भगवती सती की जिह्वा श्री हरि के चक्र से कटकर इस स्थान पर गिरी थी और स्वयं भगवान महादेव (शिवजी) भैरव रूप में स्थित है। देवी के दर्शन की अभिलाषा से आए श्रद्धालु व भक्तजन देवी का दर्शन ज्योति (ज्वाला )के रूप में करते हैं। नौ स्थानों पर दिव्य ज्योति बिना किसी इधन के सदा प्रज्वलित होती है। जिस कारण देवी को ज्वालाजी कहकर पुकारा जाता है। हिमाचल का यह ज्वालाजी शक्तिपीठ धर्मशाला से 56 कि.मी. और कांगड़ा से 34 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
ज्वाला मंदिर में प्रवेश के लिये मुख्य द्वारतक संगमरमर की सीढिय़ाँ बनायी गयी हैं। इसके बाद ज्वालाजी का दरवाजा है। अंदर एक अहाता है, जिसके बीच में एक मंदिर बना हुआ है। इसके इधर-उधर अनेक दूसरे भवन देवी के धार्मिक कक्ष हैं। ज्वालाओं का कुण्ड मध्य में है। माना जाता है कि सात बहनें सात लपटों के रूप में यहीं पर रहती हैं। ये लपटें पर्वतीय भूमि से निकली हुई हैं और सदा प्रकाशमान तथा प्रज्वलित रहती हैं। यहां पर एक छोटे से कुण्ड में पानी लगातार खौलता रहता है, जो देखने में तो गरम लगता है, किन्तु छूकर देखें तो वह बिल्कुल ठंडा लगता है।
शक्ति की इन ज्योतियों के प्रति ईष्र्यालु होकर बादशाह अकबर ने अपने शासन के समय उन्हें बुझाने की कोशिश की, पर उसकी कोशिशें व्यर्थ गयीं।
विद्वानों का परामर्श मानकर बादशाह अकबर सवा मन सोने का छत्र अपने कंधे पर उठाकर नंगे पांव दिल्ली से ज्वालामुखी पहुंचा। वहां जलती हुई ज्योतियों के सामने सिर नवाकर बादशाह ने सोने का छत्र जैसे ही चढ़ाना चाहा तो वह छत्र सोने का नहीं रहा, वह किसी अनजान धातु में बदल गया। इस चमत्कार से चमत्कृत अकबर ने माता से अपने गुनाहों के लिए क्षमायाचना की और दिल्ली लौट गया।
इस पावन स्थल पर माता सती के शरीर की जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा और भैरव उन्मत्त हैं। मंदिर के अहाते में छोटी नदी के पुल के ऊपर से जाना होता है। मंदिर के भीतर पृथ्वी के भीतर से मशाल जैसी ज्योति निकलती है। शिवपुराण व देवी भागवत महापुराण में इसी देवी को ज्वाला रूप माना है।
श्री ज्वालामुखी जी का मंदिर
भगवती ज्वाला जी मंदिर के निर्माण के विषय में एक दंतकथा है। उस दंत कथा के अनुसार सतयुग में सम्राट भूमि चंद्र ने अनुमान किया कि जिस समय सती के मृतक शरीर को लेकर श्री शिवजी तीनों लोकों में भ्रमण कर रहे थे, उस समय भगवान श्री हरि ने उन्हें माया के वशीभूत हुआ जानकर अपने सुदर्शन चक्र से सती की मृत्यु काया शरीर को खंड-खंड कर दिया और भगवती की जिह्वा कट कर हिमालय के धौलाधार पर्वत पर कहीं गिरी। राजा भूमि चंद्र ने उस स्थान को ढूंढने का बहुत प्रयत्न किया और सफलता न मिली। तब उन्होंने भगवती का एक छोटा सा मंदिर सती के नाम से बनवाया और प्रतिदिन भक्ति भाव से पूजा करने लगे। कुछ समय व्यतीत होने के उपरांत एक दिन एक ग्वाले ने आकर सूचना दी कि एक पर्वत पर मैंने ज्वाला निकलती हुई देखी है जो दिव्य ज्योति के समान निरंतर जलती है।
ग्वाले के मुख से यह सुनकर राजा भूमि चंद्र अत्यंत प्रसन्न हुए और ग्वाले के साथ उस स्थान पर गए और अपनी आंखों से दिव्य ज्वाला के दर्शन किए। तदोपरांत उस स्थान पर उन्होंने भव्य मंदिर का निर्माण कराया और देवी की सेवा तथा पूजा अर्चना हेतु साक द्वीप से भोजक जाति के दो ब्राह्मणों को पूजन आदि का अधिकार प्रदान किया। ब्राह्मणों के नाम पंडित श्रीधर तथा पंडित कमलापति थे। उन ब्राह्मणों के वंशज आज तक माता ज्वाला देवी के दरबार में पूजा करते आ रहे हैं।
पवित्र ज्योतियो के दर्शन की महिमा
श्री ज्वाला जी मंदिर में देवी मां के दर्शन नवज्योति के रूप में होते हैं। यह ज्योतियां कभी कम या अधिक भी रहती हैं, जो नवदुर्गा के रूप में संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना करने वाली है जिनके सेवक सत्व, रज और तम यह तीन गुण हैं। मंदिर के द्वार से प्रवेश करते समय चांदी के आले में जो मुख्य ज्योति प्रदिप्तिमान है उसे महाकाली का रूप कहा जाता है। जो सांसारिक प्राणियों को भक्ति, एवं मुक्ति के प्रदाता कही जाती हैं। अन्य पवित्र ज्योतियां जिनके दर्शन मात्र से प्राणियों के दुख दारिद्र्य एवं पापों का विनाश होता है। महाकाली ज्योति के नीचे भंडार भरने वाली, अर्थात अन्न धन से सदैव परिपूर्ण करने वाली माता अन्नपूर्णा की पवित्र ज्योति है, दूसरी और अर्थात तीसरी ज्योति चंडी माता की है जो सदा शत्रुओं का विनाश करने में तत्पर रहती हैं। समस्त व्याधियों का नाश करने वाली चौथी पवित्र ज्योति हिंगलाज भवानी की है। पांचवी ज्योति सुख समृद्धि संपत्ति एवं वैभव देने वाली देवी महालक्ष्मी की है। माता महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त होने से प्राणी को समस्त भौतिक सुख प्राप्त होते हैं। षशटम ज्योति देवी विंध्यवासिनी की है जो शोक से छुटकारा देकर अभय प्रदान करती हैं।
सातवी देवी की पवित्र ज्योति विद्यादायिनी, वीणावादिनी माता महासरस्वती की है, जिनकी कृपा से प्राणी को ज्ञान एवं बुद्धि प्राप्त होती है। कहा गया है कि जो विद्याहीन है, मूर्ख है वह पृथ्वी पर मनुष्य रूप में जन्म लेकर भी पशु के समान है अर्थात बुद्धिमान प्राणी की सर्वत्र पूजा होती है जो माता सरस्वती की कृपा से ही संभव है। आठवीं ज्योति के रूप में संतान सुख प्रदान करने वाली देवी अंबिका हैं। देवी अंबिका के सच्चे मन और पूर्ण श्रद्धा से उपासना करने वाली स्त्रियों को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। आयु और सुख प्रदान करने वाली नवी ज्योति देवी अंजना की है। माता अंजना की कृपा से अल्पायु प्राणी की दीर्घायु होकर सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।
ज्योति स्वरूप स्थित देवियां और उनकी कृपा से प्राप्त होने वाले पुण्य फल-
1. महाकाली- भक्ति एवं मुक्ति के देवी
2. अन्नपूर्णा- धन-धान्य प्रदान करने वाली देवी
3. चंडी – शत्रुविनाशिनी
4. हिंगलाज भवानी- व्याधियों का नाश करने वाली
5. विंध्यवासिनी -शोक निवासिनी
6. महालक्ष्मी -धन संपत्ति और वैभव की देवी
7. सरस्वती- विद्या दात्री
8. अंबिका -संतान प्रदाता
9. अंजना देवी -आयु एवं सुख की देवी
उपरोक्त ज्योति स्वरूप स्थिति देवियों की आराधना करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है इसमें संदेह नहीं लेकिन देवियों की कृपा प्राप्त करने के लिए सच्चे मन और सच्ची श्रद्धा की आवश्यकता है।
गोरख डिब्बी का महत्व
यहां पर जल से भरा हुआ एक छोटा सा कुंड है, जो निरंतर चलता रहता है और देखने में गर्म प्रतीत होता है किंतु कुंड का जल वास्तव में शीतल (ठंडा) होता है। इस स्थान पर छोटे कुंड के ऊपर धूप की जलती बत्ती दिखने से जल के ऊपर बड़ी ज्योति प्रकट होती है इससे रूद्रकुंड भी कहते हैं। यह कुंड ज्वालामुखी मंदिर की परिक्रमा में 10 सीढ़ियां ऊपर चढ़ कर दाएं ओर है।कहा जाता है कि यहां पर गुरु गोरखनाथ ने तपस्या की थी। वह अपने शिष्य नागार्जुन के पास डिब्बे रखकर खिचड़ी मांगने गए और वापस नहीं लौटे और डिब्बी का जल गर्म नहीं हुआ।
सेजा भवन
यह भगवती ज्वाला देवी का शयन स्थान है अर्थात देवी का विश्राम स्थल।भवन में प्रवेश करते हैं समय भवन के मध्य एक चबूतरा दिखाई देता है जो संगमरमर का बना हुआ है चबूतरे के ऊपर चांदी लगी हुई है। रात्रि 10 बजे शयन आरती के उपरांत भगवती के शयन के लिए कपड़े तथा पूर्ण श्रींगार की सामग्री के साथ जल से भरा लोटा (जल पात्र) और दातुन रखी जाती है। सेजा भवन के चारों ओर 10 महाविद्याओं की मूर्तियां स्थापित हैं।
तीर्थ के अन्य दर्शनीय स्थल
1. श्री राधा कृष्ण मंदिर
2. लाल शिवालय
3. सिद्धि नागार्जुन
4. अंबिकेश्वर महादेव
5. टेढ़ा मंदिर
गोरख डिब्बी यानी जलकुंड की गाथा
पूर्व काल में एक बार गुरु गोरखनाथजी भ्रमण करते हुए माता ज्वालामुखी के तीर्थ स्थान पर आए। उन दिनों लोग माता के प्रसन्न करने हेतु पशु बलि देते थे। योगीराज गोरखनाथ जी माता के चरणों में उपस्थित हुए उस समय साक्षात देवी उनके सम्मुख प्रकट हुई और प्रसन्नतापूर्वक उनको भोजन करने हेतु बोली- तब गोरखनाथ जी ने कहा -है माता मैं इतनी दूर चल कर आप के दर्शन की अभिलाषा से आया था, तो आपने दर्शन देकर मुझे धन्य किया अब किसी वस्तु की मुझे चाह नहीं है आपके दुर्लभ दर्शन से मेरी भूख-प्यास सब शांत हो गई। आप समस्त रहस्य को जानने वाली है, तथापि आग्रह करती है तो यह जाने कि आपके आग्रह को स्वीकार करने का मूल कारण यह है कि योगी के लिए मन की शुद्धि के साथ तन की शुद्धि भी परम आवश्यक है, जबकि आप पशुबली स्वीकार करती हैं इसी कारण हम भोजन नहीं करेंगे। गोरखनाथ जी के वचनों को सुनकर देवी ने कहा- सत्य तो यह है कि मैं भी ऐसा भोजन नहीं चाहती किंतु यह सांसारिक प्राणी अपने जीभ के स्वाद के लिए पशु बलि चढ़ाते हैं, अब आप अपने विषय में आज्ञा करें कि किस प्रकार का भोजन प्रबंध करूं। उससमय गोरखनाथ जी ने कहा हे मातेश्वरी! आपके द्वारा किए गए सत्कार से मैं पूर्ण रुप से संतुष्ट हुआ। मेरी अभिलाषा खिचड़ी पका कर खाने की है, अतः आप डिब्बी में थोड़ा सा जल गर्म कर दें तब तक मैं खिचड़ी बनाने हेतु भिक्षा रूप में अन्य मांग कर लाता हूं। उनके वचनों को सुनकर देवी ने कहा कि आप जितने समय में भिक्षा मांगकर लाएंगे इतने समय में डिब्बी तो क्या पूरे पर्वत को गर्म किया जा सकता है।
जब जल गर्म हो जाएगा, तब हम उपस्थित होंगे, यह कहकर गोरखनाथ जी ने देवी से विदा ली और तीर्थ स्थानों का भ्रमण करने के लिए चल दिए। उधर देवी ने उस छोटी सी डिब्बी को गर्म करने की अपेक्षा छोटे से जलाशय को गर्म करने के विचार से उसके चारों ओर ज्वालाएं प्रकट की। ज्वालाओं से जलकुंड का जल उबलने लगा किंतु गर्म ना हुआ। जल गर्म ना हुआ तो गोरखनाथ जी भी नहीं आए| इसी कारण या जलकुंड गोरखनाथ डिब्बी के नाम से विख्यात हुआ। तब से माता ज्वालामुखी के साथ प्रातः एवं सायं काल गोरखनाथ जी की भी पूजा होती है।
ध्यानू भक्त की अनुपम गाथा
मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में नादान ग्राम का निवासी ध्यानू माता के दर्शन की अभिलाषा से अन्य यात्रियों के साथ जा रहा था। हजारों की संख्या में देवी दर्शन को जा रहे यात्रियों को देखकर अकबर के सिपाहियों के मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि आखिर इतना बड़ा दल कहां और क्यों जा रहा है? ऐसा विचार करके सिपाहियों ने उन्हें रोक लिया और सम्राट अकबर के सम्मुख पेश किया।
बादशाह ने पूछा- तुम इतने आदमियों को साथ लेकर कहां जा रहे हो। सच्चाई बयान करो अन्यथा हम तुम्हारा सिर कटवा देंगे । सम्राट अकबर के इस प्रकार पूछने पर ध्यानू ने हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए नम्र वाणी में कहा- महाराज हम सभी ज्वाला माई के दर्शन के लिए जा रहे हैं। तब अकबर ने पुनः पूछा यह ज्वाला माई कौन है? हमने तो कभी नहीं देखा फिर वहां जाने का मकसद क्या है? क्यों जा रहे हो तुम लोग?
सम्राट अकबर का प्रश्न सुनकर ध्यानू ने बड़े सभ्य एवं संतुलित ढंग से उत्तर देते हुए कहा- माता ज्वाला माई समस्त संसार के सृजनहार( उत्पन्न करने वाली से अर्थ है) एवं पालन करने वाली माता है जो भक्त मैया के दरबार में पहुंचकर सच्चे मन से पूजा एवं प्रार्थना करता है। माता उस प्राणी की झोली संसार के सभी सुखों से भर देती है| इतना ही नहीं सत्य तो यह है कि कोई भी सांसारिक प्राणी मैया के समस्त गुणों का बखान नहीं कर सकता। उनके प्रताप से बिना तेल एवं बिना बत्ती के अखंड ज्योति निरंतर जलती रहती है।
ध्यानू के वचन सुनकर सम्राट अकबर को महान आश्चर्य हुआ किंतु उनकी बातों का विश्वास ना हुआ तब उन्होंने कहा यदि तुम्हारी देवी माता सचमुच दिव्य गुणों से युक्त है तो कोई ऐसा कार्य करो, जिससे हमें तुम्हारी देवी माता पर विश्वास हो, आखिर तुम उनके भक्त हो। तब ध्यानू ने कहा महाराज मैं तो माता का एक तुच्छ सेवक हूं चमत्कार दिखाने की सामर्थ मुझमें कहां?
उस समय सम्राट अकबर ने ध्यानू की बातों पर ध्यान ना देकर उपहास करने की भावना से कहा- यदि तुम्हारी बंदगी पूर्ण रूप से पाक पवित्र है तो और तुम माता के सच्चे भक्त हो तो तुम्हारी देवी माता अवश्य और तुम्हारा ध्यान रखेंगी। तुम यह जान लो कि आज तुम्हारी भक्ति और तुम्हारी देवी माता की शक्ति का इंतिहान है यह कह कर सम्राट अकबर ने एक घोड़े की गर्दन तलवार से काटकर अलग कर दी, तत्पश्चात उसने कहा मैंने इस घोड़े की गर्दन काट दी यदि तुम्हारी देवी शक्ति संपन्न है तो इस घोड़े को पुनः जिंदा कर दे।
उस समय देवी भगवती का ध्यान करते हुए ध्यानू भक्त ने सम्राट अकबर से कहा-हे महाराज ! यध्यपि मै मैया का एक तुच्छ सेवक हूं फिर भी आप नहीं मान रहे तो मेरी आपसे यही विनती है कि आप मुझे एक माह का समय दें और तब तक उस मृत घोड़े का सिर एवं धड सुरक्षित रखें। यह कहकर उसने बादशाह से विदा ली और अन्य यात्रियों सहित चलकर माता ज्वाला जी के दरबार में जा पहुंचा। प्रातः काल स्नान आदि से निवृत होकर मैया की प्रातः कालीन आरती के समय दरबार में उपस्थित होकर हाथ जोड़ नेत्रों को बंद करके पूर्ण श्रद्धा से निवेदन करते हुए कहने लगा-हे माता !आप तो अंतर्यामी है संसार के समस्त वस्तुएं आपकी दिव्य दृष्टि के सम्मुख हैं।
आप चर-अचर सजीव निर्जीव में विराजमान हैं। हे मातेश्वरी! आपने सदैव भक्तों की लाज रखी है और समय पर उपस्थित हुई हैं। हे जग की माता! आज तुम्हारे इस भक्तों की लाज तुम्हारे हाथों में है। बादशाह अकबर मेरी भक्ति की परीक्षा ले रहा है मां। हे माता! उस घोड़े को पुनर्जीवित करके मेरी भक्ति की रक्षा करो मां। यदि आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की तो मैं अपना शीश काटकर तुम्हारे चरणों में रख दूंगा।
यह कहकर ध्यानु ने कुछ पल तक देवी के चमत्कार की प्रतीक्षा की किंतु कोई उत्तर ना मिला तब उसने अपने हृदय से विचार किया कि लज्जित होकर जीने से अच्छा तो मर जाना है, तत्पश्चात उसने तलवार उठा कर अपना शीश काटकर देवी के चरणों में रख दिया।
कहा जाता है कि उसी समय देवी साक्षात प्रकट हुई और उसकी अमृतमई दृष्टि पड़ते ही ध्यानु का कटा हुआ सिर स्वयंमेव उसके धड़ से जुड़ गया तथा वह जीवित हो गया। जीवित होने के उपरांत ध्यानु ने देखा देवी मैया साक्षात उसके सम्मुख अपने दिव्य रूप में उपस्थित हैं। यह देखकर उसके प्रसन्नता की सीमा न रही तब उसने हाथ जोड़कर देवी के समक्ष सिर झुकाते हुए कहा हे माता! आप तो अंतर्यामी हैं। सब कुछ जानती हैं। मेरे हृदय की व्यथा से भली प्रकार परिचित हैं। ध्यानु के वचनों को सुनकर देवी ने प्रसन्न होकर कहा हे- भक्त तेरीभक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं अतः समस्त चिंताओं को त्याग कर जो इच्छा हो, मांगो अब तुम्हें बादशाह अकबर के सम्मुख लज्जित नहीं होना पड़ेगा। मेरी कृपा से अकबर के दरबार में मृत घोड़े का सिर उसके धड़ से जुड़ चुका है वह जीवित हो गया है।
अपनी इच्छा के लिए तुम जो चाहते हो निर्भय होकर मांगो। देवी के बारमबार कहने पर ध्यानु ने हाथ जोड़कर कहा हे सर्वशक्तिमान माता! हे जगत माता! आप के दर्शन मात्र से मेरी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण हो गई फिर भी आप कहती हैं तो मेरा आपसे यही निवेदन है कि भक्तों की इतनी कठिन परीक्षा ना लिया करें। समस्त सांसारिक प्राणी इतने कठिन परीक्षा नहीं दे सकते अतः भक्तों पर कृपा करें और साधारण भेटों से ही उनकी अभिलाषाएं पूर्ण करें।
ध्यानु की वाणी सुनकर देवी प्रसन्न हुई और अपना अभय हाथ उठाकर उसके मस्तक पर फेरकर तथास्तु ( ऐसा ही हो) कह कर बोली- हे भक्त! अब जो कोई प्राणी ( मनुष्य) मेरे दरबार में उपस्थित होकर मेरे स्वरूप का ध्यान करेगा मैं उस पर प्रसन्न होकर उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करूंगी तथा शीश के स्थान पर नारियल की भेंट स्वीकार करूंगी यह कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गई| इधर यह घटना घटी उधर दिल्ली बादशाह अकबर के दरबार में घोड़े का कटा हुआ सिर धड़ से जुड़ गया। यह दृश्य देखकर बादशाह अकबर सहित उसके समस्त दरबारी आश्चर्य चकित रह गए।तत्पश्चात अकबर ने अपने कुछ सैनिकों को ज्वालाजी भेजा। सैनिकों ने आकर सूचना दी कि वहां जमीन से आग की लपटें ज्वाला रूप में निरंतर निकल रही है अगर आप आदेश दे तो उस निकलती लपटों को बंद करवा दें जिससे हिंदुओं के पूजा का स्थान ही समाप्त हो जाएगा। सैनिकों की बात सुनकर बादशाह अकबर ने विचार किया कीजिए सैनिक ठीक कह रहे हैं ।जब ज्वाला ही निकलनी बंद हो जाएगी तो पूजा स्थल ही कहां रहेगा। उसने उसी समय आदेश दे दिया।
हे माता के भक्तों! बादशाह अकबर का आदेश पाते उसके हजारों सैनिक उसी समय ज्वाला को बंद करने के अनेक सामान लेकर वहां जा पहुंचे मोटे मोटे विशाल लोहे के तवे से सर्वप्रथम उन सभी में निकलती ज्वालाओ को बंद करने का प्रयास किया किंतु महान आश्चर्य की उन तवो को फाड़कर वह दिव्य ज्वाला बाहर निकलने लगी तब उन सैनिकों ने एक नहर का बहाव उस ओर मोड़ दिया। उस नहर का पानी लगातार उस ज्योति पर गिरने से ज्योति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा- ऐसा उनका विचार था किंतु विचार, विचार ही सिद्ध हुआ नहर के पानी से भी उस दिव्य ज्वाला का कुछ ना हुआ। वह पूर्व पहले की भान्ति निकलती रही अंततः वह सभी सैनिक निराश हो गए और कुछ सैनिकों को भेजकर बादशाह अकबर को सूचित किया कि हमारी सारी कोशिश निरर्थक सिद्ध हुई। अतः अब आप जो उचित समझेवही करें।
तब बादशाह अकबर ने अनेक विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर विचार विमर्श किया कि मुझे क्या करना चाहिए? ब्राह्मणों ने कहा- हे महाराज! अब यही उचित है कि आप स्वयं देवी के दरबार में जाएं और देवी का चमत्कार देखें तथा नियमानुसार देवी को भेंट आदि चढ़ाकर प्रसन्न करें। बादशाह अकबर ने ब्राह्मणों की राय मानकर सवा मन सोने का छत्र बनवाकर उसी क्षण माता ज्वाला जी के दरबार में जा पहुंचे फिर वह छत्र अपने कंधे पर उठाकर चढ़ाने के लिए चले जब कंधे से उतारकर चढ़ाने लगे उसी समय वह छत पर गिर कर टूट गया और कहा जाता है कि वह सोने का ना रहा बल्कि किसी विचित्र धातु का बन गया जो ना लोहा था, ना पीतल, तांबा और ना ही शीशा जिससे यह सिद्ध होता है कि माता भगवती ने अकबर की भेंट अस्वीकार कर दी। बादशाह अकबर घबरा गए और माता के चरणों में शीश झुकाकर क्षमा मांगने लगे है माता! हमसे जाने अनजाने में जो भूल हुई उसे क्षमा करें तत्पश्चात वे दिल्ली लौट आए और अपने राज्य के सभी सिपाहियों एवं अन्य ओहदेदारों को आदेश दिया कि ज्वाला माई के भक्तों के साथ आदर पूर्ण व्यवहार करें। अकबर द्वारा चढ़ाया हुआ खंडित छत्र आज भी माता के दरबार में बाई और पड़ा है।
हवन -पूजन विधि
श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास से जो प्राणी माता ज्वाला जी की पूजा अर्चना करता है, माता की कृपा से धन्य हो कर वह समस्त सुखों को प्राप्त करता है। नवरात्रि में की जाने वाली पूजा को ज्ञानी जन सर्वाधिक फल प्रदान करने वाला कहते हैं किंतु अन्य दिनों में विश्वास एवं भक्ति भावना से पूर्ण होकर पूजा करना महान फलदायक होता है तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार कन्या पूजन ( नव कुंवारी कन्याओं) का विधान है और ब्राह्मणों को भोजन कराएं, दान दें।
कन्या पूजन का है विधान
कन्या पूजन के लिए जो प्राणी संपूर्ण कामना सिद्धि के लिए पूजन करता है । वह ब्राम्हण कुमारी का पूजन करें। विजय कामना से जो व्यक्ति कन्या पूजन करता है । उसे क्षत्रिय कन्या का पूजन करना चाहिए। धन प्राप्ति हेतु वैश्य कन्या का पूजन उचित है।
श्री ज्वाला देवी की पूजा के विधान
माता श्री ज्वाला देवी की पूजा तीन तरह से होती है-
पंचोपचार विधि- पंचोपचार विधि से पूजन करने के लिए गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि मां की सेवा में प्रस्तुत करें और निवेदन करें कि हे माता! मैं अज्ञानी मूर्ख प्राणी हूं। मुझे पूजा पाठ करने का ज्ञान नहीं है। जो भी मेरे पास उपलब्ध है वह आपके चरणों मेंअर्पित करता हूं।
दसोउपचार विधि- पाद्य्, अर्घ्य, आचमन, स्नान, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, चंदन आदि से पूजन करें और उपरोक्त विधि से क्षमा प्रार्थना करें।
षोड़षोपचार विधि- आसन, स्वागत, पाद्य, अद्र्घ, आचमन, मधु, पूरित स्नान, वस्त्र आभूषण, चंदन, इत्र, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य उपरोक्त वर्णित विधि से मातेश्वरी की पूजा का विधान है।