बहुत से मनुष्य ईश्वर को मानते हैं, उसमें श्रद्धा व आस्था भी रखते हैं परन्तु ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानते नहीं है। इस कारण से वह ईश्वर की सच्ची उपासना को प्राप्त नहीं हो पाते। हम किसी भी वस्तु से तभी लाभ उठा सकते हैं कि जब हमें उस वस्तु के सत्य गुणों व लाभों का ज्ञान हो। ईश्वर भी एक यथार्थ सत्य सत्ता व पदार्थ है। ईश्वर वैसा नहीं है जैसा कि लोग प्रायः उसके विषय में कहा करते हैं। ईश्वर एक है और वह इस संसार का रचने वाला, पालन करने वाला तथा प्रलय करने वाला है। हम देखते हैं कि संसार का कहीं आदि व अन्त नहीं है अर्थात् यह संसार व विश्व अनन्त परिमाण व क्षेत्रफल वाला है। हमारे जैसे अनन्त सौर मण्डल इस ब्रह्माण्ड में है। संसार में एक ईश्वर होने व सर्वत्र एक दूसरे में बाधक किसी प्रकार की व्यवस्था न होने से पूरे ब्रह्माण्ड का स्वामी व संचालक एक ईश्वर ज्ञात होता है। वेदों में ईश्वर के इस स्वरूप को सर्वव्यापक अर्थात् सब स्थानों पर विद्यमान कहा जाता है। ईश्वर संसार के सभी पदार्थों में ओतप्रोत है। वह प्रत्येक पदार्थ के भीतर भी है और बाहर भी है।
ईश्वर के इस गुण व स्वरूप के कारण ईश्वर को सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी कहा जाता है। वेदों में ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप अर्थात् सत्य, चित्त एवं आनन्द से युक्त वाला बताया गया है। स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करने पर ईश्वर का यह स्वरूप सत्य विदित होता है। ईश्वर सत्य है अर्थात् उसकी सत्ता है। ईश्वर काल्पनिक व अयथार्थ सत्ता नहीं है। सत्यस्वरूप ईश्वर चेतन व सर्वज्ञ है। वह दुःखों से सर्वथा रहित एवं पूर्ण आनन्द से युक्त है। वह सर्वव्यापक होकर अखण्ड एवं सर्वत्र एकरस है। कहीं भी कोई मनुष्य ईश्वर की उपासना करता व उससे रक्षा की याचना करता है तो ईश्वर उसकी रक्षा करने के साथ उसकी सहायता करता, उसके दुःख दूर करता तथा उसे सुख प्रदान करता है। ईश्वर ने ही हमारे माता व पिता को जन्म दिया और वही उनका पालनकर्ता रहा है। वही ईश्वर हमारे माता पिता के द्वारा हमें इस संसार में हमारे पूर्वजन्मों के पाप व पुण्य कर्मों का सुख व दुःख रूपी फलों का भोग कराने के लिए जन्म देते हैं। हमें जो सुख व दुःख प्राप्त होते हैं वह हम सबको अपने अपने शुभ व अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप ही प्राप्त होते हैं।
ईश्वर की उपासना करने के अनेक कारण हैं। एक कारण ईश्वर की उपासना से मनुष्य के दुःखों का दूर होना भी होता है। वेदों में कहा गया है कि ईश्वर हमारे सभी दुरितानि अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर करने वाला और हमारे लिये जो हितकारी गुण, कर्म, स्वभाव, पदार्थ और सुख की स्थितियां होती हैं, वह हमें प्राप्त कराता है। केवल सुखों की प्राप्ति के लिए ही उपासना नहीं की जाती अपितु ईश्वर की उपासना करना ईश्वर के सभी जीवात्माओं पर अनादि काल से अनवरत किये जाने वाले उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हुआ करता है। उपासना में हम ईश्वर के गुणों व उपकारों का विचार, चिन्तन व ध्यान करते हैं। उनके उपकारों को स्मरण कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
माता, पिता, विद्वानों व इतर मनुष्यों के किन्हीं उपकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना सभी मनुष्यों का नैतिक कर्तव्य होता है। हम स्वयं अच्छा नहीं समझते कि हम किसी पर निरन्तर उपकार करते रहें और वह व्यक्ति व प्राणी हमारी उपेक्षा व तिरस्कार करता रहे। वह हमारे उपकारों के लिए कृतज्ञ न हो। हमें धन्यवाद न करें। हमारा उचित सम्मान न करे। यदि कोई व्यक्ति उपकार करने वाले मनुष्य का कृतज्ञ नहीं होता तो यथायोग्य व्यवहार के आधार पर ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपकारी तो हुआ जा सकता हैं परन्तु उसे हम साधारण कोटि में ही रखेंगे। जो व्यक्ति किसी के उपकार करने पर कृतज्ञता का अनुभव करता व उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए उनके प्रति आदर, श्रद्धा, विनय आदि की भावना रखता है, वह मनुष्य देश, समाज व संसार में प्रशंसनीय होता है। इसी प्रकार से हमें उपासना में बैठकर ईश्वर के सत्यस्वरूप का विचार करना होता है। उसके उपकारों को स्मरण करना होता है, उपकारों के लिए उसका धन्यवाद करना होता है और उससे सन्मार्ग दर्शन, सत्प्रेरणा करने सहित दुःखों को दूर करने तथा सुख प्रदान करने की प्रार्थना करनी होती है। हम ईश्वर से रक्षा की प्रार्थना करने के साथ उसकी उसके सत्य गुणों से स्तुति करते हुए स्वस्थ व निरोग जीवन, सन्तानों के हित व कल्याण सहित अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा एवं उसके संवर्धन की प्रार्थना कर करते हैं। संसार के सब लोगों के सुख व उनके सद्कर्म कर्म करने सहित वेदों का स्वाध्याय करने व वेदमार्ग पर चलने की प्रार्थना भी हम ईश्वर से कर सकते हैं। ऐसा करने से हमारा जीवन परोपकारमय सत्कर्मों से युक्त होता है और हम सभी विद्वानों, मनुष्यों एवं प्राणियों के प्रिय बन जाते हैं। अतः ईश्वर की उपासना ईश्वर के सत्य गुणों व उपकारों का ध्यान करते हुए सभी मनुष्यों को करनी चाहिये।
ईश्वर ने यह संसार हम सब जीवों के लिये बनाया है। हम सब जीव ईश्वर की सन्तान के समान हैं। ईश्वर हमारा माता व पिता दोनों ही है। वही हमारा आदि आचार्य और वर्तमान में भी शुभ कर्मों का प्रेरक है। ईश्वर के हम पर न केवल इस जीवन में अपितु अनादि काल से अनन्त उपकार हैं। भविष्य में भी हम ईश्वर से अनुग्रहित रहेंगे। इस कारण से हमारा कर्तव्य होता है कि हम आचार्यों के उपदेश तथा वेदों के स्वाध्याय से ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को प्राप्त होकर उसकी प्रतिदिन प्रातः व सायं व अन्य समयों में भी स्तुति, प्रार्थना, उपासना, चिन्तन व ध्यान करते रहें और उसके उपकारों के लिए उसका धन्यवाद करते रहें।
ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की स्तुति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् है। वह शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद (चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) द्वारा कराता है। सगुण भक्ति का उल्लेख कर वह लिखते हैं कि जिस जिस गुण से युक्त व सहित होकर परमेश्वर की स्तुति करना होता है वह सगुण स्तुति होती है। वह ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता, वह कभी जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता ओर कभी पापाचरण नहीं करता, जिस में क्लेष, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि जिस जिस राग, द्वेषादि गुणों से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है वह निर्गुण स्तुति कहाती है। इन सगुण व निर्गुण दोनों स्तुतियों का फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी हैं तो हम भी न्यायकारी होवें। और जो मनुष्य केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र व जीवन को नहीं सुधारता है, उसका स्तुति करना व्यर्थ होता है। स्तुति का अर्थ यह समझ में आता है कि जो गुण ईश्वर में हैं उन्हें हमें अपने जीवन में धारण करना है। ईश्वर के गुणों का उल्लेख करना व उन्हें अपने जीवन में धारण करना ही ईश्वर की स्तुति कहलाती है।
हमें ईश्वर से प्रार्थना भी करनी होती है। प्रार्थना करने से हमारे भीतर लघुता का भाव आता है और हम ईश्वर को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करते हैं। इससे हममें अहंकार का नाश होता है। प्रार्थना करने वाला मनुष्य निरभिमानी होता है। प्रार्थना एक प्रकार से मनुष्य को अभिमान रहित बनाने की प्रक्रिया भी है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर ईश्वर की प्रार्थना करने पर प्रकाश डाला है। हम यहां दो मन्त्रों के प्रार्थनापरक अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रथम प्रार्थना है कि हे अग्ने! अर्थात् प्रकाशस्वरूप पमेश्वर आप की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते हैं उसी बुद्धि से युक्त हम को इसी वर्तमान समय में आप बुद्धिमान व ज्ञानवान कीजिये। दूसरी प्रार्थना- ईश्वर प्रकाशस्वरूप हैं, वह कृपा कर मुझमें भी प्रकाश स्थापन करें। आप अनन्त पराक्रम युक्त हैं इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। ईश्वर अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये वह मुझ में भी बल धारण कराये। ईश्वर अनन्त सामथ्र्ययुक्त हैं, वह मुझ को भी पूर्ण समाथ्र्य दें। ईश्वर दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझ को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और स्वअपराधियों का सहन करने वाले हैं, कृपा से मुझ को भी वैसा ही कीजिये। स्तुति प्रार्थना व उपासना को विस्तार से समझने के लिये सत्यार्थप्रकाश के सप्तमसमुल्लास का उपासना प्रकरण पढ़ना चाहिये।
उपासना का उल्लेख कर ईश्वर के सच्चे उपासक ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि जिस पुरुष के समाधि योग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिस ने लगाया है उस को जो परमात्मा के योग का सुख होता है वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसके सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष (व ईश्वरका साक्षात्कार करने) के लिए जो-जो काम करना होता है वह सब मनुष्यों व उपासकों को करना चाहिये।
ईश्वर की उपासना करने से मनुष्य को पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर उसे सहन करने की शक्ति प्राप्त होती है। उपासना करने वाला मनुष्य दुःखों में घबराता नहीं है। इस विषय में ऋषि के शब्दों को लिखकर हम लेख को विराम देते हैं। ऋषि लिखते हैं कि जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्राथर््ाना ओर उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस से इस उपासना का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुख प्राप्त होने पर भी वह न घबरायेगा ओर सब को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रखे हैं, उस का गुण वा उपकार भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।
हम आशा करते हैं कि इस लेख के पाठक उपासना के महत्व को समझेंगे एवं वेद व ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करने के साथ ईश्वर की उपासना अवश्य ही करेंगे जिससे वह उपासना के सभी लाभों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य